इस पुस्तक में इस्लाम और उसके स्तंभों को परिभाषित करते हुए तथा कुछ अन्य मुद्दों का उल्लेख करते हुए, संक्षेप में इस्लाम का परिचय प्रस्तुत किया गया है। चुनाँचे सबसे पहले संक्षेप में ब्रह्माण्ड की रचना, उसकी रचना की तत्वदर्शिता, मनुष्य की रचना और उसका सम्मान, महिला का स्थान, मनुष्य की पैदाइश की हिक्मत, मनुष्य को धर्म की आवश्यकता, सच्चे धर्म का मापदंड, धर्मों के प्रकार, वर्तमान धर्मों की स्थिति, नबूवत (ईश्दूतत्व) की वास्तविकता, नबूवत की निशानियाँ, मानव जाति को संदेष्टाओं की ज़रूरत, आख़िरत, रसूलों की दावत के नियम एवं सिद्धांत, अनन्त सन्देश, खत्मे नबूवत का वर्णन किया है। फिर इस्लाम और उसके स्तंभो को परिभाषित करते हुए, धर्म की श्रेणियों और इस्लाम धर्म की कुछ अच्छाईयों का उल्लेख किया गया है।
التفاصيل
इस्लाम के सिद्धांत और उसके मूल आधार मार्ग कहाँ है? अल्लाह सर्वशक्तिमान का अस्तित्व, उसका एकमात्र पालनहार होना, उसकी एकत्व और उसका एकमात्र पूजा योग्य होना [7] : 1. इस ब्रह्माण्ड की रचना और इसके अंदर विद्यमान अद्भुत व उत्कृष्ट कारीगरी : 2. प्रकृति : 3. समुदायों की सर्वसहमति : 4. बौद्धिक अनिवार्यता : ब्रह्माण्ड की रचना ब्रह्माण्ड की रचना की तत्वदर्शिता इन सब के बाद, हे मनुष्य! मनुष्य की रचना और उसे सम्मान प्रदान किया जाना स्त्री का स्थान मनुष्य की पैदाइश की हिकमत मनुष्य को धर्म की आवश्यकता सच्चे धर्म का मापदंड धर्मों के प्रकार वर्तमान धर्मों की स्थिति नबूवत की वास्तविकता नबूवत की निशानियाँ मानव जाति को रसूलों की ज़रूरत आख़िरत रसूलों के आह्वान के प्रमुख सिद्धांत ख़त्म-ए-नबूवत इस्लाम की वास्तविकता : कुफ्र की वास्तविकता : इस्लाम के स्रोत क- पवित्र कुरआन : ख- नबी की सुन्नत : पहली श्रेणी [234] इस्लाम में इबादत का अर्थ [244] दूसरी श्रेणी [247] तीसरी श्रेणी : इस्लाम की कुछ खूबियाँ एवं अच्छाइयाँ [292] : 1- इस्लाम अल्लाह का धर्म है : 2- व्यापकता : 3- इस्लाम सृष्टिकर्ता और सृष्टि के बीच संबंध जोड़ता है : 4- इस्लाम दुनिया और आखिरत दोनों के हितों की रक्षा करता है : 5- सरलता : 6- न्याय : 7- भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना : तौबा इस्लाम का पालन न करने वाले का परिणाम 1- भय और असुरक्षा : 2- कठिन जीवन : 3- वह अपने आप और अपने आसपास के ब्रह्माण्ड के साथ संघर्ष में रहता है : 4- वह अज्ञानता का जीवन गुज़ारता है : 5- वह अपने ऊपर और अपने आसपास की चीज़ों पर ज़ुल्म (अत्याचार) करते हुए जीवन बिताता है : 6- वह दुनिया में अपने आपको अल्लाह की घृणा और उसके क्रोध का पात्र बना लेता है : 7- उसके लिए विफलता और घाटा लिख दिया जाता है : 8- वह अपने पालनहार के साथ कुफ्र करने वाला और उसकी नेमतों का इनकार करने वाला बनकर जीवन गुज़ारता है : 9- वह वास्तविक जीवन से वंचित कर दिया जाता है : 10- वह सदैव अज़ाब (यातना) में रहेगा : समापन इस्लाम के सिद्धांत और उसके मूल आधारलेखकडॉ. मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन सालेह अस-सुहैमअल्लाह के नाम से शुरू करता हूँ, जो बड़ा मेहरबान और रहम करने वाला है।प्राक्कथनसभी प्रशंसाएँ अल्लाह के लिए हैं। हम उसकी प्रशंसा और गुणगान करते हैं, उसी से सहायता माँगते हैं और उसी से क्षमा याचना करते हैं। हम अपनी आत्मा की बुराइयों और अपने दुष्कर्मों से अल्लाह की शरण में आते हैं। जिसे अल्लाह मार्गदर्शन प्रदान कर दे, उसे कोई पथभ्रष्ट नहीं कर सकता और जिसे वह पथभ्रष्ट कर दे, उसे कोई मार्ग दर्शाने वाला नहीं। मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं, वह अकेला है और उसका कोई साझी नहीं। तथा मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद उसके बंदे और रसूल हैं। अल्लाह उनपर बहुत अधिक दया और शांति अवतरित करे।अल्लाह की प्रशंसा और पैगंबर صلى الله عليه وسلم पर दरूद के बाद यह कहना है कि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने अपने संदेशवाहकों को संसार की ओर भेजा, ताकि संदेशवाहकों के आने के बाद अल्लाह के विरुद्ध लोगों के पास कोई तर्क और प्रमाण न रह जाए। इसी तरह उसने मार्गदर्शन, दया, प्रकाश और उपचार के लिए पुस्तकें उतारीं। याद रहे कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पहले संदेष्टा विशेष रूप से अपनी जाति के लोगों की ओर भेजे जाते थे और अपनी जाति के लोगों से ही अपनी किताबें सुरक्षित रखने को कहते थे। यही कारण है कि उनकी पुस्तकें मिट गईं और उनकी शरीयतों (धर्मशास्त्र) में हेरफेर, परिवर्तन व बदलाव कर दिया गया; क्योंकि वे एक सीमित अवधि में एक विशिष्ट समुदाय के लिए अवतरित हुई थीं।फिर अल्लाह तआला ने अपने नबी मुहम्मद صلى الله عليه وسلم को चुनकर उन्हें सभी रसूलों और संदेशवाहकों की अंतिम कड़ी बना दिया। अल्लाह तआला ने फरमाया : "(लोगो!) मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) तुम्हारे आदमियों में से किसी के बाप नहीं, लेकिन आप अल्लाह के पैगम्बर और सारे नबियों की अंतिम कड़ी हैं।" [1] आपको सबसे अच्छी किताब यानी क़ुरआन से सम्मानित किया और उसके संरक्षण का काम लोगों के हवाले करने के बजाय यह ज़िम्मेवारी स्वयं लिया। उसका फ़रमान है : "बेशक हमने ही कुरआन को उतारा है और हम ही उसकी हिफ़ाज़त करने वाले हैं।" [2] आपकी शरीयत (धर्मशास्त्र) को क़यामत आने तक बाकी रखा और यह स्पष्ट कर दिया कि आपकी शरीयत के बाकी रहने के आवश्यक तत्वों में उसपर ईमान लाना, उसकी ओर दूसरों को आमंत्रित करना और उसपर संयम के साथ जमे रहना शामलि हैं। अत: मुहम्मद صلى الله عليه وسلم और आपके बाद आपके अनुयायियों का तरीका यह रहा है कि वे ज्ञान और समझ-बूझ के साथ अल्लाह की ओर लोगों को बुलाते रहते हैं। अल्लाह तआला ने इस तरीक़े को स्पष्ट करते हुए फ़रमाया है : "आप कह दीजिए कि मेरा मार्ग यही है। मैं और मेरे मानने वाले विश्वास और भरोसे के साथ अल्लाह की ओर बुला रहे हैं तथा अल्लाह पाक है और मैं मुश्रिकों में से नहीं हूँ।" [3] आपको अल्लाह के मार्ग में पहुँचने वाले कष्ट पर धैर्य करने का आदेश दिया गया है। चुनाँचे अल्लाह का फरमान है : “आप उसी तरह सब्र करें, जिस तरह कि दृढ़ संकल्प वाले संदेशवाहकों ने धैर्य रखा है।" [4] एक अन्य स्थान में कहा है : “ऐ ईमान वालो! धैर्य रखो, सहनशीलता से काम लो, जमे रहो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो।" [5] इस ईश्वरीय तरीके का पालन करते हुए, मैंने पैगंबर صلى الله عليه وسلم की सुन्नत से मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए और अल्लाह की किताब से ज्ञान हासिल करते हुए अल्लाह के रास्ते की तरफ लोगों को आमंत्रित करने के लिए यह पुस्तक लिखी है, जिसमें संक्षेप के साथ मैंने ब्रह्माण्ड की रचना, मनुष्य की रचना और उसके सम्मान, उसकी तरफ संदेष्टाओं के भेजे जाने और पिछले धर्मों की स्थितियों को स्पष्ट किया है। फिर मैंने इस्लाम का अर्थ और उसके स्तंभों का परिचय प्रस्तुत किया है। अत: जो व्यक्ति मार्गदर्शन चाहता है, तो ये उसके प्रमाण उसके सामने हैं, और जो व्यक्ति मुक्ति प्राप्त करना चाहता है तो मैंने उसके मार्ग को उसके लिए स्पष्ट कर दिया है। जो व्यक्ति ईशदूतों, संदेष्टाओं और सुधारकों का पग पालन करना चाहता है, तो यह उनका रास्ता है। परन्तु जो व्यक्ति उनसे विमुखता प्रकट करता है, तो उसने अपने आपको बेवकूफ बनाया और गुमराही के रास्ते पर चल पड़ा।प्रत्येक धर्म के अनुयायी, लोगों को अपने धर्म की ओर बुलाते और यह धारणा रखते हैं कि सच्चा धर्म केवल उनका ही धर्म है, कोई और धर्म नहीं। इसी तरह प्रत्येक आस्था के अनुयायी, लोगों को अपने अक़ीदा व सिद्धांत के प्रस्तुतकर्ता का पालन करने और अपने मार्ग के नेता का सम्मान करने का अह्वान करते हैं।परन्तु मुसलमान अपने पंथ का पालन करने का आमंत्रण नहीं देता ; क्योंकि उसका कोई विशिष्ट पंथ नहीं है, बल्कि वास्तव में उसका धर्म अल्लाह का वह धर्म है, जिसे उसने अपने लिए पसंद कर रखा है। अल्लाह तआला का फरमान है : "नि:सन्देह अल्लाह के निकट धर्म इस्लाम ही है।" [6] वह किसी मनुष्य के सम्मान की बात नहीं करता, क्योंकि अल्लाह के धर्म में सभी मनुष्य समान और बराबर हैं। उनके बीच यदि कोई अंतर है, तो महज़ तक़वा यानी धर्मपरायणता के आधार पर। एक मुसलमान लोगों को इस बात के लिए आमंत्रित करता है कि वे अपने पालनहार के रास्ते पर चलें, उसके पैगंबरों पर ईमान लाएँ और उसकी उस शरीयत यानी धर्म विधान का पालन करें जिसे उसने अपने अंतिम पैगम्बर मुहम्मद صلى الله عليه وسلم पर अवतरित किया है और आपको सभी लोगों में उसका प्रचार करने का आदेश दिया है।इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने इस पुस्तक को अल्लाह के उस धर्म की ओर आमंत्रण देने के लिए लिखा है, जिसे उसने अपने लिए पसंद कर रखा है और जिसके साथ अपने अंतिम संदेष्टा को अवतरित किया है। साथ ही मेरा उद्देश्य उस व्यक्ति का मार्गदर्शन है, जो सत्य का मार्ग प्राप्त करना चाहता है तथा उस व्यक्ति को राह दिखाना है, जो सौभाग्य का अभिलाषी है। क्योंकि अल्लाह की कसम, कोई भी व्यक्ति इस धर्म के अलावा कहीं भी वास्तविक खुशी नहीं पा सकता तथा कोई भी व्यक्ति चैन व शांति उस समय तक प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक अल्लाह को अपना पालनहार, मुहम्मद صلى الله عليه وسلم को अपना रसूल और इस्लाम को अपना धर्म न मान ले। चुनाँचे -प्राचीन और वर्तमान काल में- इस्लाम स्वीकार करने वाले हज़ारों लोगों ने इस बात की गवाही दी है कि उन्हें वास्तविक जीवन की पहचान इस्लाम स्वीकारने के बाद हुई और उन्होंने खुशी व सौभाग्य का स्वाद इस्लाम की छाया मेंही चखा . . .। चूँकि हर मनुष्य सौभाग्य का अभिलाषी है, चैन व शांति की खोज में रहता है और सच्चाई को ढूँढता है, इसलिए मैंने इस पुस्तक का संकलन किया है। मैं अल्लाह से प्रार्थना करता हूँ कि वह इस कार्य को विशुद्ध रूप से अपने लिए तथा अपने रास्ते की तरफ बुलाने वाला बनाए, उसे स्वीकृति प्रदान करे और ऐसे सत्कर्म में शुमार करे, जो उसके करने वाले को लोक एवं परलोक में लाभ देता है।मैं इस पुस्तक को किसी भी भाषा में प्रकाशित करने या किसी भी भाषा में इसका अनुवाद करने की अनुमति देता हूँ, इस शर्त के साथ कि अनुवाद करने वाला इसके अनुवाद में ईमानदारी का प्रतिबद्ध रहे।इसी तरह मैं हर उस व्यक्ति से, जो अरबी भाषा में मूल पुस्तक या इसके किसी अनुवादित संस्करण के बारे में कोई परामर्श देना चाहता है, अनुरोध करता हूँ कि कृपया नीचे लिखे पते पर मुझे सूचित करे।सभी प्रशंसाएँ शुरू और अंत में, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से, सार्वजनिक और गुप्त रूप से, लोक तथा परलोक में उसी की हैं। उसी की प्रशंसा है आसमान भर, जमीन भर और हमारा पालनहार जो भी चाहे, उसके बराबर। अल्लाह तआला हमारे नबी मुहम्मद, उनके साथियों और प्रलय के दिन तक उनके मार्ग पर चलने वाले सभी लोगों पर अत्यधिक दया एवं शांति अवतरित करे ।लेखकडॉ. मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन सालेह अस-सुहैमरियाद , 13/10/1420 हिज्री, पोस्ट बाक्स : 1032 , रियाद 1332एवं पोस्ट बाक्स : 6259 रियाद 11442 मार्ग कहाँ है?जब मनुष्य बड़ा हो जाता है और समझदार बन जाता है, तो उसके मन में बहुत-से प्रश्न उभरने लगते हैं। जैसे- मैं कहाँ से आया, क्यों आया और मुझे कहाँ जाना है? मुझे किसने मुझे पैदा किया और मेरे चारों ओर इस ब्रह्माण्ड की रचना किसने की है? इस ब्रह्माण्ड का मालिक कौन है और इसे कौन नियंत्रित करता है? आदि।मनुष्य स्वत: इन प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ है तथा आधुनिक विज्ञान भी इनका उत्तर देने में सक्षम नहीं है। क्योंकि ये बातें धर्म की परिधि के अंतर्गत आती हैं। इसीलिए इन मुद्दों के संबंध में अनेक कथन, विभिन्न मिथ्याएँ, अंधविश्वास और कहानियाँ पायी जाती हैं जो मनुष्य की व्याकुलता और चिंता को और बढ़ा देती हैं। मनुष्य के लिए इन प्रश्नों का पर्याप्त और संतोषजनक उत्तर प्राप्त करना संभव नहीं है, सिवाय इसके कि अल्लाह तआला उसे सत्य धर्म का मार्गदर्शन प्रदान कर दे, जो इन और इन जैसे अन्य मुद्दों के बारे में निर्णायक वक्तव्य प्रस्तुत करता है। क्योंकि ये मुद्दे परोक्ष (अनदेखी चीज़ों) में से हैं और केवल सच्चा धर्म ही इनके मामले में सत्य और ठीक बात कह सकता है। इसलिए कि केवल सच्चा धर्म ही है जिसकी वह्य (प्रकाशना) अल्लाह ने अपने नबियों और सन्देष्टाओं की ओर की है। अत: मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह सत्य धर्म की ओर आए, उसका ज्ञान हासिल करे और उसपर ईमान लाए, ताकि उसकी बेचैनी समाप्त हो, उसके संदहों का निवारण हो और उसे सीधा मार्ग प्राप्त हो सके।अगले पन्नों में मैं आपको अल्लाह के सीधे मार्ग का अनुसरण करने के लिए आमंत्रित करूँगा और आपके सामने उसके कुछ प्रमाण, तर्क और सबूत प्रस्तुत करूँगा, ताकि आप निष्पक्षता, ध्यान और धैर्य के साथ इनके बारे में विचार करें। अल्लाह सर्वशक्तिमान का अस्तित्व, उसका एकमात्र पालनहार होना, उसकी एकत्व और उसका एकमात्र पूजा योग्य होना [7] :काफ़िर लोग निर्मित और रचित देवताओं, जैसे पेड़, पत्थर और मानव आदि की पूजा करते हैं। इसीलिए जब यहूदियों और मुश्रिकों (बहुदेववादियों) ने अल्लाह के पैगंबर मुहम्मद صلى الله عليه وسلم से अल्लाह के गुण-विशेषण के बारे में प्रश्न किया और यह कि वह किस चीज़ से है, तो अल्लाह ने क़ुरआन की यह सूरा उतारी : "आप कह दीजिए अल्लाह एक है। अल्लाह बेनियाज है। न उसने (किसी को) जना है और न (किसी ने) उसको जना है। और न कोई उसका समकक्ष है।" [7] साथ ही उसने अपने बन्दों से अपना परिचय कराते हुए फ़रमाया है : "बेशक तुम्हारा रब वह अल्लाह है, जिसने आसमानों और जमीन को छ : दिन में बनाया, फिर वह अर्श (सिंहासन) पर मुस्तवी हो गया। वह ढाँपता है रात से दिन को कि रात दिन को तेज़ चाल से आ लेती है, और उसी ने पैदा किए सूर्य, चंद्रमा और सितारों को, इस हाल में कि वे उसके हुक्म के अधीन हैं। सुनो ! उसी का काम है पैदा करना और हुक्म देना। सर्वसंसार का पालनहार अल्लाह बहुत बरकत वाला है।'' [8] एक अन्य स्थान में उसने कहा है : "अल्लाह वह है जिसने आसमानों को ऐस खंभों के बिना ऊँचा कर रखा है जिन्हें तुम देख सको, फिर अर्श पर मुस्तवी हो गया, और उसी ने सूर्य एवं चाँद को अधीन कर रखा है, हर एक नियमित अवधि तक चल रहा है। वही काम की तदबीर करता है, तथा विस्तार के साथ निशानियाँ बयान करता है, ताकि तुम अपने रब से मिलने का यकीन कर लो। और वही है जिसने ज़मीन को फैलाकर बिछा दिया, और उसमें पहाड़ और नदियाँ बनाईं और प्रत्येक फलों के दो प्रकार बनाए, वह रात से दिन को छिपाता है।" इस क्रम को जारी रखते हुए अंत में कहा : "हर मादा अपने पेट में जो कुछ रखती है, अल्लाह उसको अच्छी तरह जानता है, और पेट का घटना-बढ़ना भी, और हर चीज़ उसके पास एक अंदाज़े से है। वह छिपी और खुली बातों का इल्म रखने वाला है, सबसे बड़ा सबसे ऊँचा और सबसे अच्छा है।" [9] एक अन्य स्थान में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "आप पूछिए कि आकाशों और धरती का रब कौन है? कह दीजिए अल्लाह। कह दीजिए, क्यों तुम फिर भी इसके सिवाय दूसरों को मददगार बना रहे हो, जो खुद अपनी जान के भी भले-बुरे का हक नहीं रखते? कह दीजिए क्या अंधा और आँखों वाला बराबर हो सकता है? या क्या अंधेरा और उजाला बराबर हो सकता है? क्या जिन्हें ये अल्लाह का साझीदार बना रहे हैं उन्होंने भी अल्लाह की तरह पैदा की है कि उनके देखने में पैदाइश संदिग्ध (मुतशाबिह) हो गई? कह दीजिए कि केवल अल्लाह ही सभी चीजों का पैदा करने वाला है। वह अकेला है और ज़बरदस्त ग़ालिब है।" [10]अल्लाह सर्वशक्तिमान ने लोगों के लिए अपनी निशानियों को गवाह तथा सबूत के रूप में पेश करते हुए कहा है : "और रात व दिन, सूरज और चाँद उसकी निशानियों में से हैं। तुम सूरज को सजदा न करो और न ही चाँद को। बल्कि तुम केवल उस अल्लाह के को सजदा करो, जिसने इन सब को पैदा किया है, अगर तुमको उसी की इबादत करनी है। ... और उसकी निशानियों में से यह भी है कि आप ज़मीन को दबी हुई देखते हैं, फिर जब हम उसपर पानी बरसाते हैं तो वह ताज़ा होकर उभरने लगती है। बेशक जिसने इसको ज़िंदा किया है, वही मुर्दो को ज़िंदा करने वाला है। नि:संदेह वह हर चीज़ पर क़ादिर (सक्षम) है।" [11] एक अन्य स्थान में वह कहता है : “और उसकी निशानियों में से आसमानों और ज़मीन को पैदा करना और तुम्हारी भाषाओं और रंगों का अलग-अलग होना भी है। नि:संदेह इसमें जानने वालों के लिए निशानियाँ हैं। और उसकी निशानियों में से रात और दिन को तुम्हारा सोना और तुम्हारा उसके फ़ज़्ल (रोज़ी) को तलाश करना भी है।" [12]इसी तरह उसने सौन्दर्य और पूर्णता की विशेषताओं के साथ अपना वर्णन करते हुए फ़रमाया है : "अल्लाह तआला ही सच्चा पूज्य है, जिसके सिवा कोई पूजा के योग्य नहीं। वह ज़िंदा और सबको थामने वाला है। न उसे झपकी आती है और न ही नींद। आसमानों और ज़मीन की समस्त चीजें उसी की हैं। कौन है जो उसकी आज्ञा के बिना उसके सामने सिफारिश कर सके? वह जानता है जो उनके सामने है और जो उनके पीछे है। और वह उसके ज्ञान में से किसी चीज का इहाता नहीं कर सकते, मगर जितना वह चाहे।" [13] और एक दूसरे स्थान पर फ़रमाया है : "वह पाप को माफ़ करने वाला और तौबा कबूल करने वाला, कड़ी सज़ा देने वाला और इनाम देने वाला है। उसके सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं और उसी की तरफ वापस जाना है।" [14] एक और स्थान में फ़रमाया है : “वही अल्लाह है, जिसके सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं है। वह बादशाह, बहुत पाक, सभी दोषों से साफ, सुरक्षा व शांति प्रदान करने वाला, रक्षक, ग़ालिब, ताक़तवर और बड़ाई वाला है। अल्लाह पाक है उन चीजों से जिनको ये उसका साझी बनाते हैं।" [15]यह सर्वशक्तिमान, तत्वदर्शी, सच्चा पूज्य, पालनहार जिसने अपने बन्दों से अपना परिचय कराया है और अपनी निशानियों को उनके लिए साक्ष्य और सबूत के तौर पर पेश किया है और अपना वर्णन पूर्णता के गुण-विशेषण के साथ किया है, उसके अस्तित्व, उसकी रुबूबियत और उसकी उलूहियत पर नबियों के धर्म-विधान, इनसानी विवेक और प्रकृति तर्क स्थापित करती है तथा इसपर सभी समुदायों की सर्वसहमति है। इस बारे में कुछ बातों का मैं अगले पन्नों में उल्लेख करूँगा। रही बात उसके अस्तित्व और रुबूबियत के प्रमाणों की तो वे निम्नलिखित हैं : 1. इस ब्रह्माण्ड की रचना और इसके अंदर विद्यमान अद्भुत व उत्कृष्ट कारीगरी :ऐ मनुष्य! यह महान ब्रह्माण्ड जो आपको चारों ओर से घेरे हुए है और जो कि आकाश, सितारों, आकाश गंगाओं तथा बिछी हुई ज़मीन से मिलकर बना है और जिसमें एक-दूसरे से मिले हुए धरती के टुकड़े हैं, जिनमें उगने वाली चीजें उनकी भिन्नता के आधार भिन्न-भिन्न होती हैं, जिनमें हर प्रकार के फल हैं और जिनमें सभी प्राणियों के आप जोड़े पाएँगे . . . .। इस ब्रह्माण्ड ने अपनी रचना स्वयं नहीं की है और निश्चित रूप से इसका एक स्रष्टा और बनाने वाला होना चाहिए; क्योंकि यह संभव नहीं है कि वह स्वयं अपनी रचना कर सके। ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर वह कौन है, जिसने इस अद्भुत तरीक़े से उसकी रचना की है, उसे इस प्रकार उत्तम ढंग से पूरा किया है और देखने वालों के लिए निशानी बना दिया है? दरअसल वह एकमात्र सर्वशक्तिमान अल्लाह ही है, जिसके सिवाय कोई पालनहार नहीं है और उसके अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "क्या यह लोग बिना किसी पैदा करने वाले के स्वयं पैदा हो गए हैं या यह स्वयं उत्पत्तिकर्ता (पैदा करने वाले) हैं? क्या इन्होंने आकाशों और धरती को पैदा किया है? बल्कि यह विश्वास न करने वाले लोग हैं।" [16] ये दोनों आयतें निम्नलिखित तीन भूमिकाओं पर आधारित हैं :1. क्या ये लोग अनस्तित्व से अस्तित्व में लाए गए हैं?2. क्या उन्होंने अपने आपको स्वयं पैदा किया है?3. क्या उन्होंने आकाश और धरती को पैदा किया है?तो जब वे अनस्तित्व से अस्तित्व में लाए नहीं गए हैं और उन्होंने अपने आपको भी पैदा नहीं किया है और न ही उन्होंने आकाश और पृथ्वी को पैदा किया है, तो यह निश्चित हो गया कि एक पैदा करने वाले के अस्तित्व को मानना ज़रूरी है, जिसने इन्हें पैदा किया है और आकाश व धरती को भी पैदा किया है। 2. प्रकृति :स्वभाविक रूप से सभी प्राणियों की प्रकृति में यह बात दाख़िल है कि वह उत्पत्तिकार का इक़रार करे और इस बात पर विश्वास रखे कि वह हर चीज़ से महान, सबसेसे बड़ा और सबसे अधिक महिमा वाला और सबसे परिपूर्ण है। यह बात गणित विज्ञान के सिद्धान्तों से भी अधिक और अच्छी तरह प्रकृति में बैठी हुई है और इसके लिए तर्क स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है, सिवाय उस व्यक्ति के जिसकी प्रकृति बदल गई हो और वह ऐसी परिस्थितियों से दो चार हुआ हो जिन्होंने उसे उसकी मान्यताओं से फेर दिया हो। [17] अल्लाह तआला ने फरमाया है : "अल्लाह तआला की वह फ़ितरत (प्रकृति) जिसपर उसने लोगों को पैदा किया है। अल्लाह के ब्रह्माण्ड को बदलना नहीं है। यही सच्चा धर्म है, किन्तु अधिक लोग नहीं जानते।" [18] और नबी صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया है : “प्रत्येक पैदा होने वाला बच्चा (इस्लाम) की फ़ितरत (प्रकृति) पर जन्म लेता है। फिर उसके माता-पिता उसे यहूदी बना देते हैं या ईसाई बना देते हैं या मजूसी (अग्नि पूजक) बना देते हैं। जिस प्रकार कि जानवर पूरे जानवर को जन्म देते हैं। क्या तुम उनमें कोई नाककटा जानवर पाते हो?" फिर अबू हुरैरा ( رضي الله عنه ) फ़रमाते थे : अगर तुम चाहो तो यह आयत पढ़ सकते हो : "अल्लाह की वह फितरत जिसपर उसने लोगों को पैदा किया है। अल्लाह के ब्रह्माण्ड को बदलना नहीं है।" [19] नबी صلى الله عليه وسلم की एक और हदीस में है : "सुनो, नि:संदेह मेरे पालनहार ने मुझे यह आदेश दिया है कि मैं तुम्हें उन बातों की शिक्षा दूँ जिनसे तुम अनभिज्ञ हो, जिनकी उसने मुझे आज के दिन शिक्षा दी है। हर वह माल जो मैंने किसी बन्दे को प्रदान किया है, हलाल है और मैंने अपने सभी बन्दों को सच्चे धर्म का पालन करने वाला बनाकर पैदा किया, परन्तु उनके पास शयातीन आए और उनको उनके धर्म से फेर दिया और उनपर उन चीजों को हराम कर दिया, जो मैंने उनके लिए हलाल किया था और उन्हें हुक्म दिया कि वे मेरे साथ उस चीज़ को साझी ठहराएँ जिसके बारे में मैंने कोई दलील नहीं उतारी।" [20] 3. समुदायों की सर्वसहमति :सभी -प्राचीन और आधुनिक- समुदायों की इस बात पर सर्वसहमति है कि इस ब्रह्माण्ड का एक स्रष्टा है और वह सर्वसंसार का पालनहार अल्लाह है और वही आकाशों तथा धरती का पैदा करने वाला है। न तो उसकी रचना में उसका कोई साझी है और न उसके राज्य में उसका कोई शरीक व साझी है।पिछले सुमदायों में से किसी समुदाय के बारे में यह बात वर्णित नहीं है कि वह यह आस्था रखती थी कि उसके देवता आसमानों और ज़मीन के पैदा करने में अल्लाह के साझेदार रहे हैं, बल्कि सब लोग यह आस्था रखते थे कि अल्लाह ही उनका और उनके पूज्यों का पैदा करने वाला है। चुनांचे उसके अलावा कोई स्रष्टा नहीं है और न ही उसके अलावा कोई जीविका (रोजी) प्रदान करने वाला है, तथा लाभ और हानि केवल उसी सर्वशक्तिमान के हाथ में है। [21] अल्लाह तआला ने मुश्रिकों के अल्लाह की रुबूबियत (एकमात्र पालनहार होने) को स्वीकारने के बारे में सूचना देते हुए फरमाया है : "और अगर आप उनसे प्रश्न करें कि आसमानों और ज़मीन को किसने पैदा किया और सूर्य तथा चाँद को किसने आदेश-अधीन किया? तो वे यही उत्तर देंगे कि अल्लाह ने! तो फिर ये किधर फिरे जा रहे हैं? अल्लाह तआला अपने बन्दों में से जिसे चाहे बढ़ाकर रोज़ी देता है और जिसे चाहे कम। बेशक अल्लाह तआला हर चीज़ जानने वाला है। और अगर आप उनसे पूछें कि आसमान से पानी बरसाकर जमीन को उसकी मृत्यु के बाद किसने जिन्दा किया, तो वे यही उत्तर देंगे कि अल्लाह ने। आप कह दें कि सभी प्रशंसाएँ अल्लाह ही के लिए हैं। बल्कि उनमें से अधिकतर लोग नासमझ हैं।" [22] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है : "यदि आप उनसे प्रश्न करें कि आकाशों और धरती की रचना किस ने की है? तो नि:सन्देह उनका यही उत्तर होगा कि उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी अल्लाह ही ने पैदा किया है।" [23] 4. बौद्धिक अनिवार्यता :इंसानी विवेक के लिए इस बात को स्वीकार किए बिना कोई चारा नहीं कि इस ब्रह्माण्ड का एक महान स्रष्टा है, क्योंकि विवेक देखता है कि ब्रह्माण्ड एक आविष्कृत और पैदा की गई चीज़ है और यह कि उसने अपने आपको स्वयं पैदा नहीं किया है। जबकि आविष्कृत चीज़ के लिए एक आविष्कारक (पैदा करने वाले का होना) का होना आवश्यक है।मनुष्य इस बात को जानता है कि उसका सामना संकटों और आपदाओं से होता रहता है और जब मनुष्य उन्हें दूर करने पर सक्षम नहीं होता, तो वह अपने दिल के साथ आसमान की ओर ध्यान करता है और अपने पालनहार से फ़रियाद करता है कि वह उसकी परेशानी को दूर कर दे और उसकी चिंता को दूर कर दे, भले ही वह अन्य दिनों में अपने पालनहार को नकारता रहा हो और मूर्ति की पूजा करता रहा हो। चुनाँचे यह एक ऐसी अनिवार्यता है, जिसे नकारा नहीं जा सकता और उसको स्वीकारने के सिवा कोई चारा नहीं है। बल्कि जब जानवर पर भी कोई विपत्ति आती है, तो वह भी अपने सिर को उठाता है और अपनी दृष्टि को आसमान की ओर करता है। अल्लाह तआला ने मनुष्य के बारे में सूचना दी है कि जब उसे कोई हानि पहुँचती है, तो वह अपने पालनहार की ओर भागता है और उससे अपने संकट को दूर करने के लिए प्रार्थना करता है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया : "और मनुष्य को जब कभी कोई विपदा पहुँचती है तो खूब तवज्जोह से अपने रब को पुकारता है। फिर जब अल्लाह उसे अपने पास से नेमत प्रदान कर देता है, तो वह इससे पहले जो दुआ करता था, उसे बिल्कुल भूल जाता है और अल्लाह के लिए शरीक बनाने लगता है।" [24] इसी तरह अल्लाह तआला ने मुशरिकों की हालत के बारे में सूचना देते हुए फ़रमाया : “वही (अल्लाह) तुमको सूखे में और समुद्र में चलाता है, यहाँ तक कि जब तुम नाव में होते हो, और नाव लोगों को उचित हवा के साथ लेकर चलती हैं और लोग उनसे खुश होते हैं, उनपर एक झोंका तेज़ हवा का आता है और हर ओर से उनपर मौजें उठती चली आती हैं और वे समझते हैं कि वह घिर गए हैं, तो वे दीन को अल्लाह ही के लिए खालिस करते हुए उसे पुकारते हैं (और कहते हैं) कि अगर तू हमको इससे बचा ले तो हम अवश्य शुक्र करने वाले बन जाएँगे। फिर जब वह उनको बचा लेता है, तो वे तुरंत ही ज़मीन में नाहक़ विद्रोह करने लगते हैं। ऐ लोगो! ये तुम्हारा विद्रोह तुम्हारे लिए वबाल होने वाला है। (यह) दुनिया की ज़िदंगी के कुछ फायदे हैं, फिर हमारे पास ही तुमको आना है, तो हम तुम्हारा सारा किया हुआ तुमको बतला देंगे।" [25] एक अन्य स्थान में सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फ़रमाया है : "और जब उनपर मौजें सायबानों की तरह छा जाती हैं, तो वे दीन को अल्लाह ही के लिए खालिस करके उसे पुकारने लगते हैं। फिर जब वह उन्हें बचाकर थल की ओर लाता है, तो उनमें से कुछ संतुलन पर रहते हैं और हमारी आयतों का इनकार वही करते हैं, जो विश्वासघाती और नाशुक्रे हैं।" [26]यह पूज्य, जिसने ब्रह्माण्ड को अनस्तित्व से अस्तित्व में लाया, मनुष्य को बेहतरीन रूप में पैदा किया, उसकी फ़ितरत (प्रकृति व स्वभाव) में अपनी उपासना और अपने प्रति समर्पण को बिठा दिया, इन्सानी विवेक उसकी रुबूबियत और उसकी उलूहियत की गवाही देता है और सभी समुदाय उसकी रुबूबियत को मानने पर सहमत हैं . . . उस पूज्य का अपनी रुबूबियत व उलूहियत में अकेला होना ज़रूरी है। चुनांचे जिस प्रकार पैदा करने में कोई उसका शरीक नहीं है, उसी तरह उसकी इबादत में भी कोई उसका साझेदार नहीं है। इस बात के प्रमाण बड़ी संख्या में मौजूद हैं :1- इस ब्रह्माण्ड में केवल एक ही पूज्य है, वही पैदा करने वाला और रोज़ी देने वाला है तथा वही लाभ पहुँचाता है और हानि से बचाता है। अगर इस ब्रह्माण्ड में कोई दूसरा भी पूज्य होता तो उसका भी कोई काम, रचना तथा आदेश होता और दोनों में से कोई भी दूसरे पूज्य की साझेदारी को पसंद न करता। [27] साथा ही ज़रूर ही दोनों में से एक को दूसरे पर अधिपत्य प्राप्त होता, जबकि मग़लूब का पूज्य होना संभव नहीं है, बल्कि गालिब ही सच्चा पूज्य है और उसकी इबादत में कोई उसका शरीक नहीं है, जिस तरह कि उसकी रुबूबियत में उसका कोई साझेदार नहीं है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : “अल्लाह ने अपने लिए कोई संतान नहीं बनाया और न ही उसके साथ कोई और पूज्य है, वर्ना हर पूज्य अपनी मखलूक को लिए-लिए फिरता और हर एक दूसरे पर ऊँचा होने की कोशिश करता, जो गुण यह बताते हैं कि अल्लाह उन से पाक है।" [28]2- इबादत का हकदार केवल अल्लाह है, जो आसमानों और ज़मीन का मालिक है। क्योंकि मनुष्य केवल उसी पूज्य की निकटता प्राप्त करता है, जो उसे लाभ दे सके और उसकी हानि को दूर कर सके और उससे बुराई और फित्नों को हटा सके। याद रहे कि इन कामों को केवल वही कर सकता है, जो आसमानों और ज़मीन और उनके बीच की चीज़ों का मालिक हो। अगर उसके साथ दूसरे पूज्य भी होते, जैसा कि मुश्रिकों का कहना है तो बन्दे अवश्य वह रास्ते अपनाते जो सच्चे बादशाह अल्लाह की उपासना की तरफ पहुँचाने वाले हैं ; क्योंकि अल्लाह के अलावा पूजे जाने वाले ये सभी लोग (स्वयं) अल्लाह की इबादत करते थे और उसकी निकटता प्राप्त करते थे। अत : जो भी व्यक्ति उस अस्तित्व की निकटता चाहता है जिसके हाथ में लाभ व हानि है, तो उसके लिए शोभित है कि वह उस सच्चे पूज्य की इबादत करे जिसकी इबादत आसमानों और ज़मीन और उसके अंदर की सभी चीजें करती हैं, जिनमें अल्लाह को छोड़कर पूजे जाने वाले ये पूज्य भी हैं। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : “आप कह दीजिए, अगर उसके साथ बहुत-से पूजा पात्र होते, जैसा कि ये कहते हैं, तो अवश्य वह अब तक अर्श के मालिक का रास्ता तलाश कर लेते।" [29] सच्चाई तलाश करने वाले को अल्लाह तआला का यह फरमान पढ़ना चाहिए : "आप कह दीजिए! अल्लाह के अतिरिक्त जिन-जिन का तुम्हें भ्रम है सबको पुकार लो, न उनमें से किसी को आकाशों तथा धरती में से एक कण का अधिकार है न उनका उन में कोई भाग है और न उनमें से कोई अल्लाह का सहायक है। और सिफारिश भी उसके पास कुछ लाभ नहीं देती सिवाय उनके जिनके लिए वह आज्ञा दे दे।" [30] कुरआन की ये आयतें चार बातों के द्वारा अल्लाह के अलावा से दिल के संबंध को काट देती हैं :पहली बात : ये साझेदार अल्लाह के साथ एक कण के भी मालिक नहीं हैं और जो कण भर चीज़ का भी मालिक न हो वह न तो लाभ दे सकता है न हानि पहुँचा सकता है, तथा वह इस बात का भी अधिकारी नहीं कि वह पूज्य बने या अल्लाह का साझेदार हो। बल्कि स्वयं अल्लाह ही उनका मालिक है और वह अकेला ही उनपर नियंत्रण रखता है।दूसरी बात : वे आसमानों और जमीन में से किसी भी चीज के मालिक नहीं हैं और उनकी उनमें कण बराबर भी साझेदारी नहीं है।तीसरी बात : अल्लाह का उसकी मखलूक में से कोई मददगार नहीं है, बल्कि अल्लाह ही उनकी ऐसी चीज़ों पर मदद करता है, जो उनको लाभ पहुँचाती हैं और हानिकारक चीजों को उनसे दूर करता है। क्योंकि वह उनसे पूरे तौर पर बेनियाज है, जबकि लोगों को अपने पालनहार की जरूरत है।चौथी बात : ये साझेदार अल्लाह के पास अपने मानने वालों के लिए सिफारिश करने के मालिक नहीं हैं और न ही उन्हें इसकी आज्ञा दी जाएगी। अल्लाह तआला केवल अपने औलिया (दोस्तों) को ही सिफारिश करने की आज्ञा देगा और ये औलिया केवल उन्हीं के लिए सिफारिश करेंगे जिनके कथन, कर्म और आस्था (अकीदे) से अल्लाह खुश होगा। [31]3- सर्वसंसार के मामले का व्यवस्थित होना और उसका अपने मामले को मज़बूत व सुदृढ़ रखना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि इसका प्रबंधक व नियंत्रक एक ही पूज्य, एक ही शासक और एक ही पालनहार (रब) है, जिसके अलावा मखलूक (सृष्टि) का कोई अन्य पूज्य नहीं है और उसके अलावा उनका कोई पालनहार नहीं है। जिस प्रकार इस ब्रह्माण्ड का दो खालिक (स्रष्टा) होना असंभव है, उसी प्रकार दो पूज्यों का होना भी असंभव है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "अगर इन दोनों में अल्लाह के अलावा कई पूज्य होते तो वे दोनों नष्ट हो जाते।" [32] अगर मान लिया जाए कि आसमान और जमीन में अल्लाह के अलावा कोई दूसरा भी पूज्य है, तो वह दोनों नष्ट हो जाते और विनाश का कारण यह है कि अगर अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य भी होता, तो आवश्यक रूप से उनमें से हर एक निरंकुश होने और नियंत्रण करने पर सक्षम होता और उस समय दोनों में विवाद, लड़ाई व झगड़ा होता और इस कारण बिगाड़ पैदा होता। [33] जब शरीर के लिए असंभव है कि उसका प्रबंधक दो बराबर की आत्माएँ हों, और यदि ऐसा होता तो वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाता, और यह असंभव है, तो फिर इस ब्रह्माण्ड के बारे में इसकी कल्पना कैसे की जा सकती है, जबकि वह इससे बड़ा है? [34]4- पैग़म्बरों और सन्देशवाहकों की इस संबंध में सर्वसहमति :सारे समुदाय इस बात पर सहमत हैं कि नबी और संदेशवाहक, लोगों में सबसे अधिक बुद्धिमान, सब से पवित्र आत्मा वाले, नैतिकता में सबसे अच्छे, अपनी प्रजा के लिए सबसे अधिक शुभचिंतक, अल्लाह के उद्देश्य को सबसे अधिक जानने वाले और सीधे मार्ग और सच्चे रास्ते की ओर सबसे अधिक मार्गदर्शन करने वाले थे। क्योंकि वे लोग अल्लाह से वह्य (प्रकाशना) प्राप्त करते थे, फिर उसे लोगों तक पहुँचाते थे। सर्वप्रथम नबी आदम अलैहिस्सलाम से लेकर अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तक सभी नबी और संदेशवाहक अपनी कौमों को अल्लाह पर ईमान लाने और उसके अलावा की इबादत का परित्याग करने का आमंत्रण देने पर सहमत हैं तथा इस बात पर एकमत हैं कि वही सच्चा पूज्य है। अल्लाह तआला ने फरमाया है : "और हमने आपसे पहले जितने भी रसूल भेजे, सबकी तरफ यही वह्य की कि मेरे अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं, तो तुम सब मेरी ही इबादत करो।” [35] इसी तरह अल्लाह तआला ने नूह़ अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाया कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा : "सुनो, तुम सब केवल अल्लाह ही की इबादत करो, मुझे तो तुमपर दर्दनाक दिन के अज़ाब का डर है।" [36] इसी तरह अल्लाह तआला ने अंतिम नबी मुहम्मद صلى الله عليه وسلم के बारे में फ़रमाया है कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा : "आप कह दीजिए कि नि:संदेह मेरी तरफ़ इस बात की वह्य की गई है कि तुम सब का पूज्य केवल एक ही पूज्य है, तो क्या तुम भी उसकी आज्ञा का पालन करने वाले हो?" [37]यही पूज्य जिसने ब्रह्माण्ड को अनस्तित्व से अस्तित्व प्रदान किया और उसको खूब शानदार और उत्कृष्ट बनाया, मनुष्य को बेहतरीन रूप में पैदा किया और उसको सम्मान दिया, उसकी प्रकृति में अल्लाह की रुबूबियत और उसकी उलूहियत की स्वीकृति को बिठा दिया, उसके मन को ऐसा बनाया कि उसे अपने उत्पत्तिकर्ता के प्रति समर्पित हुए और उसके मार्ग का अनुसरण किए बिना स्थिरता नहीं मिलती, उसकी आत्मा पर यह अनिवार्य कर दिया कि उसे उसी समय शांति मिलती है, जब वह अपने पैदा करने वाले से लगाव रखे और अपने स्रष्टा के साथ संपर्क में रहे और उसका संपर्क उसके उसी सीधे मार्ग के माध्यम से ही हो सकता है, जिसका उसके सम्मानित सन्देष्टाओं ने प्रसार व प्रचार किया है, तथा उसने मानव को ऐसी बुद्धि प्रदान की है जिसका मामला उसी समय ठीक-ठाक रह सकता और वह संपूर्ण रूप व सुचारू ढंग से अपना काम कर सकती है, जब वह अपने स्वामी व पालनहार पर ईमान ले आए।अत: जब प्रकति विशुद्ध होगी, आत्मा शांत होगी, मन स्थिर होगा और बुद्धि अपने पालनहार में विश्वास रखने वाली होगी, तो उसे लोक व परलोक में खुशी (सौभाग्य), सुरक्षा और शांति प्राप्त होगी . . .। और अगर इन्सान ने इसका इंकार कर दूसरी चीज़ तलाश की, तो वह विचलित और परेशान हाल होकर जीवन बिताएगा, दुनिया की घाटियों में भटकता रहेगा और उसके देवताओं के बीच वितरित और विभाजित रहेगा, उसे यह समझ न आएगी कि कौन उसको लाभ पहुँचा सकता है और कौन उससे हानि को दूर कर सकता है। तथा इस उद्देश्य से कि विश्वास हृदय में स्थापित हो जाए और कुफ़ (अविश्वास) की कुरूपता स्पष्ट व उजागर हो जाए, अल्लाह ने इसका एक उदाहरण बयान किया है। क्योंकि उदाहरण से बात जल्दी समझ में आती है। अल्लाह ने इस संबंध में दो आदमियों के बीच तुलना की है। एक आदमी वह है जिसका मामला बहुत-से देवताओं के बीच विभाजित है और दूसरा आदमी वह है जो केवल अपने एक पालनहार की इबादत करता है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया : "अल्लाह तआला उदाहरण दे रहा है कि एक वह आदमी जिसमें बहुत-से आपस में झगड़ा रखने वाले साझेदार हैं, और दूसरा वह आदमी जो केवल एक ही का सेवक है। क्या ये दोनों बराबर हैं? सभी प्रशंसाएँ अल्लाह ही के लिए हैं, बल्कि उनमें से अधिकतर लोग समझते नहीं।" [38] अल्लाह तआला एक मुवह्हिद (एकेश्वरवादी) बन्दे और एक मुश्रिक (अनेकेश्वरवादी) बन्दे का उदाहरण दो गुलामों (दासों) के माध्यम से बयान कर रहा हूँ। वह बता रहा है कि एक गुलाम ऐसा है, जिसके मालिक बहुत-से साझेदार हैं, जो आपस में उसके बारे में लड़ते रहते हैं तथा उनमें से हर एक का उसके लिए एक निर्देश है और उनमें से हर एक की तरफ़ से उसके लिए एक काम है। वह उनके बीच उलझन में पड़ा रहता है और किसी एक तरीके पर स्थिर नहीं रह पाता और न ही एक मार्ग पर कायम रह पाता है। वह उनकी भिन्न-भिन्न और अंतर्विरोधी इच्छाओं को पूरा करने पर भी सक्षम नहीं है, जिसने उसकी वृत्तियों और उसकी शक्तियों को तोड़कर रख दिया है। जबकि एक गुलाम वह है, जिसका केवल एक ही मालिक है और वह अच्छी तरह जानता कि वह उससे क्या चाहता है और उसे किस चीज़ की ज़िम्मेदारी सौंपेगा। अत: वह आराम से एक स्पष्ट मार्ग पर स्थिर है। ज़ाहिर सी बात है कि ये दोनों बराबर नहीं हो सकते। क्योंकि दूसरा दास एक ही मालिक के अधीन है और स्थिरता, ज्ञान और विश्वास से लाभान्वित हो रहा है, जबकि दूसरा कई झगड़ालू मालिकों का गुलाम (दास) है। इसलिए वह परेशान और चिंतित है, किसी भी हाल में उसे चैन व शांति नहीं मिलती और वह उनमें से एक को भी खुश नहीं रख पाता, सबको खुश करना तो दूर की बात है ।अब जबकि मैंने अल्लाह के अस्तित्व, उसकी रुबूबियत और उसकी उलूहियत को इंगित करने वाले प्रमाणों को स्पष्ट कर दिया है, अच्छा होगा कि हम उसके इस ब्रह्माण्ड और मनुष्य की रचना करने की जानकारी प्राप्त करें और उसके अंदर उसकी हिक्मत (तत्वदर्शिता) व रहस्य को तलाश करें । ब्रह्माण्ड की रचनाअल्लाह सर्वशक्तिमान ने इस ब्रह्माण्ड को उसके आसमानों, जमीनों, तारों, आकाश-गंगाओं, समुद्रों, पेड़ों और अन्य सभी जीवों समेत अनस्तित्व से अस्तित्व प्रदान किया है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "आप कह दीजिए कि क्या तुम उस अल्लाह का इन्कार करते हो और उसके लिए साझेदार बनाते हो, जिसने दो दिनों में ज़मीन पैदा कर दी? वह सारे संसार का रब है। और उसने ज़मीन में उसके ऊपर से पहाड़ गाड़ दिए और उसमें बरकत रख दी और उसमें उनके आहार का प्रबंध भी कर दिया, केवल चार दिनों में, पूरा-पूरा जवाब है प्रश्न करने वालों के लिए। फिर वह आसमान का इरादा किया, और वह धुआँ था, तो उसने उनसे और ज़मीन से कहा कि तुम दोनों आओ, खुशी से या नाखुशी से। दोनों ने कहा हम खुशी से उपस्थित हैं। तो उसने दो दिनों में सात आसमान बना दिए और हर आसमान में उसके उचित (ही) हुक्म भेज दिए और हमने दुनियावी आसमान को चिराग़ों से सजा दिया और देख-भाल किया। यह तदबीर अल्लाह की है जो ग़ालिब जानने वाला है।" [39]एक अन्य स्थान में उसने कहा है : "क्या अविश्वासी लोगों ने नहीं देखा कि आसमान और ज़मीन एक साथ मिले हुए थे, फिर हम ने उनको अलग किया और हर जीवित चीज़ को हमने पानी से पैदा किया? क्या ये लोग फिर भी ईमान नहीं लाते? और हमने ज़मीन में पहाड़ बना दिए ताकि वह उनको हिला न सके और हमने उनमें चौड़े रास्ते बना दिए, ताकि लोग राह पा सकें। और आसमान को सुरक्षित छत भी हमने ही बनाया है, लेकिन लोग उसकी निशानियों से मुँह मोड़े हुए हैं।" [40]अल्लाह ने इस ब्रह्माण्ड की रचना महान उद्देश्यों के तहत की है, जिन्हें गिनना आपके लिए संभव नहीं है। चुनाँचे उसके हर भाग में महान हिक्मतें और खुली निशानियाँ हैं। अगर आप उसकी किसी एक निशानी पर भी विचार करें तो आप उसमें आश्चर्यजनक तथ्य पाएँगे। आप पौधे में अल्लाह की आश्चर्यजनक कारीगरी को देखें, जिसका एक पत्ता, एक तना या एक फल भी लाभ से खाली नहीं होता, जिसका इहाता करने में मानव बुद्धि असमर्थ है। आप उन कमज़ोर पतले और हल्के तनों में जल धाराओं को देखें कि जिन्हें निगाहें निहारने और घूरकर देखने के पश्चात ही देख सकती हैं, भला वे किस तरह नीचे से ऊपर की ओर पानी को ले जाने में सक्षम होते हैं! फिर जल उन नालियों में उनकी स्वीकृति और क्षमता के अनुसार चलता रहता है। फिर ये नालियाँ अनेक भागों और शाखों में वितरित हो जाती हैं और वहाँ तक पहुँच जाती हैं कि दिखाई भी नहीं देतीं। फिर आप पेड़ के गर्भित होने और उसके उसी प्रकार एक दशा से दूसरी दशा की ओर बदलने पर विचार करें, जिस प्रकार कि दृष्टि से ओझल भ्रूण की हालत बदलती है। चुनाँचे आप उसे एक नग्न लकड़ी देखते हैं, जिसपर कोई वस्त्र नहीं होता। फिर उसका पालनहार व स्रष्टा उसे पत्तियों का सुंदर वस्त्र पहना देता है। फिर उसमें उसके कमज़ोर गर्भ को प्रकट करता है, जबकि उसकी सुरक्षा के लिए और उस कमज़ोर फल के लिए वस्त्र के तौर पर उसकी पत्ती को निकाल चुका होता है, ताकि वह उसके द्वारा सर्दी, गर्मी और आपदाओं से रक्षा और बचाव हासिल करे। फिर अल्लाह उन फलों तक उनकी जीविका और उनका आहार उनके तनों और नालियों के माध्यम से पहुँचाता है, तो वे उससे अपना आहार लेते हैं, जिस प्रकार कि बच्चा अपनी माँ के दूध से अपना आहार लेता है। फिर वह उसका पालन-पोषण करता है, यहाँ तक कि वे पूरी तरह से परिपक्व हो जाते हैं। फिर वह उस बेजान लकड़ी से स्वादिष्ट तथा नर्म फल निकालता है।तथा यदि आप पृथ्वी को देखें और इस बात पर ध्यान दें कि वह कैसे पैदा की गई है; तो आप उसे उसके पैदा करने वाले और उसकी रचना करने वाले की सबसे बड़ी निशानियों में से पाएँगे। अल्लाह तआला ने उसे बिछौना तथा रहने की जगह बनाया है, उसे अपने बन्दों के अधीन कर दिया है, उसमें उनके लिए जीविकाएँ, आहार और जीवनयापन के साधन पैदा कर दिए हैं और उसमें रास्ते बना दिए हैं, ताकि वे अपनी आवश्यकताओं और जरूरतों के लिए उसमें एक जगह से दूसरी जगह जाते रहें। साथ ही उसे पहाड़ों द्वारा मजबूत व ठोस कर दिया है और उन्हें कील के समान बना दिया है, ताकि हिलने से उसकी सुरक्षा हो सके। अल्लाह ने उसके किनारों को विस्तृत कर उसे बराबर कर दिया है और उसे फैलाया और बिछा दिया। उसने पृथ्वी को ज़िन्दों के समेटने वाली बनाया, जिन्हें वह अपनी पीठ पर समेटे रहती है। साथ ही उसे मुर्दों को भी समेटने वाली बनाया, जिन्हें वह उनके मर जाने पर अपने पेट में समेट लेती है। इस तरह उसकी पीठ ज़िन्दों का आवास और मुर्दों का निवास है। फिर इस खगोल को देखिए जो अपने सूर्य, चाँद, तारों और बुर्जों समेत चक्कर लगा रहा है। वह किस तरह सुव्यवस्थित अंदाज़ में लगातार इस ब्रह्माण्ड का चक्कर लगा रहा है और कैसे रात और दिन, मौसम और गर्मी व सर्दी का बदलना निरंतर जारी है . . . तथा इसके अंदर पृथ्वी पर पाए जाने वाले अनेक प्रकार के जानवरों और पौधों के कितने हित और लाभ निहित हैं।फिर आप आकाश की रचना पर विचार करें और बार-बार उसपर अपनी निगाह दौड़ाएँ। आप उसे उसकी ऊँचाई, व्यापकता और स्थिरता में सबसे बड़ी निशानियों में से पाएँगे। चुनाँचे उसके नीचे न तो कोई स्तंभ है, न उसके ऊपर कोई बंधन है। बल्कि वह उस अल्लाह की शक्ति से टिका हुआ है, जो आकाश और पृथ्वी को टलने से थामे हुए है . . . .अगर आप इस ब्रह्माण्ड, उसके विभिन्न भागों के गठन और उसकी बेहतरीन व्यवस्था, जो कि उसकी रचना करने वाले की संपूर्ण क्षमता, पूर्ण ज्ञान, संपूर्ण हिक्मत और संपूर्ण दया को इंगित करती है, को देखें, तो आप उसे उस बने हुए घर की तरह पाएँगे जिसमें उसके सभी उपकरण, साधन तथा ज़रूरत की सभी चीजें तैयार रखी गई हैं। चुनाँच आकाश उसका छत है जो उसके ऊपर बुलंद है, जमीन बिछौना, रहने की जगह, फ़र्श और रहने वालों के लिए ठिकाना है। सूर्य व चाँद दो दीपक हैं जो उसमें रौशन रहते हैं। सितारे उसके चिराग और अलंकरण हैं, जो इस दुनिया के विभिन्न रास्तों में चलने वालों के लिए मार्गदर्शक हैं। पृथ्वी में छिपे हुए जवाहरात व खनिज तैयार खज़ाने की तरह हैं, जिनमें से हर चीज़ उसके उस काम के लिए है, जिसके लिए वह उपयुक्त है, अनेक प्रकार के पौधे उसकी ज़रूरतों के लिए तैयार हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के जानवर उसके हितों की सुरक्षा में लगे हुए हैं। उनमें से कुछ सवारी के लिए, कुछ दूध के लिए, कुछ आहार के लिए, कुछ वस्त्र के लिए और कुछ पहरेदारी के लिए हैं. . . फिर, मनुष्य को उसमें अधिकृत राजा की तरह बना दिया गया है, जो अपने कार्य व आदेश के द्वारा उसका नियंत्रण करता है।अगर आप इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड या इसके किसी भाग पर चिंतन-मनन करें तो आप आश्चर्यजनक तथ्य पाएँगे। अगर आप इसके बारे में पूरी गहराई से सोचें, अपने प्रति न्याय और ईमानदारी से काम लें और तक़लीद के बंधन से मुक्त होकर देखें, तो आपको पूरी तरह से विश्वास हो जाएगा कि यह ब्रह्माण्ड मख़लूक़ है, जिसे एक सर्वबुद्धिमान, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञानी ने पैदा किया है। उसने इसे बेहतरीन अनुमान के साथ आयोजित किया है और सबसे अच्छे ढंग से व्यवस्थित किया है। साथ ही यह भी विश्वास हो जाएगा कि दो स्रष्टाओं का होना असंभव है; बल्कि वास्तविक पूज्य मात्र एक है, जिसके सिवा कोई पूज्य नहीं है। अगर आकाश तथा पृथ्वी पर अल्लाह के सिवाय कोई दूसरा भी माबूद होता, तो उसकी व्यवसथा चौपट हो जाती और उसके उसके हित बाधित हो जाते।अगर आप इस ब्रह्माण्ड को पैदा करने का श्रेय उसके रचयिता के अलावा किसी और को देने पर अड़े हुए हैं, तो आप एक नदी पर लगे हुए रहट के बारे में क्या कहेंगे, जिसमें मज़बूत यंत्र लगे हुए हैं, उसके सारे पुर्ज़ों को मज़बूती से जोड़ा गया और उसके उपकरणों को इतने अच्छे अंदाज़ से सेट किया गया है कि देखने वाले को उसकी बनावट और सेटिंग में कोई कमी नज़र नहीं आती। फिर उसे उसे एक बड़े बगीचे में सेट किया गया है, जिसमें हर प्रकार के फल हैं और जिसे वह उसकी आवश्यकता के अनुसार सींचने का काम करता है। उस बगीचे में एक व्यक्ति नियुक्त है जो उसकी काट-छाँट करता है, अच्छी तरह देखभाल और रखवाली करता है और उसके तमाम हितों की रक्षा करता है। न उसमें कोई कमी रहने पाती है और न उसके फल बरबाद हो पाते हैं। फिर तोड़ने के समय लोगों को उनकी आवश्यकताओं और ज़रूरतों के अनुसार बाँटकर देता है। हर वर्ग को उसकी ज़रूरत के मुताबिक़ देता है। यह सिलसिसा हमेशा जारी रहता है।क्या आप यह समझते हैं कि ये सब अपने आप बिना किसी निर्माता, बिना किसी अधिकृत व्यक्ति और बिना किसी व्यवस्थापक के हो गया है? क्या उस रहट और बगीचे का अस्तित्व अपने आप ही हो गया है? यह सब किन किसी करने वाले और प्रबंधक के इत्तेफ़ाक़ी तौर पर हो गया है? भला बतलाइए! अगर ऐसा हो जाए तो आपका विवेक इसके बारे में क्या कहेगा और किस चीज की ओर आपका मार्गदर्शन करेगा? [41] ब्रह्माण्ड की रचना की तत्वदर्शिताब्रह्माण्ड की रचना पर इस चिंतन-मनन के बाद, हमारे लिए अच्छा होगा कि हम कुछ उन हिकमतों (तत्वदर्शिताओं) का उल्लेख करें, जिनके कारण अल्लाह तआला ने इन महान सृष्टियों और स्पष्ट निशानियों को पैदा किया है । कुछ हिकमतें निम्नलिखित हैं :1. कायनात को मनुष्य के अधीन करना : जब अल्लाह तआला ने यह निर्णय किया कि इस धरती पर एक खलीफा (उत्तराधिकारी) बनाए, जो इसमें उसकी इबादत करे और इस धरती को आबाद करे; तो इसी कारण उसने इन सारी चीज़ों को पैदा किया, ताकि उसकी जिंदगी बेहतर अंदाज़ में व्यतीत हो और उसकी दुनिया व आखिरत का मामला अच्छा रहे। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "और उसने आसमानों और ज़मीन की तमाम चीजों को अपनी ओर से तुम्हारे वश में कर दिया।" [42] एक अन्य स्थान में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : “अल्लाह वह है, जिसने आसमानों और जमीन को पैदा किया है और आसमान से पानी बरसाकर, उसके माध्यम से तुम्हारे आहार के लिए फल निकाले हैं। और नावों को तुम्हारे वश में कर दिया है कि वे समुद्र में उसके हुक्म से चलें फिरें, और उसी नेे नदियाँ तुम्हारे वश में कर दी हैं। और उसी ने सूर्य तथा चंद्रमा को तुम्हारे अधीन कर दिया है कि वे लगातार चल रहे हैं। और रात व दिन को भी तुम्हारे काम में लगा रखा है। और उसी ने तुम्हें तुम्हारी मुँह माँगी सभी चीज़ों में से दे रखा है। अगर तुम अल्लाह की नेमतों की गिनती करना चाहो तो उन्हें गिन भी नहीं सकते। बेशक मनुष्य बड़ा ज़ालिम और नाशुक्रा है।" [43]2. आसमान और ज़मीन और ब्रह्माण्ड की दूसरी सभी चीजें अल्लाह की रूबूबियत (एकमात्र पालनहार होने) के साक्ष्य और उसके एकत्व की निशानियाँ साबित हों : क्योंकि इस ब्रह्माण्ड में सबसे महान चीज़ उसकी रुबूबियत को स्वीकारना और उसकी वहदानियत (एकत्व) में विश्वास रखना है। फिर, चूँकि यह सबसे बड़ी चीज है; इसलिए अल्लाह तआला ने इसपर सबसे मजबूत प्रमाण स्थापित किए हैं और इसके लिए सबसे बड़ी निशानियाँ खड़ी की हैं तथा इसके लिए सबसे सशक्त तर्क दिए हैं। चुनाँचे अल्लाह सर्वशक्तिमान ने आकाश व धरती और शेष मौजूद चीज़ों को स्थापित किया है, ताकि वे इसके साक्षी बन जाएँ। इसीलिए कुरआन में अधिकतर यह वर्णन मिलता है : “और उसकी निशानियों में से है।" जैसा कि अल्लाह के इस फरमान में है : "और उसकी निशानियों में से आसमानों और ज़मीन को पैदा करना है।" “और उसकी निशानियों में से तुम्हारा रात व दिन को सोना भी है।" "और उसकी निशानियों में से है कि वह तुम्हें डराने और उम्मीदवार बनाने के लिए बिजलियाँ दिखाता है।" "और उसकी निशानियों में से है कि आसमान और जमीन उसके आदेश से कायम हैं।" [44]3. यह सारी चीज़ें पुनर्जन्म (मरने के बाद दुबारा जिंदा होने) का साक्ष्य बन सकें : जब जीवन के दो भेद हैं, एक जीवन दुनिया में है और दूसरा जीवन आखिरत में और फिर आखिरत का जीवन ही वास्तविक और असली जीवन है, जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "यह दुनिया का जीवन तो केवल खेल-कूद है और आखिरत का घर ही असली जिदंगी है, अगर ये जानते।" [45] क्योंकि वही बदले और हिसाब का स्थान है तथा इसलिए कि वहाँ पर स्वर्गवासी अनन्तकाल तक आनंद व परम सुख में रहेंगे और नरकवासी हमेशा यातना में रहेंगे।फिर, चूँकि मनुष्य इस घर में उसी समय पहुँच सकता है, जब वह मर जाए और मरने के बाद पुन: जीवित किया जाए; इसलिए उन सभी लोगों ने इसका इन्कार कर दिया, जिनका संबंध अपने रब से कटा हुआ है, जिनकी प्रकृति भ्रष्ट हो गई है और जिनकी बुद्धि का क्षय हो गया है। इन्हीं सारी बातों के मद्दनज़र अल्लाह तआला ने इसके बहुत-से तर्क स्थापित कर दिए हैं और अनगिनत प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, ताकि आत्माएँ दोबारा जिंदा होने में विश्वास कर सकें और दिलों को उसपर यक़ीनन हो जाए; क्योंकि किसी चीज़ की पुन: रचना करना, उसे पहली बार रचना करने से अधिक सरल है, बल्कि आसमानों और ज़मीन को पैदा करना मनुष्य को दोबारा पैदा करने से कहीं अधिक बड़ी बात है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "और वही वह अल्लाह है, जो पहली बार पैदा करता है, फिर उसे वह दोबारा (पैदा) करेगा और यह उसके लिए अधिक आसान है।" [46] एक अन्य स्थान में उसने कहा है : "आसमानों और ज़मीन को पैदा करना लोगों को पैदा करने से ज्यादा बड़ी बात है।" [47] एक और जगह फरमाया : "अल्लाह वह है जिसने आसमानों को बग़ैर ऐसे स्तंभों के बुलंद कर रखा है कि तुम जिन्हें देख सको, फिर वह अर्श पर मुस्तवी हो गया, और उसी ने सूर्य तथा चाँद को अधीन कर रखा है। हर एक निश्चित काल तक के लिए चल रहा है। वही काम की व्यवस्था करता है। वह अपनी निशानियाँ साफ-साफ बयान कर रहा है कि तुम अपने रब से मिलने पर विश्वास कर सको।” [48] इन सब के बाद, हे मनुष्य!जब इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को तुम्हारे अधीन कर दिया गया है और जब उसकी निशानियाँ और लक्षण तुम्हारी नज़रों के सामने प्रमाण व साक्ष्य बनाकर खड़े कर दिए गए हैं, जो इस बात की गवाही दे रहे हैं कि अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं, वह अकेला है, उसका कोई साझेदार नहीं और जब तुम्हें पता चल गया कि तुम्हारा दोबारा जीवित होना और और मरने के बाद फिर से जीवित करके उठाया जाना, आसमानों और ज़मीन के पैदा करने से ज्यादा आसान है, और तुम अपने रब से मिलने वाले हो, जिसके बाद वह तुमसे तुम्हारे कर्मों का हिसाब लेगा, साथ ही जब तुमने जान लिया कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपने पालनहार की उपासना कर रहा है और अल्लाह की पैदा की हुई हर चीज़ अपने पालनहार की प्रशंसा के साथ उसकी पाकी बयान कर रही है, जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "आसमानों और जमीन की सभी चीजें अल्लाह की पाकी बयान करती हैं।" [49] और उसकी महानता व प्रतिष्ठा को सजदा करती है, जैसा कि सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फरमाया है : "क्या तुम नहीं देख रहे हो कि अल्लाह के सामने सजदे में हैं सब आसमानों वाले और सब ज़मीनों वाले, तथा सूर्य और चंद्रमा, तारे और पहाड़, पेड़ और जानवर, और बहुत-से मनुष्य भी? हाँ बहुत-से वे भी हैं जिनपर अज़ाब की बात पक्की हो चुकी है।" [50] बल्कि ये ब्रह्माण्ड भी अपने हिसाब से अपने पालनहार की प्रार्थना कर रही है, जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "क्या आपने नहीं देखा कि अल्लाह की पाकी बयान करती हैं आसमानों और ज़मीन की तमाम चीजें और चिड़ियाँ भी कतार लगाकर। हर एक को अपनी प्रार्थना (नमाज़) और तसबीह़ मालूम है।" [51]फिर, जब तुम्हारा शरीर अपनी व्यवस्था में अल्लाह की बनाई तक़दीर (अनुमान) और उसकी तदबीर (प्रबंध) के अनुसार चलता है। चुनाँचे दिल, फेफड़े, जिगर और अन्य सभी अंग अपने पालनहार के लिए समर्पित हैं और अपने नेतृत्व को अपने पालनहार को सौंपे हुए हैं . . . ऐसे में क्या तुम्हारा वैकल्पिक निर्णय, जिसमें तुम्हें अपने पालनहार पर ईमान लाने और उसके साथ कुफ़्र करने में से किसी एक को चुनने का अख़्तियार दिया गया है, उस शुभ रास्ते से अलग और विचलित होना होना चाहिए, जिसपर तुम्हारे चारों ओर का ब्रह्माण्ड बल्कि तुम्हारा शरीर भी कायम है।नि:संदेह पूरी तरह समझ-बूझ रखने वाला इन्सान इस बात को पसंद नहीं करेगा कि इस विशाल और महान ब्रह्माण्ड में एकमात्र वही विचलित हो और सबसे अलग राह अख़्तियार करे। मनुष्य की रचना और उसे सम्मान प्रदान किया जानाअल्लाह ने इस ब्रह्माण्ड में निवास करने योग्य एक मख़लूक़ पैदा करने का फैसला किया। वह मख़लूक़ इन्सान था। फिर अल्लाह पाक की ह़िकमत का तक़ाज़ा यह हुआ कि वह पदार्थ जिससे मनुष्य को पैदा करना था ज़मीन हो। चुनाँचे उसने मिट्टी से उसकी रचना की शुरूआत की । फिर उसने उसका यह खूबसूरत रूप बनाया, जो मनुष्य को प्रदान किया गया है, फिर जब वह सुंदर रंग-रूप वाला बन गया, तो उसमें अपनी ओर से रूह़ फूँक दी यानी प्राण डाल दिया, जिसके बाद वह एक बेहतरीन आकार वाला इन्सान बन गया, जो सुनता और देखता है, चलता-फिरता और बोलता है। फिर, उसके पालनहार ने उसे अपने स्वर्ग में रखा और उसे वह तमाम बातें सिखाईं, जिनकी उसे आवश्यकता थी, साथ ही उसके लिए उस स्वर्ग की तमाम चीजों को जायज़ कर दिया। अलबत्ता, उसकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से उसे एक पेड़ से रोक दिया। फिर अल्लाह ने उसके पद और प्रतिष्ठा को उजागर करना चाहा और अपने फ़रिश्तों को उसके आगे सजदा करने का आदेश दिया, तो सारे फ़रिश्तों ने उसको सजदा किया। मगर इबलीस ने घमण्ड और हठ में आकर सजदा करने से इन्कार कर दिया। जिसके नतीजे में उसका रब, अपने हुक्म को न मानने के कारण, उसपर नाराज़ हो गया और उसे अपनी रहमत से धुतकार दिया, क्योंकि उसने उसके सामने घमण्ड दिखलाया था। फिर इबलीस ने अपने रब से अपनी आयु को बढ़ाने का सवाल किया और यह कि उसे क़यामत के दिन तक छूट दे दी जाए, तो उसके रब ने उसे छूट दे दी और क़यामत के दिन तक उसकी आयु बढ़ा दी। शैतान आदम से जलने लगा, क्योंकि अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम और उनकी संतान को उसपर वरीयता दी थी। फिर उसने अपने रब की कसम खाकर कहा कि वह आदम की सभी औलाद (संतान) को भटकाएगा और वह उनके आगे से, पीछे से, उनके दाएँ से और बाएँ से उनके पास आएगा, सिवाय अल्लाह के सच्चे ईशभय रखने वाले धर्मनिष्ठ बन्दों के, जो उससे सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि अल्लाह ने उनको शैतान के छल और चाल से बचा लिया है। अल्लाह ने आदम को शैतान की चाल से चौकन्ना कर दिया है। शैतान ने आदम और उनकी पत्नी ह़व्वा को बहकाया, ताकि उन दोनों को स्वर्ग से निकलवा दे और उनकी छिपे हुए अंगों को जाहिर कर दे। उसने उन दोनों से कसम खाकर कहा कि मैं तुम्हारा शुभचिंतक हूँ और अल्लाह ने तुम दोनों को उस पेड़ से केवल इसलिए रोका है कि तुम दोनों फरिश्ते या हमेशा रहने वाले न बन जाओ।चुनाँचे उन दोनों ने उस पेड़ से खा लिया, जिससे अल्लाह ने रोका था। अल्लाह के हुक्म को न मानने पर जो सबसे पहली सजा उनको मिली, वह यह थी कि उनके अंग खुल गए। फिर, उनके रब ने उनको शैतान की चाल से सचेत करने की बात याद दिलाई, तो आदम अलैहिस्सलाम ने अपने रब से ग़लती की क्षमा माँगी। चुनाँचे उसने उनको क्षमा कर दिया, उनकी तौबा कबूल कर ली, उनको चुन लिया, उनका मार्गदर्शन किया और आदेश दिया कि वह उस स्वर्ग से, जिसमें वह रह रहे थे, ज़मीन पर उतर जाएँ; क्योंकि वही उनका ठिकाना है और उसी में एक समय तक के लिए उनके रहने-सहने की व्यवस्था है। उनको बताया कि वह उसी से पैदा किए गए हैं, उसी पर ज़िदंगी बिताएँगे, उसी पर मरेंगे और फिर उसी से उनको दोबारा जिंदा कर उठाया जाएगा।चुनाँचे आदम और उनकी पत्नी हव्वा ज़मीन पर उतर आए। फिर उनकी नस्ल बढ़ने लगी। वे सभी अल्लाह की, उसके हुक्म के अनुसार, इबादत करते थे। क्योंकि आदम अलैहिस्सलाम अल्लाह के नबी थे।अल्लाह तआला ने हमें इस पूरी घटना से कुछ इस प्रकार अवगत किया है : "और हमने तुमको पैदा किया, फिर हमने तुम्हारी शक्ल बनाई। फिर हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो, तो सभी ने सजदा किया। सिवाय इबलीस के, वह सजदा करने वालों में शामिल नही हुआ। (अल्लाह ने) कहा : किस चीज़ ने तुझे सजदा करने से रोका, जबकि मैंने तुझे इसका हुक्म दिया था? कहने लगा : मैं इससे बेहतर हूँ। तूने मुझको आग से पैदा किया है और इसको तूने मिट्टी से पैदा किया है। अल्लाह ने कहा : तू यहाँ से उतर जा। तुझे कोई अधिकार नहीं कि तू यहाँ रहकर घमंड करे। तू निकल जा। बेशक तू ज़लील लोगों में से है। उसने कहा : मुझको प्रलय (क़यामत) के दिन तक की छूट दीजिए। अल्लाह ने कहा : तूझे छूट दे दी गई। उसने कहा : इस कारण कि तूने मुझको धिक्कार दिया है, मैं उनके लिए तेरे सीधे मार्ग पर बैठूँगा। फिर उनपर हमला करूँगा उनके आगे से भी, पीछे से भी, दाएँ से भी और उनके बाएँ से भी। और आप उनमें से अधिकतर को शुक्र करने वाला न पाएँगे। अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि तू यहाँ से ज़लील व रुस्वा होकर निकल जा। जो भी उनमें से तेरा कहा मानेगा, मैं अवश्य तुम सबसे नरक को भर दूँगा। और हमने हुक्म दिया कि ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी स्वर्ग में रहो। फिर जहाँ से चाहो, दोनों खाओ और इस पेड़ के पास कभी न जाना, वरना तुम ज़ालिमों में से हो जाओगे। फिर शैतान ने उनके दिलों में वसवसा डाला ताकि उनकी छिपी हुई जननांग को जाहिर कर दे और उसने कहा : तुम्हारे रब ने तुम दोनों को इस पेड़ से इसी लिए रोका है कि तुम कहीं फ़रिश्ते हो जाओगे या हमेशा जीवित रहने वालों में से बन जाओगे। और उसने उन दोनों के सामने क़सम खाई कि बेशक मैं तुम दोनों का शुभचिंतक हूँ। तो उसने उन दोनों को धोखा देकर (अपनी बातों में) उतार लिया। तो जैसे ही उन दोनों ने पेड़ को चखा, दोनों की शर्मगाह उनके लिए ज़ाहिर हो गईं। और दोनों अपने ऊपर स्वर्ग के पत्ते जोड़-जोड़ कर रखने लगे, और उनके रब ने उनको पुकारा, क्या मैंने तुम दोनों को इस पेड़ से रोका नहीं था, और तुमसे यह नहीं कहा था कि शैतान तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है? दोनों ने कहा : ऐ हमारे रब, हमने अपने ऊपर बड़ा जुल्म किया है। अगर तू हमें क्षमा न देगा और हमपर दया न करेगा, तो सचमुच हम नुकसान उठाने वालो में से हो जाएँगे। अल्लाह ने फ़रमाया कि तुम नीचे उतरो, तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो और तुम्हारे लिए ज़मीन में रहने की जगह है और एक समय तक के लिए फायदे का सामान है। फ़रमाया कि तुमको वहीं ज़िदंगी बितानी है और वहीं पर मरना है और उसी में से फिर निकाले जाओगे।" [52]आप इस मनुष्य के प्रति अल्लाह की महान कारीगरी पर विचार करें कि उसने इसे बेहतरीन रूप में पैदा किया और उसे सम्मान के सभी जोड़े पहनाए, जैसे- अक्ल, ज्ञान, बयान, बोलने की शक्ति, रूप, सुंदर शक्ल, सज्जन वेशभूँषा, संतुलित शरीर, सोच-विचार और ग़ैर व फ़िक्र के द्वारा जानकारी ग्रहण करने की क्षमता, और प्रतिष्ठित और उच्च नैतिकता, जैसे- नेकी, आज्ञाकारिता और आज्ञापालन ग्रहण करने की योग्यता आदि प्रदान की। चुनाँचे आप विचार करें कि उसकी उस हालत के बीच जबकि वह माँ के पेट में वीर्य के रूप में था और उसकी उस हालत के बीच जबकि सदा रहने वाली जन्नतों में फरिश्ते उसके सामने उपस्थिति दर्ज कराएँगे, कितना अंतर है? "सचमुच सबसे अच्छा पैदा करने वाले अल्लाह की ज़ात बड़ी बरकत वाली है।" [53]अतः, दुनिया एक गाँव है और मनुष्य उसका निवासी है। जबकि सारी चीज़ें उसकी सेवा में व्यस्त और उसके हितों की रक्षा के लिए प्रयासरत हैं। सभी चीजें उसकी सेवा और उसकी ज़रूरतों की पूर्ति में लगा दी गई हैं। चुनाँचे फ़रिश्ते उसी के काम पर लगाए गए हैं और वे रातदिन उसकी हिफ़ाज़त करते हैं। वर्षा और पौधों पर नियुक्त फ़रिश्ते उसकी जीविका उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत हैं और उसी के लिए काम करते हैं। सारे ग्रह उसी के हितों की रक्षा के लिए घूम रहे हैं। सूरज, चाँद और तारे उसके समय की गणना और उसके भोजन की व्यवस्था के लिए चल रहे हैं। वायुमंडल भी अपनी हवा, बादल, पक्षियों और उसके अंदर मौजूद सभी चीज़ों के साथ उसी के अधीन है। पृथ्वी की सतह पूरी की पूरी उसके अधीन है और उसकी हितों के लिए पैदा की गई है। उसकी ज़मीन और उसके पहाड़, उसके समुद्र और उसकी नदियाँ, उसके पेड़ और उसके फल, उसके पौधे और उसके जानवर और उसके अंदर मौजूद सभी चीजें उसी के लिए पैदा की गई हैं। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "अल्लाह वह है, जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया है और आसमान से पानी बरसाकर उससे तुम्हारी रोज़ी के लिए फल पैदा किए और नावों को तुम्हारे वश में कर दिया है, ताकि वे समुद्र में उसके आदेश से चलें फिरें। उसी ने नदियाँ और नहरें तुम्हारे वश में कर दी हैं। और उसी ने सूर्य तथा चंद्रमा को तुम्हारे अधीन कर दिया है कि वे लगातार चल रहे हैं। और रात व दिन को भी तुम्हारे काम में लगा रखा है। और उसी ने तुम्हें तुम्हारी मुँह माँगी सभी चीजों में से दे रखा है, और अगर तुम अल्लाह की नेमतें गिनना चाहो तो तुम उन्हें पूरा गिन भी नहीं सकते। बेशक इन्सान बड़ा ज़ालिम और नाशुक्रा है।" [54] अल्लाह तआला ने इन्सान को जो सम्मान दिया है, उसका एक पक्ष यह भी है कि उसने उसके लिए उन सभी चीजों को पैदा किया जिनकी उसे अपने सांसारिक जीवन में आवश्यकता होती है, तथा उन साधनों को पैदा किया जिनकी उसे आख़िरत में सर्वोच्च पदों तक पहुँचने के लिए आवश्यकता होती है। चुनाँचे उसकी तरफ अपनी किताबें उतारीं और उसके पास अपने सन्देष्टा भेजे, जो उसके लिए अल्लाह की शरीयत (धर्मविधान) को बयान करते हैं और उसे उसकी ओर बुलाते हैं।फिर अल्लाह ने उसके लिए स्वयं उसी के शरीर से -अर्थात आदम के शरीर से- एक पत्नी बनाई, जिससे वह सुकून और आराम हासिल करे। दरअसल यह उसकी प्राकृतिक -मानसिक, बौद्धिक और शरीरिक- ज़रूरतों की पूर्ति के लिए किया गया है, ताकि वह उसके पास आराम, शांति और स्थिरता प्राप्त कर सके। क्योंकि दोनों की शारीरिक और मानसिक संरचना में एक-दूसरे की चाहतों तथा इच्छाओं का ख़याल रखा गया है, दोनों के मिलाप से एक नई पीढ़ी की तैयारी को ध्यान में रखा गया है, दोनों के अंदर इस तरह की भावनाएँ रख दी गई हैं, इस रिश्ते में आत्मा की शांति, शरीर और दिल की राहत, जीवन और जीवनयापन के लिए स्थिरता, आत्माओं और अंतरात्माओं का प्रेम तथा समान रूप से पुरुष और नारी के लिए संतुष्टि रखी गई है।अल्लाह तआला ने मानव जाति के बीच ईमान वालों को चुन लिया है, उन्हें अपनी दोस्ती का पात्र बनाया है और उन्हें अपनी आज्ञाकारिता के कामों में लगाया है तथा वे उसकी शरीयत (धर्मविधान) के अनुसार काम करते हैं, ताकि स्वर्ग में अपने रब के पास रहने के योग्य बन सकें। फिर उनमें से सदाचारियों, शहीदों, नबियों और रसूलों को चुन लिया है और उनको इस दुनिया में सबसे बड़ी नेमत प्रदान की है, जिससे दिलों को आनंद मिलता है। यह नेमत है, अल्लाह की उपासना, उसकी आज्ञाकारिता और उससे प्रार्थना की नेमत। उन्हें विशेष रूप से कई बड़ी-बड़ी नेमतें जैसे शांति, इतमिनान तथा सौभाग्य आदि प्रदान की हैं, जिन्हें उनके अलावा दूसरे लोग नहीं पा सकते। बल्कि इन सबसे बड़ी चीज़ यह है कि वे उस हक़ (सत्य धर्म) को पहचानते और उसपर ईमान रखते हैं जिसे संदेष्टागण लेकर आए हैं। अल्लाह ने उनके लिए -आखिरत के घर में- ऐसी चिरस्थायी नेमत और महान सफलता तैयार कर रखी है जो उस सर्वशक्तिमान की उदारता को शोभित है। वह उन्हें अपने ऊपर ईमान लाने और उसके प्रति निष्ठावान रहने के कारण पुरस्कृत भी करेगा। स्त्री का स्थानइसलाम ने स्त्री को इतना ऊँचा स्थान प्रदान किया कि न तो किसी पिछले धर्म ने उसे वह स्थान दिया था और न किसी बाद के समुदाय ने दिया है। क्योंकि इस्लाम ने मनुष्य को जो सम्मान दिया है, उसमें पुरुष व स्त्री दोनों बराबरी के साथ शामिल हैं। वे इस दुनिया में अल्लाह के अहकाम (आदेशों) के सामने बराबर हैं और आख़िरत में भी उसके सवाब (पुण्य) तथा बदले के सामने एक समान और बराबर होंगे। अल्लाह तआला ने फरमाया है : “वास्तव में हमने बनी आदम (मनुष्य) को सम्मानित किया है।" [55] एक अन्य स्थान में कहा है : "पुरुषों के लिए उस माल में हिस्सा है, जो माता-पिता और रिश्तेदार छोड़ जाएँ और महिलाओं के लिए भी उस माल में हिस्सा है, जो माता-पिता और रिश्तेदार छोड़ जाएँ। [56] एक और जगह कहा है : "और उन (महिलाओं) के लिए भी उसी प्रकार (अधिकार) है, जैसे कि उनके ऊपर है, भलाई के साथ।" [57] एक और जगह कहा है : "और मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक-दूसरे के दोस्त हैं।" [58] एक और जगह कहा है : “और तुम्हारे रब ने फैसला कर दिया कि तुम मात्र उसी की इबादत करना, और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना। अगर तुम्हारे सामने उनमें से कोई एक या दोनों बुढ़ापे को पहुँच जाएँ, तो उनसे उफ़ तक न कहना, और न उन्हें झिड़कना, और उनसे नरम ढंग से बात करना। और उन दोनों के लिए विनम्रता का बाज़ू मेहरबानी से झुकाए रखना, और कहना कि ऐ मेरे रब, दया कर उन दोनों पर, जिस तरह उन दोनों ने मेरे बचपन में मुझे पाला है।" [59] एक अन्य स्थान में कहा है : "तो उनके रब ने उनकी दुआ कबूल कर ली। ( और कहा ) मैं तुममें से किसी अमल करने वाले के अमल को चाहे पुरुष हो या महिला, बर्बाद नहीं करूँगा।" [60] एक और जगह कहा है : “जो कोई भी अच्छा काम करेगा, मर्द हो या औरत, जबकि वह मोमिन हो, तो हम उसे पाकीज़ा ज़िदंगी प्रदान करेंगे। और हम उनको बेहतरीन बदला देंगे उनके उन अच्छे कर्मों की वजह से जो वे किया करते थे।" [61] एक और जगह कहा है : "और जो भी नेक काम करे, पुरुष हो या महिला, जबकि वह मोमिन हो, तो ऐसे लोग स्वर्ग में दाखिल होंगे और उनपर रत्ती भर ज़ुल्म नहीं किया जाएगा।" [62]यह सम्मान जो महिला को इस्लाम में प्राप्त है, उसका किसी भी धर्म, मिल्लत (सम्प्रदाय) या क़ानून में उदाहरण नहीं मिलता। चुनाँचे रोमन सभ्यता ने यह पारित किया था कि महिला पुरुष के अधीन (मातहत) एक दासी है, उसे बिल्कुल कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। रोम में एक बड़ा सम्मेलन हुआ था, जिसमें औरतों के मामले पर चर्चा किया गिया था और यह निर्णय लिया गया था कि वह एक बेजान प्राणी है और इसलिए आखिरत की ज़िदंगी में उसका कोई हिस्सा नहीं है और यह कि वह नापाक है।एथेंस (Athens) में स्त्री एक गिरी-पड़ी चीज़ समझी जाती थी, उसे खरीदा और बेचा जाता था और वह नापाक शैतानी अमल समझी जाती थी।प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार महामारी, मृत्यु, नरक, साँपों का जहर और आग महिला की तुलना में बेहतर हैं और उसके जीवन का अधिकार उसके पति -जो कि उसका स्वामी है- की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है। अत: जब वह अपने पति के शव को देखे कि उसे जलाया जा रहा है, तो उसकी चिता में अपने आप को डाल दे, नहीं तो शाप उसका पीछा नहीं छोड़ेगी।जहाँ तक यहूदी धर्म में औरत के स्थान की बात है, तो "ओल्ड टेस्टामेंट'' में उसके बारे में कहा गया है : “मैंने और मेरे दिल ने हिकमत तथा बुद्धि का ज्ञान प्राप्त करने और उसकी छानबीन तथा उसकी तलाश में चक्कर लगाया और यह जानने का प्रयास किया कि बुराई मूर्खता है और बेवक़ूफ़ी पागलपन है। मैं मृत्यु से अधिक कड़वी हक़ीक़त से रूबरू हुआ कि स्त्री जाल है, उसका दिल फंदा है और उसके हाथ ज़ंजीर हैं।" [63]यह थी प्राचीनकाल में महिला की स्थिति। रही बात मध्यकालीन और आधुनिक युग में महिला की स्थिति की, तो इसे निम्नलिखित घटनाएँ स्पष्ट करती हैं :डेनमार्क के लेखक Wieth Kordsten ने महिलाओं के प्रति कैथोलिक चर्च के रुझान की व्याख्या अपने इस कथन के द्वारा की है : "मध्यकालीन युग में कैथोलिक पंथ के दृष्टिकोण के चलते, जो कि महिलाओं को दूसरे दर्जे का इन्सान समझता था, यूरोपीय महिला की परवाह बहुत कम की जाती थी।" वर्ष 586 ईस्वी में फ्रांस के अंदर एक सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें महिला के विषय पर विचार-विमर्श किया गया था और इस बात पर गौ़र किया गया था कि क्या उसे इन्सान समझा जाएगा या उसकी गिनती इन्सान में नहीं होगी? विचार-विमर्श के बाद सम्मेलन के सदस्यों ने यह फैसला किया था कि महिला को इन्सान समझा जाएगा, लेकिन वह पुरुष की सेवा के लिए पैदा की गई है। फ्रांसीसी कानून का अनुच्छेद 217 कहता है कि : "शादीशुदा महिला के लिए -चाहे उसका विवाह उसके स्वामित्व और उसके पति के स्वामित्व के बीच अलगाव पर ही आधारित क्यों न हो- यह जायज़ नहीं है कि वह (अपनी संपत्ति) किसी को भेंट करे, उसके स्वामित्व को स्थानांतरित करे या उसे गिरवी रखे, और न ही वह किसी मुआवजे के साथ या बिना मुआवजे के अपने पति की भागीदारी के बिना या उसकी लिखित सहमति के बिना किसी चीज़ का मालिक हो सकती है।"इंग्लैंड में, हेनरी अष्टम ने अंग्रेज़ी महिला पर बाइबिल पढ़ना निषिद्ध ठहरा रखा था। वर्ष 1950 ईस्वी तक महिलाएँ नागरिकों में नहीं गिनी जाती थीं, और वर्ष 1882 ईस्वी तक उन्हें व्यक्तिगत अधिकार हासिल नहीं थे। [64]जहाँ तक यूरोप, अमेरिका और अन्य औद्योगिक देशों में समकालीन महिला की हालत का संबंध है, तो वह वाणिज्यिक प्रयोजनों में उपयोग की जाने वाली एक तुच्छ प्राणी है। क्योंकि वह व्यावसायिक विज्ञापन का एक हिस्सा है। बल्कि उसकी स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि उसे वस्त्रहीन कर दिया जाता है ताकि वाणिज्यिक अभियानों के इंटरफेस में उसपर वस्तुओं को विज्ञापित किया जाए। आज पुरुषों द्वारा निर्धारित नियमों के आधार पर उसके शरीर और सतीत्व को जायज़ ठहरा लिया गया है, ताकि वह हर जगह उनके लिए मात्र मनोरंजन और भोग की वस्तु बन जाए।वह उस समय तक ध्यान का केन्द्र बनी रहती है जब तक वह अपने हाथ, अपने विचार या अपने शरीर के द्वारा देने और खर्च करने में सक्षम रहती है। फिर जैसे ही वह बूढ़ी होती है और देने की योग्यता खो देती है, तो पूरा समाज, उसके व्यक्तियों और उसकी संस्थाओं सहित, उससे पीछे हट जाता है और वह अकेले अपने घर में या फिर मनोरोग चिकित्सालयों में जीने पर मजबूर होती है।आप इसकी तुलना -हालाँकि यहाँ कोई बराबरी नहीं है- पवित्र कुरआन में वर्णित अल्लाह सर्वशक्तिमान के इस कथन से करें। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : “और मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक-दूसरे के दोस्त हैं।" [65] एक अन्य स्थान में अल्लाह तआला ने कहा है : "और उन (महिलाओं) के लिए भी उसी प्रकार (अधिकार) है, जैसे कि उनके ऊपर है, भलाई के साथ।" [66] एक अन्य स्थान में कहा है : “और तुम्हारे रब ने फैसला कर दिया कि तुम मात्र उसी की इबादत करना, और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना। अगर तुम्हारे सामने उनमें से कोई एक या दोनों बुढ़ापे को पहुँच जाएँ, तो उनसे उफ़ तक न कहना, और न उन्हें झिड़कना, और उनसे नरम ढंग से बात करना। और उन दोनों के लिए विनम्रता का बाज़ू मेहरबानी से झुकाए रखना, और कहना कि ऐ मेरे रब, दया कर उन दोनों पर जिस तरह उन दोनों ने मेरे बचपन में मुझे पाला है।" [67]उसके पालनहार ने उसे यह सम्मान देते हुए सभी मानव जाति के लिए यह स्पष्ट कर दिया है कि उसने महिला को एक माँ, एक पत्नी, एक बेटी और एक बहन बनने के लिए पैदा किया है। और इन भूमिकाओं के लिए उसने विशेष नियम निर्धारित किए हैं, जो पुरुषों के बजाय केवल औरत कि लिए विशिष्ट हैं। मनुष्य की पैदाइश की हिकमतमानव रचना में अल्लाह पाक की ऐसी हिकमतें हैं, जिनके जानने में बुद्धि असमर्थ और जिनका वर्णन करने में ज़बानें अक्षम हैं। निम्न पंक्तियों में, हम इनमें से कुछ हिकमतों पर समीक्षा करेंगे। वे इस प्रकार है :1- अल्लाह तआला के बहुत-से अच्छे-अच्छे नाम हैं, जैसे- अल-गफ़ूर (क्षमा करने वाला), अर-रह़ीम (दयालु), अल-अफ़ुव्व (माफ़ करने वाला), अल-ह़लीम (सहनशील) आदि। चूँकि इन नामों के असर का जाहिर होना ज़रूरी है, इसलिए अल्लाह पाक की हिकमत का तक़ाज़ा हुआ कि वह आदम और उनकी संतान को एक ऐसे घर में उतारे, जहाँ उनपर उसके अच्छे नामों का असर ज़ाहिर हो और वह जिसे चाहे क्षमा कर दे, जिसपर चाहे दया करे, जिसे चाहे माफ़ कर दे तथा जिससे चाहे सहनशीलता से काम ले। अल्लाह चाहता था कि इसके अलावा उसके अन्य नामों और गुणों (विशेषताओं) का असर जाहिर हो।2- अल्लाह तआला सच्चा और खोलकर बयान करने वाला बादशाह है। बादशाह वह होता है जो आदेश और निषेध जारी करता है, पुरस्कृत और दंडित करता है, अपमान करता है और सम्मान देता है तथा इज़्ज़त और ज़िल्लत देता है। अत: उसकी बादशाहत ने चाहा कि वह आदम और उनकी संतान को ऐसे घर में उतारे, जहाँ उनपर बादशाहत के अहकाम जारी हों, फिर उनको ऐसे घर में हस्तांतरित करे जहाँ उनके कर्मों का बदला दिया जाए।3- अल्लाह तआला ने चाहा कि कुछ लोगों को नबी, रसूल, औलिया और शहीद बनाए, जिनसे वह मुहब्बत करे और वे उससे मुहब्बत करें। चुनाँचे उसने उन्हें और अपने दुश्मनों को आपस में भिड़ने दिया और उनकी इनके ज़रिए परीक्षा ली। जब उन्होंने उसको प्राथमिकता दी और उसकी खुशी और मुहब्बत के रास्ते में अपनी जानों और मालों को न्योछावर कर दिया; तो उन्हें उसकी मुहब्बत, प्रसन्नता और निकटता प्राप्त हो गई, जो इसके बिना हासिल नहीं हो सकती थी। अतः, रिसालत व नबूवत और शहादत का पद अल्लाह के निकट सर्वश्रेष्ठ पदों में से है और इसे इंसान उसी तरीके से हासिल कर सकता था, जिसका निर्णय अल्लाह पाक ने आदम और उनकी संतान को पृथ्वी पर उतारकर लिया है।4- अल्लाह तआला ने आदम और उनकी संतान की संरचना कुछ ऐसी बनाई है कि उसके अंदर अच्छाई व बुराई को स्वीकार करने की योग्यता है और वासना तथा फ़ितना एवं विवेक तथा ज्ञान के तक़ाज़े मौजूद हैं। चुनाँचे अल्लाह तआला ने उसके अंदर विवेक तथा वासना को रख दिया है और उन दोनों को अपने-अपने तक़ाज़ों की ओर आह्वान करने वाला भी बनाया है कि उसका उद्देश्य पूरा हो सके और वह अपने बंदों के लिए अपनी हिकमत (तत्वदर्शिता) तथा शक्ति में निहित अपने मान-सम्मान को तथा अपनी सत्ता और राज्य में निहित अपनी दयालुता एवं कृपालुता का प्रदर्शन कर सके। सो उसकी हिकमत का तकक़ाज़ा यह हुआ कि वह आदम और उनकी संतान को जमीन पर उतारे, ताकि परीक्षण पूरा हो और मनुष्य के इन कारणों के प्रति तत्परता और उन्हें स्वीकारने और फिर उसी के अनुसार उसके सम्मानित या अपमानित किए जाने के प्रभाव प्रकट हों।5- अल्लाह तआला ने मख़लूक़ को अपनी इबादत के लिए पैदा किया है और यही उनकी पैदाईश का उद्देश्य है। अल्लाह का फ़रमान है : "मैंने जिन्नात और इन्सानों को मात्र इसी लिए पैदा किया है कि वे केवल मेरी इबादत करें।" [68] और यह बात सर्वज्ञात है कि संपूर्ण इबादत जिसकी अपेक्षा की गई है, वह नेमतों और हमेशा रहने वाले घर में पूरी नहीं हो सकती, बल्कि वह केवल परीक्षा और आज़माइश के घर में ही पूरी हो सकती है। बाकी रहने वाला घर तो आनंद और नेमत का घर है। वह परीक्षा और धार्मिक पाबंदियों का घर नहीं है।6- बिना देखे ईमान लाना ही लाभदायक ईमान है। रही बात देखने के बाद ईमान लाने की, तो हर कोई प्रलय के दिन ईमान ले आएगा। अत: अगर वे नेमतों के घर में पैदा किए जाते, तो वे बिना देखे ईमान लाने का दर्जा हासिल नहीं कर पाते, जिसके बाद वह आनंद और सम्मान हासिल होता है जो अनदेखी चीज़ों पर ईमान लाने की वजह से मिलता है। इसीलिए अल्लाह ने उन्हें एक ऐसे घर में उतारा जहाँ बिना देखे ईमान लाने का मौका हो।7- अल्लाह ने आदम عليه السلام को पूरी ज़मीन की एक मुट्ठी मिट्टी से पैदा किया और ज़मीन में अच्छी और बुरी, सख़्त और नर्म दोनों तरह की मिट्टी है। अत: अल्लाह तआला को मालूम था कि आदम की संतान में कुछ ऐसे भी होंगे जो इस योग्य नहीं होंगे कि वह उन्हे अपने घर में निवास कराए; इसलिए उसने उन्हें ऐसे घर में उतारा, जहाँ से अच्छे और बुरे को छाँटकर अलग कर दे और फिर उन्हें दो अलग-अलग घरों में रखे। अच्छे लोगों को अपने पड़ोस वाले घर में रहने का अवसर दे बुरे लोगों को दुर्भाग्य के घर और दुष्ट लोगों के घर का निवासी बनाए।8- अल्लाह तआला ने चाहा कि इसके द्वारा वह अपने उन बन्दों को, जिनपर उसने इनाम किया है, अपनी संपूर्ण नेमत और उसकी महानता की पहचान कराए; ताकि वे सबसे ज्यादा मुहब्बत करने वाले और सबसे अधिक शुक्र करने वाले बंदे बन जाएँ और उसकी दी हुई नेमतों का अधिक आनंद ले सकें। इसलिए अल्लाह ने उनको दिखाया कि वह अपने शत्रुओं के साथ क्या कुछ करता है और उनके लिए कैसा अज़ाब तैयार कर रखा है। उसने उन्हें इस चीज़ पर गवाह भी बनाया है कि उसने उनको विशेष रूप से बड़ी-बड़ी नेमतें प्रदान की हैं; ताकि उनकी खुशी बढ़ जाए, उनका उल्लास चरम पर पहुँच जाए और उनकी प्रसन्नता दोबाला हो जाए। यह सब उनके ऊपर अल्लाह के इनाम और मुहब्बत की संपूर्णता का एक पहलू है। फिर, इसके लिए ज़रूरी था कि वह उन्हें ज़मीन पर उतारे, उनकी आज़माइश करे, उनमें से जिसको चाहे अपनी दया और कृपा के तौर पर सामर्थ्य प्रदान करे और अपनी हिकमत और न्याय के तौर पर जिसे चाहे असहाय छोड़ दे और वह सब कुछ जानने वाला तथा हिकमत वाला है।9- अल्लाह तआला ने चाहा कि आदम और उनकी संतान उस (स्वर्ग) की ओर इस हालत में वापस आएँ कि वे अपनी सबसे अच्छी हालत में हों। अत: उसने इससे पहले उन्हें दुनिया के दुःख-दर्द और शोक व चिंता का मज़ा चखा दिया, जिससे परलोक के घर में उनके स्वर्ग में जाने का महत्व उनके निकट बढ़ जाए; क्योंकि किसी चीज़ की खूबसूरती को उसकी विपरीत चीज़ स्पष्ट और विदित करती है। [69]मानव जाति की शुरूआत को स्पष्ट करने के बाद, अच्छा होगा कि हम मानव की सच्चे धर्म की आवश्यकता को बयान कर दें। मनुष्य को धर्म की आवश्यकतामनुष्य को धर्म की आवश्यकता, उसके सिवाय जीवन की अन्य सभी ज़रूरतों से कहीं अधिक है, क्योंकि मनुष्य के लिए अल्लाह तआला की खुशी के स्थानों और उसकी नाराज़गी के स्थानों की जानकारी ज़रूरी है। साथ ही उसके लिए ऐसी गतिविधि भी आवश्यक है, जिसके द्वारा वह अपने लाभ को प्राप्त कर सके और ऐसी गतिविधि भी, जिसके द्वारा वह अपने नुकसान को दूर कर सके। जबकि शरीयत (धर्मविधान) ही वह एक मात्र वस्तु है, जो लाभदायक और हानिकारक कामों के बीच अंतर कर सकती है। वही सृष्टियों के लिए अल्लाह का न्याय और बंदों के बीच अल्लाह का प्रकाश है। इसलिए लोगों के लिए एक ऐसी शरीयत के बिना जीवन बिताना संभव नहीं है, जिसके द्वारा वे यह अंतर कर सकें कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।अगर मनुष्य के पास इच्छा है, तो उसके लिए यह जानना ज़रूरी है कि वह किसी चीज़ की इच्छा कर रहा है? क्या वह उसके लिए लाभदायक है या हानिकारक? क्या वह उसका सुधार करेगी या उसे भ्रष्ट कर देगी? कुछ लोग इसे स्वाभाविक रूप से जान लेते हैं, जबकि कुछ लोग अपने विवेक के द्वारा तर्क माध्यम से इसका पता लगाते हैं और कुछ लोग उसी समय जान पाते हैं, जब अल्लाह के सन्देष्टा उन्हें परिचित कराएँ, उनके सामने स्पष्ट रूप से बात रखें और उनका मार्गदर्शन करें। [70]नास्तिक तथा भौतिकवादी विचारधाराएँ चाहे जिस क़दर शोर मचाएँ एवं सुंदर से सुंदर नारे लगाएँ, तथा चाहे जिस क़दर अलग-अलह विचारधाराँ और दृष्टिकोण सामने आ जाएँ, वे व्यक्तियों और समुदायों को सच्चे धर्म से बेनियाज़ नहीं कर सकते कथा आत्मा एवं शरीर के तक़ाजों को कदापि पूरा नहीं कर सकते। बल्कि व्यक्ति इनके अंदर जितना घुसता जाएगा, उसे पूरा विश्वास हो जाएगा कि ये उसे सुरक्षा नहीं दे सकते और उसकी प्यास को बुझा नहीं सकते साथ ही यह बात भी खुलकर उसके सामने आ जाएगी कि इन सबसे छुटकारा केवल सच्चे धर्म के ज़रिए ही मिल सकता है। अर्नेस्ट रीनान कहते हैं : "यह संभव है कि हर चीज़ जिसे हम पसंद करते हैं लुप्त हो जाए, और बुद्धि, ज्ञान और उद्योग के प्रयोग की आज़ादी ख़त्म हो जाए, लेकिन यह असंभव है कि धर्मपरायणता मिट जाए, बल्कि वह भौतिकवादी विचारधारा की निरर्थकता पर एक मुँह बोलते सबूत के रूप में बाक़ी रहेगा, जो मनुष्य को सांसारिक जीवन की घृणित तंगियों में सीमित करना चाहता है।" [71]तथा मुहम्मद फरीद वजदी कहते हैं : "यह असंभव है कि धार्मिकता की सोच मिट जाए; क्योंकि यह मन की उच्चतम प्रवृत्ति और सबसे प्रतिष्ठित भावना है। ऐसी प्रवृत्ति का क्या कहना, जो मनुष्य के सिर को ऊँचा करती है, बल्कि यह प्रवृत्ति बढ़ती ही चली जाएगी। चुनाँचे धार्मिकता की प्रकृति उस समय तक मनुष्य के साथ लगी रहती है, जब तक कि उसके पास इतनी बुद्धि है, जिससे वह सौन्दर्य और कुरुपता का बोध कर सकता है। उसके अंदर यह प्रवृत्ति उसके विचारों की बुलंदी और उसके ज्ञान के विकास के अनुपात में बढ़ती रहेगी।" [72]चुनाँचे जब मनुष्य अपने रब से दूर हो जाता है, तो अपनी धारणा शक्ति की बुलंदी और अपने ज्ञान के छितिज के विस्तार की मात्रा में, उसे अपने पालनहार और उसके लिए अनिवार्य चीजों के बारे में अज्ञानता, तथा स्वयं अपनी आत्मा और उसका सुधार करने वाली और उसको भ्रष्ट करने वाली चीज़ों, उसे सौभाग्य प्रदान करने वाली और दुर्भाग्य से दोचार करने वाली चीजों के बारे में अज्ञानता, तथा विज्ञान के विवरण और उसकी शब्दावलियों, जैसे खगोल विज्ञान, आकाश गंगाओं से संबंधित विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान और परमाणु विज्ञान आदि के बारे में अपनी महान अज्ञानता का बोध होता है . . . उस समय एक विज्ञानी घमण्ड और अहंकार को छोड़कर नम्रता और आत्म-समर्पण को अपनाता है। वह यह विश्वास रखता है कि विज्ञानों के पीछे एक सर्वज्ञानी, सर्वबुद्धिमान और प्रकृति के पीछे एक सर्वशक्तिमान स्रष्टा है। यह वास्तविकता एक इन्साफ़पसंद शोधकर्ता को ग़ैब (अनदेखी चीजों) पर ईमान लाने, सच्चे धर्म के प्रति समर्पण और प्रकृति तथा स्वाभाविक वृत्ति की पुकार का जवाब देने पर मजबूर कर देती है . . . लेकिन मनुष्य अगर इससे अलग हो जाए, तो उसका स्वभाव उलट जाता है और वह मूक जानवर के स्तर तक गिर जाता है।इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सच्ची धर्मनिष्ठता -जो अल्लाह को उसकी तौहीद के साथ एक मानने और उसकी शरीयत के अनुसार उसकी उपासना करने पर आधारित होती है- जीवन का एक आवश्यक तत्व है। ताकि उसके द्वारा मनुष्य सारे संसार के पालनहार अल्लाह के लिए अपनी दासता और उपासना को पूरा कर सके, और ताकि दुनिया व आख़िरत में सुख तथा विनाश, कष्ट और दुख से सुरक्षा हासिल कर सके। यह इसलिए भी आवश्यक है, ताकि मनुष्य के अंदर सैद्धांतिक शक्ति परिपूर्ण हो सके, क्योंकि केवल इसी के द्वारा बुद्धि अपनी भूख मिटा सकती है। इसके बिना वह अपनी उच्च आकांक्षाओं को प्राप्त नहीं कर सकता।यह आत्मा को शुद्ध करने और विवेक की शक्ति को परिष्कृत करने के लिए एक आवश्यक तत्व है। क्योंकि महान भावनाओं को धर्म के अंदर एक व्यापक क्षेत्र और न सूखने वाला सोता मिल जाता है, जिसमें वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं।इसी तरह यह इच्छा की शक्ति की पूर्णता के लिए एक जरूरी तत्व है, जो महान प्रेरकों के द्वारा उसका समर्थन करता है और उसे निराशा व मायूसी के कारणों का मुकाबला करने के प्रमुख साधनों से सशस्त्र (हथियारबंद) करता है।इस आधार पर, यदि कुछ लोग यह कहते हैं कि “मनुष्य अपनी प्रकृति से नागरिक है।" तो हमारे लिए यह कहना उचित है कि "मनुष्य अपनी प्रकृति से धार्मिक है [73]। क्योंकि मनुष्य के पास दो प्रकार की शक्तियाँ हैं; एक वैज्ञानिक सैद्धांतिक शक्ति और दूसरी वैज्ञानिक इच्छा शक्ति, और उसकी पूरी खुशी उसकी दोनों वैज्ञानिक और इच्छा शक्ति की पूर्णता पर लंबित है। वैज्ञानिक शक्ति की पूर्णता निम्नलिखित बातों की जानकारी के माध्यम से ही संभव है :1. उस सत्य पूज्य, खालिक़ और राजिक़ की पहचान, जिसने मनुष्य को अनस्तित्व से अस्तित्व प्रदान किया और उसे भरपूर नेमतों से सम्मानित किया।2. अल्लाह के नामों और उसके गुणों की जानकारी, तथा अल्लाह पाक की, उसके लिए अनिवार्य चीजों की और इन नामों के उसके बन्दों पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी।3. अल्लाह तआला तक पहुँचाने वाले मार्ग की जानकारी।4. उन रुकावटों और आपदाओं की जानकारी, जो मनुष्य और इस रास्ते की पहचान के बीच में बाधक बन जाती हैं और उन बड़ी नेमतों की जानकरी जहाँ तक यह रास्ता पहुँचाता है।5. अपनी आत्मा की वास्तविक पहचान, उसकी आवश्यकताओं तथा उसका सुधार करने वाली या उसे खराब करने वाली चीज़ों की जानकारी और उन दोषों और गुणों की जानकारी जो उसके अंदर पाई जाती हैं।इन पाँच बातों की जानकारी के द्वारा मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्ति को पूरा कर सकता है। तथा वैज्ञानिक शक्ति और इच्छा शक्ति उसी समय पूरी हो सकती है, जब बन्दों पर अल्लाह तआला के जो अधिकार हैं, उनका ध्यान रखा जाए, और इख़लास, सच्चाई, शुभचिंतन और अनुसरण के साथ उनकी अदायगी की जाए। फिर, ये दोनों शक्तियाँ उसकी मदद के बगैर पूरी नहीं हो सकतीं। अत:, मनुष्य इस बात पर मजबूर है कि अल्लाह उसको वह सीधा रास्ता दिखाए, जिसकी ओर उसने अपने औलिया का मार्गदर्शन किया है। [74]हमारे यह जान लेने के बाद कि सच्चा धर्म ही आत्मा की विभिन्न शक्तियों के लिए ईश्वरीय मदद है, यह भी जानना चाहिए कि धर्म समाज के लिए सुरक्षा कवच भी है। क्योंकि मानव जीवन, उसके सभी अंगों के बीच आपसी सहयोग के बिना क़ायम नहीं रह सकता, और यह सहयोग एक ऐसी व्यवस्था के द्वारा ही पूरा हो सकता है, जो उनके सम्बन्धों को नियंत्रित करती हो, उनके कर्तव्यों को निर्धारित करती हो और उनके अधिकारों की जमानत देती हो। यह व्यवस्था एक ऐसी सत्ता से बेनियाज़ नहीं हो सकती, जिसके अंदर लेने और रोकने की क्षमता हो, जो आत्मा को उस व्यवस्था का उल्लंघन करने से रोकती हो और उसे उसकी रक्षा करने की रुचि दिलाती हो। दिलों में उसके डर को सुनिश्चित करती हो और उसे उसकी हुर्मतों (वर्जनाओं) के उल्लंघन से रोकती हो। अब प्रश्न उठता है कि वह सत्ता क्या है? तो मैं कहता हूँ : इस धरती के ऊपर कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो व्यवस्था के सम्मान की रक्षा तथा सामाजिक एकता, उसके व्यवस्था की स्थिरता और उसके अंदर आराम एवं शांति के साधनों के तालमेल को सुनिश्चित करने में धार्मिकता या धर्मनिष्ठता की शक्ति की बराबरी कर सके।इसका रहस्य यह है कि मनुष्य अन्य सारे जीवों से इस प्रकार उत्कृष्ट है कि उसकी स्वैच्छिक हरकतों और कार्यों का नियंत्रण एक ऐसी चीज़ के द्वारा हो रहा है, जिसपर कोई कान या आँख नहीं पड़ सकती। बल्कि यह विश्वास संबंधी एक आस्था है, जो आत्मा को पवित्र और अंगों को पाक बनाती है। अत:, मनुष्य हमेशा सही या ग़लत अक़ीदा के द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अब अगर उसका अक़ीदा सही है तो उसकी सारी चीजें सही रहेंगी और अगर वह भ्रष्ट हो गया तो सब कुछ भ्रष्ट हो जाएगा।विश्वास और आस्था ही इन्सान के लिए निरीक्षक हैं और वे -जैसा कि समान्य मानव में देखा जाता है- दो प्रकार के हैं :- प्रतिष्ठा, मानव गरिमा और इसी तरह की अन्य नैतिक मूल्य में विश्वास, जिसके कारणों का उल्लंघन करने से उच्च आत्माओं वाले शर्म महसूस करते हैं, भले ही उन्हें बाहरी परिणामों और शारीरिक दण्डों से मुक्त कर दिया गया हो।- अल्लाह सर्वशक्तिमान पर ईमान और यह कि वह भेदों से अवगत है, वह ढकी और छिपी चीजों को जानता है, शरीयत उसके आदेश और निषेध से सत्ता और शक्ति प्राप्त करती है, भावनाएँ उससे प्यार या भय के तौर पर, या एक साथ दोनों के कारण, उसके शर्म से भड़कती हैं . . . इसमें कोई शक नहीं है कि ईमान की यह किस्म दोनों किस्मों में इन्सानी नफ्स (मानव आत्मा) पर सबसे मज़बूत अधिकार रखती है, इच्छाओं के तूफ़ान और भावनाओं के उतार-चढ़ाव का सबसे सख्त मुकाबला करने वाली और हर आम व खास के दिलों पर सबसे तेज़ असर करने वाली है।इसी वजह से धर्म, न्याय और इन्साफ़ के नियमों पर लोगों के बीच व्यवहार कायम करने के लिए सबसे अच्छी गारंटी है, और इसीलिए इसकी एक सामाजिक आवश्यकता है। अत: इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि धर्म को उम्मत में वही स्थान प्राप्त है, जो मानव शरीर में दिल को प्राप्त है [75]।चूँकि आम तौर पर धर्म को यह स्थान प्राप्त है, इसलिए आज की दुनिया में धर्मों की बहुलता का मुशाहदा किया जाता है, तथा आप प्रत्येक कौम को अपने धर्म पर खुश, और उसपर मज़बूती के साथ कार्यरत पाते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि वह सच्चा धर्म क्या है, जो मानवता के लिए उसकी आकांक्षाओं को परिपूर्ण कर सकता है? तथा सत्य धर्म का मापदंड एवं कसौटी क्या है? सच्चे धर्म का मापदंडहर मिल्लत का अनुयायी यही अक़ीदा रखता है कि उसकी मिल्लत ही सच्ची है और हर धर्म के मानने वाले यही आस्था रखते हैं कि उनका धर्म ही सब से आदर्श धर्म और सबसे सीधा रास्ता है। जब आप परिवर्तित धर्मों के मानने वालों या मानव द्वारा बना लिए गए धर्मों के मानने वालों से उनकी आस्था का सबूत माँगते हैं, तो वे यह तर्क देते हैं कि उन्होंने अपने बाप-दादा को एक रास्ते पर पाया है और वे उसी रास्ते का अनुसरण कर रहे हैं। फिर वे ऐसी कहानियाँ और बातें सुनाएँगे जिनकी कोई सही सनद नहीं और स्वयं वह कहानियाँ और बातें भी माननेयोग्य नहीं हैं। वे विरासत में मिली पुस्तकों पर भरोसा करते हैं, जिनका कहने वाला और उनका लिखने वाला अज्ञात है। न यह पता है कि वह पहली बार किस भाषा में लिखी गई और न यह मालूम कि किस देश में पाई गई? वह तो केवल मिश्रित और मनगढंत बातें हैं, जिन्हें इकट्ठा कर दिया गया और उनका सम्मान किया जाने लगा। फिर एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी में उनकी विरासत चलने लगी और उनकी कोई वैज्ञानिक जाँच नहीं की गई, जो सनद और मतन को परखकर उन्हें खामियों और त्रुटियों से पाक कर दे।ये अज्ञात पुस्तकें, कहानियाँ और अंधी तक़लीद, धर्मों और मान्यताओं के अध्याय में सबूत और प्रमाण नहीं बन सकतीं, तो क्या ये सभी बदले हुए धर्म और मानव निर्मित पंथ सही हैं या गलत?यह असंभव है कि सारे धर्म हक़ पर हों, क्योंकि हक़ केवल एक है, वह अनेक नहीं हो सकता। यह भी असंभव है कि ये सारे परिवर्तित धर्म और मानव द्वारा बना लिए गए पंथ अल्लाह की ओर से हों और सच्चे हों। जब ये अनेक हैं और सच्चा धर्म केवल एक है, तो प्रश्न उठता है कि इनमें से सच्चा धर्म कौन-सा है? इसलिए ऐसे मापदंडों और कसौटियों का होना आवश्यक है, जिनके द्वारा हम सच्चे धर्म को झूठे धर्म से पहचान सकें। अगर हमने इन मापदंडों को किसी धर्म पर फिट पाया, तो हमें पता चल जाएगा कि वह सच्चा धर्म है और अगर ये मापदंड या इनमें से कोई एक किसी धर्म में नहीं पाया गया, तो हम जान लेंगे कि वह धर्म झूठा है।वह मापदंड और कसौटियाँ, जिनके द्वारा हम सच्चे धर्म और झूठे धर्म के बीच अन्तर कर सकते हैं, निम्नलिखित हैं :पहला मापदंड : वह धर्म अल्लाह की ओर से हो, जिसे उसने अपने फ़रिश्तों में से किसी फ़रिश्ते के माध्यम से अपने रसूलों में से किसी रसूल पर उतारा हो, ताकि वह उसे उसके बन्दों तक पहुँचा दे। क्योंकि सच्चा धर्म ही अल्लाह का धर्म है और अल्लाह तआला ही प्रलय के दिन लोगों का उस धर्म पर हिसाब लेगा, जिसे उसने उनकी ओर उतारा है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : निःसन्देह हमने आपकी ओर उसी प्रकार वह्य की है, जैसे कि नूह और उनके बाद के नबियों की ओर वह्य की और इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक़, याक़ूब, और उनकी औलादों पर, तथा ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान की तरफ (वह्य की) और हमने दाऊद को ज़बूर प्रदान किया।" [76] एक अन्य स्थान पर फ़रमाया : "और हमने आपसे पहले जो भी रसूल भेजे उनकी ओर वह्य भेजी कि मेरे अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं, तो तुम सब मेरी ही इबादत करो।" [77] इस आधार पर, कोई भी धर्म, जिसे कोई व्यक्ति लेकर आए और उसको खुद से जोड़े, अल्लाह से नहीं, तो वह अवश्य ही झूठा धर्म है।दूसरा मापदंड : वह धर्म केवल अल्लाह की इबादत करने, शिर्क को हराम ठहराने और शिर्क तक पहुँचाने वाले साधनों और रास्तों को हराम ठहराने का आह्वान करता हो। क्योंकि तौहीद (एकेश्वरवाद) की ओर बुलाना ही सभी नबियों और रसूलों की दावत की बुनियाद है, और हर नबी ने अपनी कौम से कहा है : "तुम सब अल्लाह की इबादत करो। तुम्हारा उसके अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं है।" [78] इस बुनियाद पर कोई भी धर्म जो शिर्क पर आधारित है और अल्लाह के साथ उसके अलावा किसी दूसरे को, चाहे वह नबी, फ़रिश्ता या कोई वली ही को क्यों न हो, साझेदार बनाता है, वह असत्य धर्म है । भले ही उसके अनुयायी किसी नबी की ओर निसबत क्यों न रखते हों।तीसरा मापदंड : वह उन उसूलों के साथ सहमत हो, जिनकी ओर पैगंबरों ने बुलाया है। जैसे- केवल एक अल्लाह की इबादत करना, उसके मार्ग की ओर बुलाना, शिर्क तथा माता-पिता की नाफ़रमानी और बिना अधिकार के किसी की हत्या को हराम ठहराना तथा खुली व छिपी हर प्रकार की बेहयाई को हराम करना आदि। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "और हमने आपसे पहले जो भी रसूल भेजे, उनकी ओर यही वह्य भेजी कि मेरे अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं है। अतः, तो तुम सब मेरी ही इबादत करो।" [79] एक दूसरे स्थान पर फ़रमाया : "आप कह दीजिए आओ, मैं तुमको बताता हूँ जो तुम्हारे रब ने तुमपर हराम कर रखा है कि तुम उसके साथ किसी को साझेदार न बनाओ। अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो तथा अपने बच्चों को गरीबी के डर से कत्ल न करो। तुमको और उनको भी हम ही रोज़ी देते हैं। और खुली या छिपी बेहयाई के पास भी न जाओ। और बगैर हक़ के उस जान को न कत्ल करो, जिसको अल्लाह ने हराम कर दिया है। इन बातों की वह तुम्हें वसीयत कर रहा है, ताकि तुम समझ सको।" [80] एक अन्य स्थान में उसने कहा है : "और आप प्रश्न कीजिए उन रसूलों से, जिन्हें हमने आपसे पूर्व भेजा है कि क्या हमने रहमान के अलावा भी बहुत-से पूज्य बनाए थे, जिनकी वे इबादत करते थे?" [81]चौथा मापदंड : उसका एक हिस्सा दूसरे हिस्से के विपरीत और विरुद्ध न हो । चुनाँचे ऐसा न हो कि एक जगह किसी बात का हुक्म दे फिर एक दूसरे आदेश के द्वारा उसके विपरीत हुक्म दे । न ऐसा हो कि किसी चीज़ को हराम ठहरा दे फिर उसी तरह की चीज़ को बिना किसी कारण के जायेज़ कर दे , तथा ऐसा भी न हो कि किसी चीज़ को एक समूह के लिए हराम या जायेज़ कर दे फिर दूसरे समूह पर उसे हराम कर दे । अल्लाह तआला ने फ़रमाया : "क्या वे क़ुरआन पर विचार नहीं करते? यदि क़ुरआन अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो वे उसमें बहुत अधिक मतभेद और विरोधाभास पाते।" [82]पाँचवा मापदंड : वह धर्म लोगों के लिए उनके धर्म, सम्मान, धन, जान और संतान की रक्षा को सुनिश्चित करने वाला हो। इस प्रकार कि वह ऐसे आदेश व निषेध, मनाही और नैतिकता निर्धारित करे, जो इन पाँच व्यापक तत्वों की हिफ़ाज़त कर सकें।छठा मापदंड : वह धर्म लोगों के लिए उनके स्वयं अपने ऊपर अत्याचार तथा उनके एक-दूसरे पर अत्याचार से रोकने का काम करता हो, चाहे यह अत्याचार अधिकारों का उल्लंघन करके हो या लाभ और सुविधाओं पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा के द्वारा हो या बड़ों के छोटों को गुमराह करके। अल्लाह तआला ने उस दया व रहमत के बारे में खबर देते हुए, जिसे मूसा عليه السلام पर अवतरित तौरात ने सुनिश्चित किया था, फ़रमाया : "और जब मूसा का गुस्सा ठंडा हुआ, तो तख्तियों को उठा लिया और उनके लिखे आदेशों में मार्गदर्शन तथा दया थी उन लोगों के लिए जो अपने पालनहार ही से डरते हैं।" [83] तथा ईसा अलैहिस्सलाम को संदेष्टा बनाकर भेजे जाने के बारे में सूचना देते हुए फ़रमाया है : "और ताकि हम उसे लोगों के लिए निशानी बना दें और रहमत भी।" [84] जबकि सालेह عليه وسلم के बारे में फ़रमाया है : “उन्होंने कहा : ऐ मेरी कौम, ज़रा बताओं तो अगर मैं अपने रब की ओर से किसी मज़बूत दलील पर हुआ और उसने मुझे अपने पास की रहमत अता की हो?" [85] इसी तरह क़ुरआन के बारे में फ़रमाया है : “यह कुरआन जो हम उतार रहे हैं, मोमिनों के लिए तो सरासर शिफ़ा और रहमत है।" [86]सातवाँ मापदंड : वह धर्म अल्लाह की शरीयत की तरफ मार्गदर्शन करने, मनुष्य को इस बात से अवगत कराने कि अल्लाह उससे क्या चाहता है और उसे इस बात से सूचित करने पर आधारित हो कि वह कहाँ से आया है और उसे कहाँ जाना है? तौरात के बारे में सूचना देते हुए फ़रमाया है : "बेशक हमने तौरात उतारी, जिसमें हिदायत और रौशनी है . . . ।" [87] इंजील के बारे में फ़रमाया है : "और हमने उनको इंजील दी, जिसमें हिदायत और नूर है।" [88] इसी तरह कुरआन करीम के बारे में फ़रमाया है : "वही अल्लाह है, जिसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चा धर्म देकर भेजा।" [89] सच्चा धर्म वही है, जो अल्लाह की शरीयत की ओर मार्गदर्शन पर आधारित हो और मन को सुरक्षा व शांति प्रदान करता हो। इस प्रकार कि वह उससे हर बुरे ख़याल को दूर करे, उसके हर प्रश्न का उत्तर दे और हर समस्या का निराकरण करे।आठवाँ मापदंड : वह अच्छे चरित्र व नैतिकता और अच्छे कृत्यों जैसे- सच्चाई, न्याय, ईमानदारी, हया, पवित्रता और उदारता की ओर आमंत्रित करे तथा अनैतिकता और बुरे कृत्यों जैसे- माता-पिता की नाफरमानी और हत्या से मनाही करे तथा व्यभिचार, झूठ, अत्याचार, आक्रमकता, कंजूसी और पाप को हराम ठहराए।नौवाँ मापदंड : वह उसमें विश्वास रखने वालों को खुशी व सौभाग्य प्रदान करे। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "ता हा, हमने आपपर कुरआन इसलिए नहीं उतारा कि आप मुसीबत में पड़ जाएँ।" [90] इसी तरह वह शुद्ध प्रकृति के अनुरूप हो। क़ुरआन कहता है : "यह अल्लाह की फितरत है, जिसपर उसने लोगों को पैदा किया है।" [91] साथ ही सही मानव विवेक से सहमति रखता हो, क्योंकि सच्चा धर्म अल्लाह का नियम है और सही विवेक अल्लाह की रचना है, और यह असंभव है कि अल्लाह के नियम और उसकी रचना के बीच विरोधाभास पाया जाए।दसवाँ मापदंड : वह सच्चाई की राह बताए और झूठ से सावधान करे, हिदायत की ओर ले जाए और गुमराही से घृणा पैदा करे और लोगों को ऐसे सीधे मार्ग की ओर बुलाए जिसमें कोई टेढ़ापन न हो। अल्लाह तआला ने जिन्नों के बारे में खबर देते हुए फ़रमाया है कि जब उन्होंने कुरआन को सुना, तो उन्होंने आपस में एक-दूसरे से कहा : "उन्होंने कहा : ऐ हमारी कौम के लोगो! हमने एक ऐसी किताब सुनी, जो मूसा के बाद उतारी गई है, जो अपने से पहले की किताबों की तसदीक़ (पुष्टि) करती है, सत्य और सीधे मार्ग की ओर रहनुमाई करती है।" [92] वह ऐसी चीज़ की ओर न बुलाए, जिसमें उनका दुर्भाग्य हो। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "ता हा, हमने आपपर कुरआन इसलिए नहीं उतारा कि आप मुसीबत में पड़ जाएँ।" [93] और न ही वह लोगों को ऐसी बातों का आदेश दे, जिसमें उनकी बर्बादी और विनाश हो। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : “और तुम अपने आप को क़त्ल न करो, बेशक अल्लाह तुमपर दया करने वाला है।" [94] वह अपने मानने वालों के बीच लिंग, रंग या गोत्र के आधार पर भेदभाव ने करतो हो। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "ऐ लोगो, बेशक हमने तुम सबको एक पुरुष और एक महिला से पैदा किया, और तुमको कई खानदान और कबीलों में बाँट दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। नि:संदेह अल्लाह के पास तुममें से सबसे सम्मानित वह है, जो तुममें सबसे अधिक अल्लाह से डरने वाला (परहेज़गार) है। बेशक अल्लाह जानने वाला ख़बर रखने वाला है।" [95] इससे पता चला कि सच्चे धर्म (इस्लाम) में एक-दूसरे पर फजीलत और प्रतिष्ठा का मापदंड केवल अल्लाह का तक़वा (ईशभय) है।जब हमने उन कसौटियों का अध्ययन कर लिया, जिनके द्वारा हम सत्य एवं असत्य धर्मों के बीच अंतर कर सकते हैं और इसके लिए हमने कुरआन करीम की उन आयतों को प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किया, जो यह बताती हैं कि ये कसौटियाँ उन सारे सच्चे रसूलों के बीच सर्वमान्य रही हैं, जो अल्लाह की ओर से भेजे गए थे, तो अब हमारे लिए उपयुक्त होगा कि हम धर्मों की क़िस्मों का अध्ययन करें। धर्मों के प्रकारमानव जाति के उसके धर्मों के हिसाब से दो प्रकार हैं :एक प्रकार के लोग वह हैं, जिनके ओर अल्लाह की ओर से किताब उतारी गई, जैसे- यहूदी, ईसाई और मुसलमान। यहूदियों और ईसाइयों के पास जो किताबें उतारी गई थीं, उनके उसपर अमल न करने के कारण तथा अल्लाह को छोड़कर मानव को अपना रब बना लेने के कारण, और एक लंबी अवधि गुज़र जाने के कारण . . . उनकी वह किताबें नष्ट हो गईं, जिन्हें अल्लाह ने उनके पैगंबरों पर उतारा था। ऐसे में उनके धार्मिक विद्वानों ने उनके लिए कुछ किताबें लिख डालीं, जिनके बारे में उन्होंने दावा किया कि वे अल्लाह की ओर से उतारी गई किताबें हैं। हालाँकि वे अल्लाह की किताबें नहीं, बल्कि वे तो केवल झूठे लोगों की मनगढंत बातें और अतिवादियों के द्वारा धार्मिक किताबों के साथ की गई छेड़छाड़ का नतीजा हैं।लेकिन जहाँ तक मुसलमानों की किताब (पवित्र कुरआन) की बात है, तो वह अल्लाह की अंतिम और सबसे सुरक्षित किताब है, जिसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी स्वयं अल्लाह ने ली है और उसने इस कार्य को मनुष्य के हवाले नहीं किया है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "बेशक हमने ही कुरआन को उतारा है और हम ही उसकी हिफ़ाज़त करने वाले हैं।" [96] अत: वह सीनों में और पुस्तकों में सुरक्षित है। क्योंकि वह अन्तिम किताब है, जिसमें अल्लाह ने इस मानवता के लिए मार्गदर्शन निहित किया है, उसे प्रलय के दिन तक लोगों के ऊपर हुज्जत (तर्क) बनाया है, उसे सदैव रहने वाली किताब बनाया है तथा उसके लिए हर जमाने में ऐसे लोग मुहैया कर दिए हैं, जो उसके आदेशों तथा फ़रमानों को लागू करते हैं, उसकी शरीयत (धर्मविधान) पर अमल करते हैं और उसपर ईमान रखते हैं। इस महान किताब के बारे में अधिक विस्तार अगले अनुभाग में आएगा[97]।मानव समाज का दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का वर्ग है, जिनके पास अल्लाह की ओर से कोई अवतरित किताब नहीं है, भले ही उनके पास विरासत में चली आ रही कोई किताब हो, जो उनके धर्म के संस्थापक की तरफ मंसूब हो। जैसे- हिन्दू, पारसी, बुद्ध धर्म के मानने वाले और कन्फयूशी लोग और जैसे कि मुहम्मद صلى الله عليه وسلم के नबी बनाए जाने से पहले के अरब लोग।हर समुदाय के पास कुछ न कुछ ज्ञान और कार्य होता है, जिसके हिसाब से उसके दुनिया के हित कायम रहते हैं। यही वह सामान्य मार्गदर्शन है, जो अल्लाह ने हर इन्सान, बल्कि हर जानवर को प्रदान किया है। जैसे कि अल्लाह तआला जानवर को यह मार्गदर्शन करता है कि वह उस खाने और पानी को प्राप्त करे, जो उसके लिए लाभदायक है और उस चीज़ से दूर रहे, जो उसके लिए हानिकारक हो। अल्लाह ने उसके अंदर लाभदायक चीज़ से प्यार और हानिकारक चीज़ से घृणा पैदा कर दी है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "अपने सर्वोच्च रब के नाम की पाकी बयान कर। जिसने पैदा किया और सही व स्वस्थ बनाया। और जिसने अनुमान लगाकर निर्धारित किया, फिर मार्ग दिखाया।" [98] और मूसा عليه السلام ने फ़िरऔन से कहा : "हमारा रब वह है, जिसने हर एक को उसका विशेष रूप दिया, फिर मार्गदर्शन किया।" [99] जबकि इब्राहीम عليه السلام ने कहा : “जिसने मुझे पैदा किया और वही मेरा मार्गदर्शन करता है।" [100] हर बुद्धिमान -जो थोड़ी-सी भी समझ और सोच रखता है- इस बात को अच्छी तरह जानता है कि धर्मों के मानने वाले अच्छे कर्मों और लाभदायक ज्ञान में उन लोगों से अधिक सम्पूर्ण हैं, जो धर्मों के अनुयायी नहीं हैं। इसी तरह धर्मों वालों में से गैर-मुस्लिमों के पास जो भी अच्छाई पाई जाती है, वह मुसलमानों के पास उससे अधिक संपूर्ण रूप पाई जाती है। साथ ही जो चीज़ धर्मों वालों के पास है वह दूसरों के पास नहीं है। क्योंकि कार्य और ज्ञान दो प्रकार के होते हैं :पहला प्रकार : वह ज्ञान, जो बुद्धि के द्वारा प्राप्त होता है। जैसे- गणित और चिकित्सा तथा उद्योग विज्ञान। ये सारी चीजें विभिन्न धर्मों को मानने वालों के पास वैसे ही हैं, जैसे दूसरों के पास हैं, बल्कि वे लोग इन चीजों का सबसे मुकम्मल ज्ञान रखते हैं। लेकिन जिन चीज़ों का ज्ञान सिर्फ बुद्धि के द्वारा प्राप्त नहीं होता, जैसे अल्लाह के बारे में ज्ञान और धर्मों का ज्ञान, तो इन सारी चीजों का ज्ञान विशेष रूप से केवल धर्म वालों के पास होता है और इनमें से कुछ चीजें ऐसी भी हैं, जिनपर अक्ली दलीलें कायम की जा सकती हैं। पैगंबरों ने उनपर बुद्धियों के तर्क की ओर लोगों की रहनुमाई की है। इस प्रकार यह अक्ली और शरई ज्ञान है।दूसरा प्रकार : वह ज्ञान जो केवल पैगंबरों की सूचना के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसे अक्ल (बुद्धि) के माध्यम से प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं है। जैसे कि अल्लाह, उसके नामों और गुणों के बारे में तथा अल्लाह की आज्ञा का पालन करने वालों के लिए आख़िरत में जो इनाम और उसकी नाफरमानी करने वालों के लिए जो सज़ा है, उसके बारे में सूचना, अल्लाह की शरीयत का वर्णन, पिछले रसूलों का उनके समुदायों के साथ मामला वगैरह के बारे में सूचना। [101] वर्तमान धर्मों की स्थितिदुनिया के बड़े धर्म, उनकी प्राचीन किताबें और धर्मविधान उनके साथ खिलवाड़ करने वाले लोगों का शिकार हो गए, छेड़छाड़ करने वालों और पाखंडियों के हाथ का खिलौना बन गए तथा रक्तमय घटनाओं एवं बड़ी-बड़ी आपदाओं का शिकार हो गए, जिससे उनकी मूल आत्मा और असल रंग रूप इस तरह ग़ायब हो गए कि अगर उन किताबों के पहले अनुयायियों और उन्हें लाने वाले रसूलों को दोबारा जिन्दा कर दिया जाए, तो वे इन्हें पहचानने से इनकार कर देंगे।चुनाँचे यहूदी धर्म[102] परम्पराओं और रीति-रिवाजों का एक ऐसा संग्रह बनकर रह गया है, जिसके अंदर न तो आत्मा है और न जान। इसके अलावा, वह एक नस्लीय धर्म है, जो एक विशेष जाति और निर्धारित वर्ग के लिए ही है। उसके पास न तो संसार के लिए कोई संदेश है, न विभिन्न समुदायों के लिए कोई बुलावा और न ही मानव जाति के लिए कोई दया।इस धर्म का असल अक़ीदा ही नष्ट हो गया, जो विभिन्न धर्मों तथा समुदायों की बीच उसकी अलग पहचान बनाता था और जो उसकी प्रतिष्ठा का राज़ हुआ करता था। यानी वह तौहीद का अक़ीदा, जिसकी वसीयत इबराहीम तथा याक़ूब अलैहिमस्सलाम ने अपने बेटों को की थी। यहूदियों ने उन भ्रष्ट समुदायों के बहुत सारे अक़ीदे अपना लिए, जो उनके आस-पास आबाद थे या जिनके सत्ता अधीन वे रह चुके थे। उन्होंने उनके बहुत सारे मूर्तिपूजा और मूर्खता पर आधारित रस्मों और परंपराओं को भी अपना लिया। न्यायप्रिय यहूदी इतिहासकारों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। “यहूदी विश्वकोष" में इस संबंध में जो कुछ लिखा गया है, अर्थ है :"मूर्तियों की पूजा पर नबियों का क्रोध इस बात को इंगित करता है कि कि मूर्तियों और देवताओं की पूजा इस्राइलियों के दिलों में सरायत कर चकी थी और उन्होंने बहुदेववादी और अंधविश्वासी विश्वासों को स्वीकार कर लिया था। तल्मूद भी इस बात की गवाही देता है कि बुतपरस्ती में यहूदियों का विशेष आकर्षण था[103]।बाबिली तल्मूद[104] -जिसका यहूदी लोग बड़ा सम्मान करते हैं, बल्कि कभी-कभी तो उसे तौरात पर भी तरजीह देते हैं और जो छठी शताब्दी में यहूदियों के बीच प्रचलित था तथा जिसमें कम-अक्ली तथा बेवकूफों वाली बातों, अल्लाह तआला पर दुस्साहस, तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और धर्म तथा बुद्धि के साथ खिलवाड़ के अनोखे उदाहरण भरे पड़े हैं- इस बात को इंगित करता है कि इस शताब्दी में यहूदी समाज मानसिक पतन तथा धार्मिक बिगाड़ के किस स्तर तक पहुँच गया था। [105]जहाँ तक ईसाई धर्म [106] की बात है, तो वह अपने प्रारंभिक युग से ही अतिशयोक्ति करने वालों की छेड़छाड़, अज्ञानियों की कुव्याख्या और ईसाई धर्म अपनाने वाले रूमानियों[107] की बुतपरस्ती से पीड़ित रही है। इन ख़ुराफ़ातों का इतना बड़ा ढेर एकत्र हो गया कि उसके नीचे ईसा की महान शिक्षाएँ दफन हो गईं और तौहीद तथा एकमात्र अल्लाह की पूजा की रौशनी इन घने बादलों के पीछे छिपकर रह गई।एक ईसाई लेखक चौथी शताब्दी ईसवी के अन्तिम दिनों से ही ईसाई समाज में त्रिदेव के अकीदे के प्रवेश करने के बारे में चर्चा करते हुए कहता है :“चौथी शताब्दी के अंतिम चौथाई भाग से ईसाई दुनिया के जीवन और उसके विचारों में यह अक़ीदा प्रवेश कर गया था कि एक पूज्य तीन व्यक्तियों से मिलकर बना है। यह ईसाई जगत के सभी भागों में एक मान्यता प्राप्त सरकारी अकीदा बना रहा। तथा ट्रिनिटी (त्रिदेव) के सिद्धांत के विकास और उसके भेद से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम आधे भाग में ही पर्दा उठा। [108]एक समकालीन ईसाई इतिहासकार (आधुनिक विज्ञान की रौशनी में ईसाई धर्म का इतिहास) नामी किताब में ईसाई समाज में विभिन्न शक्लों और रंगों में मूर्तिपूजा के उदय तथा अंधे अनुसरण या ज़ाती पसंद या अज्ञानता के कारण शिर्क में डूबे धर्मों और समुदायों के बुतपरस्त नायकों, त्योहारों, रस्मों और प्रतीकों को अपनाने में ईसाइयों की विविधता की चर्चा करते हुए कहता है : बुतपरस्ती ख़त्म हो गई, लेकिन वह सम्पूर्ण तरीके से ख़त्म नहीं हुई। बल्कि यह दिलों में बैठ गई और उसमें हर चीज ईसाईयत के नाम पर और उसके पर्दे के पीछे चलती रही। तो जिन लोगों ने अपने पूज्यों और नायकों को छोड़ दिया था और उनसे आज़ाद हो गए थे, उन्होंने अपने शहीदों में से एक शहीद को ले लिया और उसको देवताओं के गुणों पर आधारित उपाधियाँ दे दीं, फिर उसकी एक मूर्ति बना ली। इस प्रकार यह शिर्क और मूर्तियों की पूजा इन स्थानीय शहीदों में स्थानांतरित हो गई। इस शताब्दी का अंत भी नहीं हुआ कि उनके बीच शहीदों और संतों की पूजा आम हो गई और एक नई मान्यता का गठन हुआ कि संतो के पास दिव्य गुण हैं, और ये संत और पवित्र पुरुष अल्लाह और मानव के बीच के मध्यस्थ बन गए। बुतपरस्त त्योहारों के नाम बदलकर नया नाम रख लिए गए, यहाँ तक कि सन 400 ईस्वी में पुराने सूर्य त्योहार को ईसा मसीह के जन्म दिन के त्योहार (क्रिसमस) में बदल दिया गया। [109]पारसी लोग पुराने ज़माने से ही प्राकृतिक चीजों की पूजा करने से जाने जाते हैं, जिनमें सबसे बड़ी चीज आग है। अंत में वे आग ही की पूजा करने लगे, जिसके लिए वे ढाँचे और पूजा स्थल बनाते हैं। इस प्रकार आग के घर पूरे देश में फैल गए, और सूरज का सम्मान तथा आग की पूजा के अलावा सारे धर्म और अकीदे मिट गए। उनके यहाँ धर्म कुछ परम्पराओं और रस्मों का नाम होकर रह गया, जिन्हें वे विशेष जगहों पर अंजाम देते हैं।'' [110]"ईरान फ़ी अह्द अस-सासानिय्यीन" का डेनमार्की लेखक "आर्थर क्रिस्तन सेन" धार्मिक नेताओं के वर्ग और उनके कार्यों का वर्णन करते हुए कहता है :"इन पदाधिकारियों पर दिन में चार बार सूरज की पूजा करना ज़रूरी था। इसके अलावा, उनके लिए चन्द्रमा, आग और पानी की पूजा भी करना जरूरी था। उन्हें आदेश दिया गया था कि वे आग को बुझने न दें, पानी और आग को एक-दूसरे से मिलने न दें तथा धातु को जंग न लगने दें, क्योंकि धातु उनके यहाँ पवित्र माना जाता है। [111]वे हर युग में दो खुदा मानते थे और यही उनकी पहचान बन गई। वे दो पूज्यों पर ईमान रखते थे। उनमें से एक रोशनी या अच्छाई का देवता था, जिसका जिसे वे “अहुरा मज्दा'' या “यज़दान'' कहते थे और दूसरा पूज्य अंधेरा या बुराई का देवता था, जिसे "अहरमन'' का नाम देते थे। इन दोनों खुदाओं के बीच लगातार युद्ध और संघर्ष जारी है।बौद्ध धर्म -जो कि भारत और मध्य ऐशिया में प्रचलित धर्म है- एक बुतपरस्त धर्म है, जो जहाँ भी जाता है अपने साथ मूर्तियाँ लेकर जाता है और जहाँ भी उतरता और पड़ाव डालता है मंदिरों का निर्माण करता और “बुद्ध'' की मूर्तियाँ लगाता है। [112]ब्राह्मणवाद -एक भारतीय धर्म- एक ऐसा धर्म है, जो देवताओं की अधिकता के लिए प्रसिद्ध है। छठी शताब्दी ईस्वी में मूर्ति पूजा अपनी चरम सीमा पर थी। चुनाँचे इस शताब्दी में देवताओं की संख्या 330 मिलियन तक पहुँच गई थी। [113] हर अच्छी चीज, हर भयानक चीज़ तथा हर लाभदायक चीज़ पूजा के योग्य देवता बन गई थी। इस युग में मूर्तिकला का उद्योग बहुत बढ़ गया था, जिसमें कलाकार अपनी कलाकारी दिखाते थे।हिन्दू लेखक सी. वी. वेद अपनी किताब "मध्यकालीन भारत का इतिहास'' में राजा हर्षवर्धन के शासनकाल (606-648 ई.) के बारे में, जो कि अरब प्रायद्वीप में इस्लाम के उदय के बाद का युग है, बात करते हुए कहता है :हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों एक ही समान बुतपरस्त धर्म थे, बल्कि बौद्ध धर्म बुतों की पूजा में लिप्त होने में हिन्दू धर्म से आगे .बढ़ गया था। शुरू-शुरू में बौद्ध धर्म पूज्य का इन्कार करता था। लेकिन धीरे-धीरे उसने “बुद्ध'' को सबसे बड़ा पूज्य बना लिया। फिर उसने उसके साथ (Budhistavas) जैसे दूसरे पूज्यों को भी मिला लिया। भारत में मूर्तिपूजा चरम पर पहुँच गई थी। यहाँ तक कि “बुद्ध'' (Buddha) का शब्द कुछ पूर्वी भाषाओं में “बुत'' या “मूर्ति'' के शब्द का पर्यायवाची बन गया था।इसमें कोई शक नहीं कि बुतपरस्ती सारी समकालीन दुनिया में फैली हुई थी। चुनाँचे अटलांटिक समुद्र से प्रशांत महासागर तक पूरी दुनिया मूर्तिपूजा में डूबी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि ईसाई धर्म, सामी धर्म तथा बौद्ध धर्म मूर्तियों का सम्मान करने में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे तथा वे दौड़ के घोड़ों के समान थे, जो एक ही मैदाने में दौड़ रहे थे। [114]एक दूसरा भारतीय लेखक अपनी किताब में, जिसका नाम उसने “अल-हिन्दुकीया अस-साइदा'' (प्रचलित हिन्दू धर्म) रखा है, कहता है : “ देवताओं को बनाने की प्रक्रिया इसपर समाप्त नहीं हुई। बल्कि लगातार विभिन्न ऐतिहासिक युगों में छोटे-छोट देवता भारी संख्या में इस “दिव्य समूह'' मे शामिल हो रहे, यहाँ तक उनकी एक असंख्य और बेशुमार भीड़ बन गई। [115]यह रही बात धर्मों की स्थिति की। लेकिन, जहाँ तक सभ्य देशों का संबंध है, जहाँ विशाल साम्राज्य स्थापित हुए, ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ और जो संस्कृति, उद्योग तथा कला का केंद्र भी बने, तो ये ऐसे देश थे, जिनमें धर्मों का रूप बिगाड़ दिया गया था। वहाँ धर्म ने अपनी मौलिकता और शुद्धता खो दी थी, सुधारक नहीं रह गए थे तथा शिक्षक लुप्त हो चुके थे। अतः, वहाँ खुलेआम नास्तिकता का प्रदर्शन होता था और भ्रष्टाचार बढ़ गया था, मानकों (कसौटियों) को बदल दिया गया था और इन्सान स्वयं अपने आपपर हीन बन गया था। इसी कारण आत्महत्या बढ़ गई थी, पारिवारिक सम्बन्ध बिखर गए थे, सामाजिक सम्बन्ध टूट चुके थे, मनोचिकित्सकों की क्लीनिक रोगियों से भर गई थी, उनके अन्दर शोबदाबाज़ों का बाज़ार गरम हो गया था, उनमें इन्सान ने हर प्रकार के मनोरंजन का स्वाद लिया और हर नई रीति का अनुसरण किया . . . यह सब कुछ अपनी आत्मा की प्यास बुझाने, अपने मन को खुशी और अपने दिल को शांति पहुँचाने के लिए किया गया था। लेकिन ये मनोरंजन व आनंद, पंथ और दृष्टिकोण उसके लक्ष्यों को पूरा करने में नाकाम रहे। सच्चाई यह है कि वह उस समय तक इस मानसिक दुर्दशा एवं आध्यात्मिक यातना का शिकार रहेगा, जब तक अपने स्रष्टा से संबंध न जोड़ ले और उसकी उस तरीके के अनुसार पूजा न करे, जिसे उसने अपने लिए पसंद कर लिया है और जिसका उसने अपने रसूलों को आदेश दिया है। अल्लाह ने उस व्यक्ति की हालत को स्पष्ट करते हुए, जिसने अपने पालनहार से से मुँह फेर लिया और उसके अलावा से मार्गदर्शन तलब किया, फ़रमाया है : "और (हाँ) जो मेरी याद से मुँह फेरेगा, उसकी ज़िन्दगी तंगी में रहेगी और हम उसको क़यामत (प्रलय) के दिन अंधा करके उठाएँगें।" [116] तथा उसने इस जीवन में मोमिनों की शांति और सुख के बारे में बताते हुए ने फ़रमाया है : "जो लोग ईमान रखते हैं और अपने ईमान को शिर्क से मिलाते नहीं, ऐसे ही लोगों के लिए शान्ति है और वही सीधे रास्ते पर चल रहे हैं।" [117] एक अन्य स्थान में फ़रमाया है : "और जो लोग सौभाग्यशाली बनाए गए, वे जन्नत में होंगे, जहाँ वे हमेशा रहेंगे जब तक आसमान व ज़मीन बाकी रहेंगे, मगर जो तुम्हारा रब चाहे, यह न खत्म होने वाली बख्शिश है।" [118]अगर हम -इस्लाम को छोड़कर- इन धर्मों पर धर्म की उन कसौटियों को लागू करें, जिनका पीछे उल्लेख हो चुका है, तो हम पाएँगे कि उन तत्वों में से अक्सर चीजें नहीं पाई जाती हैं, जैसा कि उनके बारे में इस संक्षिप्त प्रस्तुति से जाहिर है।सबसे बड़ी कमी जो इन धर्मों में पाई जाती है, वह इनका तौहीद यानी एकेश्वरवाद से वंचित हो जाना है। इनके मानने वालों ने अल्लाह के साथ दूसरे पूज्यों को साझीदार बना लिया। इसी तरह ये परिवर्तित धर्म लोगों के लिए कोई ऐसा धर्मशास्त्र प्रस्तुत नहीं करते, जो हर समय और स्थान के लिए उचित हो; लोगों के धर्म, सम्मान, संतान, और जान व माल की रक्षा कर सके; उन्हें अल्लाह की उस शरीयत की ओर मार्गदर्शन कर सकें जिसका अल्लाह ने आदेश दिया है और अपने अनुयायियों को मन की शान्ति और खुशी प्रदान कर सकें, क्योंकि स्वयं उनके अन्दर बहुत-से टकराव और विरोधाभास पाए जाते हैं।जहाँ तक इस्लाम धर्म का संबंध है, तो आने वाले अध्यायों में वह बातें आएँगी, जो यह स्पष्ट करेंगी कि वही अल्लाह का सदैव रहने वाला सच्चा धर्म है, जिसे अल्लाह ने अपने लिए पसंद किया है और मानव जाति लिए चुन लिया है।इस वाक्य योजना के अन्त में मुनासिब मालूम होता है कि हम नबूवत की हकीकत, उसकी निशानियों और मानवता को उसकी आवश्यकता से सूचित कर दें तथा रसूलों के आह्वान के सिद्धांतों और अनंत एवं अंतिम संदेश की वास्तविकता को स्पष्ट कर दें। नबूवत की वास्तविकताइस जीवन में सबसे बड़ी चीज़, जिसको जानने की मनुष्य को ज़रूरत है, वह अपने उस रब की जानकारी है, जिसने उसे अनस्तित्व से अस्तित्व प्रदान किया और उसपर अपनी व्यापक नेमतें उतारीं। सबसे महान उद्देश्य जिसके लिए अल्लाह तआला ने मनुष्य को पैदा किया, वह एकमात्र उसी सर्वशक्तिमान की उपासना व आराधना है।लेकिन प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य किस प्रकार अपने रब की सही तौर से जानकारी प्राप्त कर सकता है? साथ ही उसके अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं और वह अपने पालनहार की इबादत (आराधना) कैसे करे? वास्तव में मनुष्य को ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो उसकी कठिनाइयों के समय उसकी सहायता करते हैं और उसके हितों का ध्यान रखते हैं। जैसे, बीमारी का इलाज करवाना, उसके लिए दवा का इंतिज़ाम करना, घर का निर्माण करने में उसका सहयोग करना और इसी प्रकार की अन्य चीजें . . . लेकिन उसे ऐसे लोग नहीं मिलते, जो उससे उसके रब का परिचय कराएँ और यह बताएँ कि वह अपने पालनहार की उपासना कैसे करे? क्योंकि इनसानी विवेक स्वतः यह जान नहीं सकता कि अल्लाह उससे क्या चाहता है। क्योंकि मानव विवेक अपने ही समान एक मनुष्य की इच्छा को जानने से भी विवश है, जब तक वह खुद न बता दे। ऐसे में भला वह अल्लाह की इच्छा को कैसे जान सकता है? दरअसल यह कार्य उन पैगंबरों और नबियों का है, जिनको अल्लाह तआला अपना संदेश लोगों तक पहुँचाने के लिए चुन लेता है। फिर पैग़म्बरों के बाद यह जिम्मेदारी उनके पश्चात मार्गदर्शन का कार्य करने वाले लोगों और नबियों के उत्तराधिकारियों की होती है, जो उनके तरीके को सीने से लगाए रहते हैं, उसका अनुसरण करते हैं और उनका संदेश पहुँचाने का काम करते हैं। क्योंकि मनुष्य के लिए संभव नहीं है कि वे सीधे अल्लाह तआला से संदेश प्राप्त कर सकें और वे इसकी शक्ति भी नहीं रखते। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “और नामुम्किन है कि किसी बंदे से अल्लाह (तआला) कलाम करे, लेकिन वह्य के रूप में या पर्दे के पीछे से या किसी फ़रिश्ते को भेजे, और वह अल्लाह के हुक्म से जो वह चाहे वह्य करे। बेशक वह सबसे बड़ा और हिकमत वाला है।" [119] अत: एक संदेशवाहक और दूत का होना आवश्यक है, जो अल्लाह की ओर से उसकी शरीयत को उसके बंदों तक पहुँचाए। इन्हीं संदेशवाहकों और दूतों को रसूल और नबी कहा जाता है। चुनाँचे फ़रिश्ता अल्लाह का पैगाम नबी (ईशदूत) तक पहुँचाता है, फिर ईशदूत उसे लोगों तक पहुँचाता है। स्वयं फ़रिश्ता ही संदेशों को सीधे लोगों तक नहीं पहुँचा देता। क्योंकि फ़रिश्तों की दुनिया अपनी प्रकृति में मुनष्य की दुनिया से विभिन्न है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "फरिश्तों में से और इन्सानों में से संदेशवाहकों को अल्लाह ही चुन लेता है।" [120]अल्लाह तआला की हिकमत इस बात की अपेक्षा करती है कि पैगंबर उन लोगों की जाति से हो जिनकी ओर उसे भेजा गया है, ताकि लोग उन रसूलों की बातें समझ सकें, क्योंकि लोग उनसे बात-चीत और वार्तालाप कर सकते हैं। अगर अल्लाह तआला फ़रिश्तों को रसूल बनाकर भेज देता, तो लोग उनका सामना न कर पाते और न ही उनके संदेश को प्राप्त करने में सक्षम होते [121]। अल्लाह का फ़रमान है : "और उन्होंने कहा कि आपपर कोई फ़रिश्ता क्यों नही उतारा गया? और अगर हम फ़रिश्ता उतार देते, तो विषय का फैसला कर दिया जाता, फिर उन्हें मौका नहीं दिया जाता। और अगर हम रसूल को फ़रिश्ता बनाते, तो उसे मर्द बनाते और उनपर वही शक पैदा कर देते जो शक ये कर रहे हैं।" [122] एक अन्य स्थान में वह कहता है : "और हमने आपसे पहले जितने भी रसूल भेजे, सब के सब खाना भी खाते थे और बाजारों में भी चलते फिरते थे।" आगे फ़रमाया : "और जिन्हें हमसे मिलने की उम्मीद नहीं, उन्होंने कहा कि हमपर फ़रिश्ते क्यों नहीं उतारे जाते या हम (अपनी आँखों से) अपने रब को देख लेते? उन लोगों ने खुद अपने को ही बहुत बड़ा समझ रखा है और बहुत नाफ़रमानी कर ली है।" [123]एक अन्य स्थान में फ़रमाया है : "और आपसे पहले भी हम मर्दों को ही भेजते रहे, जिनकी ओर वह्य (प्रकाशना) उतारा करते थे, अगर तुम नहीं जानते तो विद्वानों से पूछ लो।" [124] एक और जगह कहता है : "और हमने हर नबी (संदेशवाहक) को उसकी कौम (राष्ट्र) की भाषा में ही भेजा है, ताकि उनके सामने स्पष्ट तौर से बयान कर दे।" [125] ये सारे रसूल और नबी बुद्धिमान थे, अच्छे एवं नेक प्रकृति एवं स्वभाव वाले थे, कर्म एवं वचन के सच्चे, जिस चीज़ की उन्हें ज़िम्मेदारी दी गई थी उसके पहुँचाने में ईमानदार थे, मनुष्य के चरित्र और स्वभाव को धूमिल करने वाली चीजों से सुरक्षित थे और उनके शरीर उस चीज़ से पवित्र थे जिससे निगाहें नफ़रत करती हैं और जिससे शुद्ध अभिरुचि घृणा करती है। [126] अल्लाह तआला ने उनके व्यक्तित्व और आचरण को पवित्र और शुद्ध बनाया है। चुनाँचे वे लोगों में सबसे संपूर्ण आचरण वाले, सबसे पाक व साफ आत्मा वाले और सबसे ज़्यादा दानशील थे। अल्लाह तआला ने उनके अन्दर उत्तम आचरण और अच्छे संस्कार जमा कर दिए थे। इसी तरह उनके अन्दर सहनशीलता, ज्ञान, दानशीलता, उदारता, वीरता, न्याय . . . . जैसे गुणों को इकट्ठा कर दिया था, यहाँ तक कि वे इन गुणों और आचरणों में अपनी कौम के अन्य लोगों से काफ़ी आगे थे। यह सालेह अलैहिस्सलाम की कौम के लोग हैं, जो उनसे कहते हैं, जैसाकि अल्लाह तआला ने उनके बारे में बताया है : "उन्होंने कहा : ऐ सालेह! इससे पहले हम तुमसे बहुत ही उम्मीदें लगाए हुए थे। क्या तू हमें उनकी इबादत से रोकता है, जिनकी पूजा (इबादत) हमारे बाप-दादा करते चले आए।'' [127] इसी तरह शुऐब अलैहिस्सलाम की कौम ने उनसे कहा : "क्या तेरी नमाज़ तुझे यही हुक्म देती है कि हम अपने बुजुर्गों के देवताओं को छोड़ दें और हम अपने माल में जो कुछ करना चाहें उसका करना भी छोड़ दें, तू तो बड़ा समझदार और नेक चलन है।" [128] मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम संदेष्टा बनाए जाने से पहले ही अपनी कौम में “अमीन' (विश्वसनीय) की उपाधि से प्रसिद्ध थे और आपके पालनहार ने आपका ज़िक्र इन शब्दों में किया है : "और बेशक आप बहुत अच्छे स्वभाव के मालिक हैं।" [129]इस तरह, ये लोग अल्लाह की मखलूक में सबसे अच्छे और चुनिंदा लोग थे। अल्लाह तआला ने इन लोगों को अपने संदेश का भार उठाने और अपनी अमानत का प्रसार करने के लिए चुन लिया था। अल्लाह का फ़रमान है : "अल्लाह अच्छी तरह जानता है कि वह अपनी रिसालत कहाँ रखे।" [130] एक और जगह कहता है : "बेशक अल्लाह (तआला) ने सभी लोगों में से आदम को और नूह को और इब्राहीम के परिवार और इमरान के परिवार को चुन लिया।" [131]यह रसूल और नबीगण, बावजूद इसके कि अल्लाह ने उनका वर्णन सर्वोच्च गुणों के साथ किया है, और बावजूद इसके कि वे बुलंद गुणों के साथ प्रसिद्ध थे, परन्तु वे मनुष्य ही थे, उन्हें भी उन सारी चीज़ों का सामना होता था जो अन्य सभी लोगों को पेश आती हैं। चुनाँचे उन लोगों को भूख लगती थी, वे बीमार होते थे। वे सोते, खाते, शादी-विवाह करते थे और उनको मौत का सामना भी करना पड़ता था। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "बेशक खुद आपको भी मौत आएगी और यह सब मरने वाले हैं।'' [132] एक और जगह कहता है : "और हम आपसे पहले भी बहुत-से रसूल भेज चुके हैं और हमने उन सब को बीवी और औलाद वाला बनाया था।" [133] बल्कि कभी-कभी तो उत्पीड़न के भी शिकार हुए, मारे से भी तथा घरों से निकाले भी गए। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और आप उस घटना का भी जिक्र कीजिए, जबकि काफिर लोग आपके बारे में साज़िश कर रहे थे कि आपको बंदी बना लें या आपको कत्ल कर दें। वे अपनी साज़िश कर रहे थे और अल्लाह भी योजना बना रहा था। तथा अल्लाह सबसे बेहतर योजना बनाने वाला है।" [134] परन्तु दुनिया व आखिरत में अंततः सुपरिणाम, सहायता और शक्ति उन्हीं का हिस्सा है। जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है : “और जो अल्लाह की मदद करेगा, अल्लाह भी उसकी ज़रूर मदद करेगा।" [135] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है : "अल्लाह लिख चुका है कि बेशक मैं और मेरे रसूल गालिब (विजयी) रहेंगे। बेशक अल्लाह ताक़तवर और ग़ालिब (शक्तिशाली) है।" [136] नबूवत की निशानियाँचूँकि नबूवत सर्वोच्च ज्ञान को प्राप्त करने और सर्वश्रेष्ठ कार्यों को अनजाम देने का एक वसीला और साधन है ; इसलिए पवित्र एवं महान अल्लाह ने अपनी कृपा से अपने नबियों को कुछ निशानियाँ प्रदान की हैं, जो उनके नबी होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं और उनके ज़रिए लोग उनका पता लगाते और उनकी सच्चाई जानते हैं। यह और बात है कि किसी भी मिशन का दावा करने वाले के साथ कुछ ऐसे लक्षण, संकेत और स्थितियाँ लगी होती हैं, जो अगर वह सच्चा है तो उसकी सच्चाई को स्पष्ट कर देती हैं और यदि झूठा है तो उसके झूठ को उजागर कर देती हैं। नबियों को प्राप्त होने वाली निशानियाँ बहुत सारी हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :1- रसूल मात्र एक अल्लाह की इबादत करने और उसके अलावा किसी और की इबादत छोड़ देने की दावत दे। क्योंकि यही वह उद्देश्य है, जिसके कारण अल्लाह ने मनुष्य को पैदा किया है।2- रसूल लोगों को अपने ऊपर ईमान लाने, उसकी पुष्टि करने और उसकी रिसालत (संदेश) पर अमल करने का आमंत्रण दे। अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद صلى الله عليه وسلم को आदेश दिया कि वह कह दें : "ऐ लोगो ! मैं तुम सभी की तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ हूँ।" [137]3- अल्लाह तआला उसे विभिन्न प्रकार की ऐसे दलीलें प्रदान करे, जो उसके नबी होने का सिद्ध करें। इन प्रमाणों में वह चमत्कार भी शामिल हैं, जो नबियों के द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं और उनकी कौमें उनको रद्द करने या उसके समान कोई दूसरा चमत्कार लाने की शक्ति नहीं रखतीं। जैसे मूसा अलैहिस्सलाम को यह निशानी दी गई थी कि उनकी लाठी साँप बन गई। ईसा عليه السلام को यह चमत्कार दिया गया था कि वह अल्लाह की अनुमति से अंधे और कोढ़ी को ठीक कर देते थे । जबकि मुहम्मद صلى الله عليه وسلم का चमत्कार महान कुरआन है। लिखना-पढ़ना न जानने के बावजूद इस तरह का ग्रंथ प्रस्तुत करना निस्संदेह एक करिश्मा है। तक़रीबन सारे नबियों को इस प्रकार के चमत्कार प्रदान किए गए थे।इन प्रमाणों में से एक प्रमाण वह स्पष्ट व प्रत्यक्ष सत्य भी है, जो नबी तथा रसूलगण लेकर आते हैं और उनके विरोधी उनका खण्डन या इनकार कर नहीं पाते, बल्कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि संदेष्टा जो कुछ लेकर आए हैं, वही सत्य है, जिसका इनकार नहीं किया जा सकता।इन दलीलों में वह संपूर्ण स्थितियाँ, सुंदर आचरण तथा उत्तम व्यवहार भी शामिल हैं, जो अल्लाह अपने नबियों को विशेष रूप से प्रदान करता है।तथा इनके अंदर अल्लाह तआला का अपने नबियों तथा रसूलों का विरोधियों के खिलाफ मदद करना और उनके आह्वान को ग़लबा प्रदान करना शामिल है।4- उसका आह्वान सैद्धांतिक रूप से अन्य रसूलों एवं नबियों के आह्वान से मेल खाता हो।[138]5- वह स्वयं अपनी पूजा करने या किसी भी तरह की इबादत को अपनी तरफ फेरने की ओर न बुलाए। इसी प्रकार वह अपने कबीले या अपने गिरोह का सम्मान करने की दावत न दे। अल्लाह ने अपने नबी मुहममद صلى الله عليه وسلم को आदेश दिया कि आप लोगों से कह दें : "कह दीजिए कि न तो मैं तुमसे यह कहता हूँ कि मेरे पास अल्लाह का ख़ज़ाना है और न मैं ग़ैब जानता हूँ, और न मैं यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ। मैं तो सिर्फ जो कुछ मेरे पास वह्य आती है, उसकी पैरवी करता हूँ।" [139]6- वह लोगों से अपने दावत देने बदले में दुनिया की कोई चीज़ न माँगे। अल्लाह तआला अपने नबियों नूह, हूद, सालेह, लूत और शुऐब के बारे में ख़बर देते हुए फ़रमाता है कि उन्होंने अपनी क़ौम के लोगों से कहा : “और मैं तुमसे उसका कोई बदला नहीं माँगता, मेरा बदला तो केवल सारी दुनिया के रब पर है।'' [140] इसी तरह मुहम्मद صلى الله عليه وسلم ने अपनी क़ौम से फ़रमाया : “कह दीजिए कि मैं इसपर तुमसे कोई बदला नहीं माँगता और न मैं बनावट करने वालों में से हूँ।'' [141]ये रसूल और नबीगण -जिनके कुछ गुणों और उनकी नबूवत की निशानियों की आपसे चर्चा की गई है- बहुत ज़्यादा हैं । अल्लाह का फ़रमान है : “और हमने हर उम्मत में रसूल भेजे कि (लोगो!) केवल अल्लाह की इबादत (उपासना ) करो, और तागूत (अल्लाह के सिवाय सभी झूठे माबूद) से बचो।" [142] मानव जाति को इनकी वजह से सौभाग्य प्राप्त हुआ, इतिहास ने इनकी घटनाओं को अपने सीने में समेटकर रखा और इनके लाए हुए धर्म विधान नस्ल दर नस्ल नक़ल होते रहे। इसी तरह, अल्लाह के द्वारा उनकी मदद किए जाने और उनके दुश्मनों को तबाह किए जाने की घटनाएँ भी नक़ल होती रही हैं। जैसे- नूह की कौम का तूफ़ान, फ़िरऔन का पानी में डुबो दिया जाना, लूत की कौम का अजाब, मुहम्मद صلى الله عليه وسلم का अपने दुश्मनों पर विजय और आपके धर्म का विस्तार आदि। अत: जो भी मनुष्य इन बातों से अवगत होगा; उसे निश्चित रूप से इस बात का पता चल जाएगा कि रसूलगण खैर एवं भलाई और मार्गदर्शन के साथ, लोगों को उनके लाभ की चीजों से अवगत करने और उनको नुकसान पहुँचाने वाली चीजों से सावधान तथा सचेत करने के लिए आए थे। सबसे पहले रसूल नूह अलैहिस्सलाम और उनकी अंतिम कड़ी मुहम्मद صلى الله عليه وسلم हैं। मानव जाति को रसूलों की ज़रूरतनबीगण अल्लाह तआला की ओर से उसके बंदों की ओर आने वाले संदेशवाहक हैं, जो उन्हें अल्लाह के आदेश पहुँचाते और आज्ञापालन की परिस्थिति में उनके लिए अल्लाह की ओर से तैयार की हुई नेमतों का सुसमाचार सुनाते एवं अवज्ञा की अवस्था में अनंत यातना से सावधान करते तथा पिछली जातियों की घठनाओं एवं अल्लाह के आदेश के उल्लंघन के कारण उनपर उतरने वाले अज़ाब से अवगत करते हैं।याद रहे कि अल्लाह के इन आदेशों और निषेधों को मानव विवेक स्वतः नहीं जान सकता। इसलिए अल्लाह तआला ने मानव जाति के आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा और उसके हितों की रक्षा के लिए धर्मविधान बनाए और आदेश तथा निषेध जारी किए। क्योंकि कभी-कभी इन्सान अपनी इच्छाओं के पीछे भागते हुए वर्जित चीज़ों का उल्लंघन करने लगता है और लोगों पर अत्याचार करते हुए उनके अधिकारों को छीन लेता है, इसलिए अल्लाह की हिकमत का तक़ाज़ा यह था कि समय-समय पर उनके बीच सन्देष्टाओं को भेजता रहे, जो उन्हें अल्लाह के आदेशों को याद दिलाते रहें, उसकी नाफ़रमानी में पड़ने से डराते रहें, धर्मोपदेश देते रहें और पिछले लोगों की घटनाएँ सुनाते रहें। क्योंकि अद्भुत घटनाएँ जब कानों में पड़ती हैं और अनोखी बातें जब ज़ेहन को जगाती हैं, तो इससे मानव विवेक लाभांवित होता है और उसे सही समझ प्राप्त होती है। चुनांचे लोगों में सबसे ज्यादा सुनने वाला व्यक्ति, सबसे ज़्यादा चिंतन-मनन करने वाला, सबसे ज़्यादा चिंतन-मनन करने वाला, सबसे अधिक ज्ञान वाला और सबसे ज़्यादा ज्ञान वाला सबसे अधिक अमल करने वाला होता है। अत: सत्य की स्थापना के लिए संदेष्टाओं के भेजे जाने से अलग कोई रास्ता नहीं है और इस संबंध में उनका कोई विकल्प भी नहीं है। [143]शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया [144] कहते हैं कि बंदे की दुनिया व आख़िरत के कल्याण के लिए रिसालत (ईश्वरीय संदेश) का होना ज़रूरी है। स्मरण रहे कि जिस तरह रिसालत (ईश्वरीय संदेश) की पैरवी के बिना मनुष्य की आख़िरत में कामयाबी संभव नहीं है, उसी प्रकार रिसालत के अनुसरण के बिना उसकी दुनिया की कामयाबी संभव नहीं है। अत: मनुष्य शरीयत का मोहताज है, क्योंकि वह दो तरह की गतिविधियाँ करता है। एक गतिविधि के द्वारा वह अपने लिए लाभदायक चीज़ को प्राप्त करता है और दूसरी गतिविधि के द्वारा वह अपने आप से हानिकारक चीज़ को दूर करता है। जबकि शरीयत (धर्मशास्त्र) ही वह प्रकाश है, जो यह स्पष्ट करती है कि कौन-सी चीज़ उसके लिए लाभदायक है और कौन-सी चीज़ उसके लिए हानिकारक है। वह धरती पर अल्लाह की रोशनी, उसके बंदों के दरमियान उसका न्याय और वह क़िला है, जिसमें प्रवेश करने वाला सुरक्षित हो जाता है।शरीयत से मुराद चेतना के द्वारा लाभादायक और हानिकारक चीजों के बीच अन्तर करना नहीं है, क्योंकि यह खुसूसियत तो जानवरों को भी प्राप्त है। चुनाँचे गधे और ऊँट भी जौ और रेत के बीच अन्तर कर सकते हैं। बल्कि, यहाँ शरीयत से मुराद उन कार्यों के बीच अन्तर करना है, जो उसके करने वाले को दुनिया और आख़िरत में नुकसान पहुँचाते हैं तथा उन कार्यों के बीच, जो उसे दुनिया और आख़िरत में लाभ पहुँचाते हैं। जैसे- ईमान, तौहीद, न्याय, नेकी, एहसान, ईमानदारी, पवित्रता, वीरता, ज्ञान, सब्र, भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना, रिश्तेदारों के साथ अच्छा संबंध रखना, माता-पिता के साथ सद्व्यवहार, पड़ोसियों के साथ भलाई करना, हक़ूक़ की अदायगी करना, ख़ालिस अल्लाह के लिए कार्य करना, अल्लाह पर भरोसा रखना, उससे सहायता माँगना, उसकी तक़दीर पर सन्तुष्ट होना, उसके फैसले को स्वीकारना, उसकी पुष्टि करना और उसके रसूलों की उन सारी बातों की पुष्टि करना जिनकी उन्होंने सूचना दी है, ये तथा इनके अलावा अन्य ऐसी चीजों के लाभ, जो बन्दे के लिए उसकी दुनिया और आख़िरत में लाभदायक और कल्याणकारी हैं और जिनकी विपरीत चीज़ों में उसके लिए दुनिया व आख़िरत का दुर्भाग्य और एवं नुकसान है।अगर नबियों का संदेश न होता, तो इंसानी बुद्धि के लिए संभव ही न था कि दुनिया की हानि एवं लाभ के विवरण से अवगत हो पाती। अल्लाह का सबसे महत्वपूर्ण उपकार यह है कि उसने रसूल भेजे, उनपर अपनी किताबें उतारीं तथा सीधे मार्ग का स्पष्ट रूप से वर्णन कर दिया। अगर अल्लाह की यह कृपा न होती, तो मनुष्य चौपायों के दरजे में होता या उनसे भी बदतर होता। ऐसे में, जिन लोगों ने अल्लाह के संदेश को स्वीकार कर लिया और उसपर दृढ़ता से जमे रहे, वे मख़लूक़ में सबसे अच्छे लोग हैं और जिन लोगों ने उसको मानने से इनकार किया, वे सबसे बुरे मख़लूक़ हैं और उनकी दशा कुत्तों और सूअरों से भी बुरी है और वे सबसे घटिया लोग हैं। धरती पर बसने वाले लोगों की स्थिरता इसी में है कि वे नबियों के संदेश को दृढ़ता से पकड़े रहें, क्योंकि जब धरती से रसूलों की पैरवी खत्म हो जाएगी, तो अल्लाह तआला धरती एवं आकाश दोनों को तबाह कर देगा और उसके बाद क़यामत आ जाएगी।धरती पर बसने वालों को रसूल की ज़रूरत उस प्रकार की नहीं है, जिस प्रकार सूर्य, चाँद, हवा और वर्षा की ज़रूरत है। न ही यह ज़रूरत उस प्रकार की है, जैसी इंसान को जीवन की, आँख को उसके प्रकाश की और शरीर को खाने-पीने की होती है। सच्चाई यह है कि यह ज़रूरत इन तमाम ज़रूरतों से अधिक महत्व वाली और उन तमाम चीज़ों से अधिक आवश्यक है, जिसका ख़याल इंसान के दिल में आ सकता है। क्योंकि रसूलगण, मध्यस्थ बनकर इंसानों को अल्लाह का आदेश तथा निषेध पहुँचाते हैं और अल्लाह तथा बंदों के बीच में दूत की हैसियत से कार्य करते हैं। रसूलों की श्रृंखला की अंतिम कड़ी तथा अल्लाह के निकट सबसे सम्मानीय नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। सभी रसूलों पर शांति की धारा बरसे। अल्लाह तआला ने आपको सारे संसार के लिए कृपा, सभी पथिकों के लिए प्रमाण और सारी सृष्टियों पर हुज्जत बनाकर भेजा तथा आपके आज्ञापालन, आपसे प्रेम, आपके सम्मान एवं सहयोग और आपके अधिकारों की अदायगी को तमाम बंदों पर फ़र्ज़ किया। इसी तरह, तमाम नबियों और रसूलों से आपपर ईमान लाने और आपका अनुसरण करने का वादा लिया और उन्हें आदेश दिया कि अपने अनुसरणकारी ईमान वालों से भी इस बात का वादा लें। अल्लाह ने आपको क़यामत से पहले सुसमाचार सुनाने वाला, सावधान करने वाला, अपनी अनुमति से अल्लाह की ओर बुलाने वाला एवं रौशन चराग़ बनाकर भेजा। उसने आपके ज़रिए नबूवत के सिलसिले को समाप्त कर दिया, आपके द्वारा पथभ्रष्टता के समय मार्गदर्शन प्रदान किया, अज्ञानता के माहौल में ज्ञान की जोत जगाई, आपके संदेश के ज़रिए अंधी आँखों को देखने की शक्ति प्रदान की, बहरे इंसानों को सुनने वाला बना दिया और बंद दिलों के परदे हटा दिए। चुनांचे आपके संदेश के प्रकाश से पूरा जग आलोकित हो गया, बिखरे हुए दिल आपस में मिल गए, भटका हुआ समाज सीधे रास्ते पर आ गया और सत्य का मार्ग रोशन हो गया। अल्लाह ने अपने नबी के दिल को अपने प्रति संतुष्ट रखा, आपको पाप से दूर रखा, हर ओर आपकी चर्चा को आम कर दिया और आपका विरोध करने वालों के भाग्य में असलफता तथा अपमान लिख दिया। अल्लाह ने आपको उस समय रसूल बना कर भेजा, जब रसूलों के आने का सिलसिला बंद था, आकाशीय ग्रंथ मिटते हुए दिखाई दे रहे थे, उनमें फेर-बदल कर दिए गए थे, धर्म विधनों को बदल दिया गया थे, हर कौम और गिरोह के अपने अलग-अलग विचार थे और वे अल्लाह और बंदों के बीच अपने असत्य मतों एवं आकांक्षाओं के अनुसार फैसला करने लगे थे। ऐसे हालात में अल्लाह तआला ने आपके द्वारा सृष्टियों का मार्गदर्शन किया, उनके लिए सच्चाई के मार्गों को स्पष्ट किया, लोगों को अंधेरों से निकाल कर रोशनी की दुनिया में पहुँचाया तथा कामयाब और नाकाम लोगों के बीच पृथक रेखा खीची। लिहाज़ा जिसने हिदायत प्राप्त करना चाहा, उसे आपके रास्ते पर चलकर हिदायत मिल गई, और जो आपके रास्ते से हट गया, वह सीधे मार्ग से भटक गया और उसने अपने ऊपर अत्याचार किया। आपपर और सारे नबियों एवं रसूलों पर दरूद एवं सलाम हो। [145]हम मनुष्य के लिए नबियों के संदेश की ज़रूरत को निम्मनांकित बिंदुओं में रेखांकित कर सकते हैं :1- मनुष्य एक मख़लूक़ है, जिसका एक पालनहार है। इसलिए आवश्यक है कि वह यह जाने कि उसे किसने पैदा क्या, उसे पैदा करने वाला उससे क्या चाहता है और उसने उसे क्यों पैदा क्या है? मनुष्य इन बातों की जानकारी स्वयं प्राप्त नहीं कर सकता। इन बातों की जानकारी केवल नबियों तथा रसूलों और उनके लाए हुए मार्गदर्शन एवं प्रकाश के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है।2- मनुष्य आत्मा और शरीर से मिलकर बना है। शरीर का पोषक तत्व खाना और पानी है, जबकि आत्मा का पोषक तत्व अल्लाह का दिया हुआ सही धर्म और सत्कर्म है। इस सही धर्म एवं सत्कर्म के मार्गदर्शन का काम नबी तथा रसूलगणों ने ही किया है।3- मनुष्य स्वभाविक तौर पर धर्म को पसंद करता है और उसकी प्रकृति चाहती है कि उसका कोई न कोई धर्म हो, जिसका वह पालन करे। लेकिन यह भी ज़रूरी है कि यह धर्म सही हो। जबकि सही धर्म को प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग नबियों एवं रसूलों पर ईमान तथा उनकी लाई हुई बातों पर विश्वास है।4- मनुष्य को उस मार्ग की जानकारी होनी चाहिए, जिसपर चलकर वह दुनिया में अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त कर सके एवं आख़िरत में उसकी जन्नत एवं नेमतें प्राप्त कर सके। जबकि इस मार्ग को दिखाने का काम केवल नबी एवं रसूलगणों ने ही किया है।5- मनुष्य स्वयं दुर्बल है और अनेकों शत्रु उसकी घात में हैं। शैतान उसको गुमराह करना चाहता है, बुरे लोगों की संगत उसके लिए बुराई को सुशोभित बनाकर प्रस्तुत करती है और बुराई की ओर प्रेरित करने वाली आत्मा उसे बुराई का आदेश देती है। इसलिए उसे एक ऐसी चीज़ की ज़रूरत है, जिसके ज़रिए वह दुश्मनों के षड्यंत्र से अपनी सुरक्षा कर सके। इसी चीज़ की रहनुमाई नबियों तथा रसूलों ने की है और उसे स्पष्ट रूप से बयान किया है।8- मनुष्य प्राकृतिक रूप से सभ्य है और आम समाज के साथ मिलजुल कर रहने के लिए ज़रूरी है कि उसके पास एक जीवन विधान हो, जो लोगों के बीच इंसाफ को कायम रखे, वरना उनका जीवन जंगल के जीवन के समान हो जाएगा। फिर धर्म भी ऐसा होना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों को संपूर्ण सुरक्षा प्रदान करे और ऐसा संपूर्ण धर्म-विधान नबियों एवं रसूलों ने ही प्रस्तुत किया है।7- इसी प्रकार मनुष्य ऐसी चीज़ को जानने का मोहताज है, जो उसे सुकून एवं आंतरिक शांति प्रदान करे और उसे वास्तविक सौभाग्य का मार्गदर्शन करे। जबकि यही वह चीज़ है, जिसका मार्गदर्शन नबियों एवं रसूलों ने किया है।नबियों और रसूलों को भेजने की आवश्यकता को जान लेने के बाद हमारे लिए आवश्यक है कि हम आखिरत के बारे में भी कुछ बातें बताते चलें और उसपर प्रमाणित करने वाले प्रमाणों तथा सबूतों को स्पष्ट कर दें। आख़िरतप्रत्येक मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि उसे एक दिन मरना है। लेकिन मौत के बाद क्या अंजाम होगा? क्या वह सौभाग्यशाली होगा या दुर्भाग्यशाली?बहुत-सी कौमें एवं समुदाय यह अकीदा रखते हैं कि उनको मरने के बाद फिर से जीवित किया जाएगा और उनके कार्य का हिसाब लिया जाएगा। अगर उनके कर्म अच्छे होंगे तो उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाएगा, लेकिन अगर उनके कर्म बुरे रहे होंगे, तो उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाएगा [146] मरने के बाद जीवित किया जाना एवं हिसाब-किताब होना, एक ऐसी बात है, जिसे शुद्ध मानव विवेक भी स्वाकीर करता है और अल्लाह की उतारी हुई शरीयतें में इसका समर्थन करती हैं। दरअसल इसकी बुनियाद तीन सिद्धाँतों पर स्थापित है :1- पवित्र अल्लाह के संपूर्ण ज्ञान को सिद्ध करना।2- पवित्र अल्लाह की संपूर्ण शक्ति को सिद्ध करना।3- पवित्र अल्लाह की संपूर्ण हिकमत को सिद्ध करना।इस विषय की सिद्धि एवं समर्थन में बहुत सारे अक़ली (जिसका संबंध बुद्धि से हो) एवं क़ुरआन तथा सुन्नत से प्राप्त प्रमाण मौजूद हैं। कुछ दलीलें निम्न में प्रस्तुत हैं :1- धरती एवं आकाश की रचना को मुर्दों को दोबारा जीवित करने का प्रमाण बनाना। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "क्या वह नहीं देखते कि जिस अल्लाह ने आकाशों और धरती को पैदा किया और उनके पैदा करने से वह न थका, वह बेशक मुर्दों को जिन्दा करने की कुदरत एवं शक्ति रखता है। क्यों न हो? वह बेशक हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।" [147] एक अन्य स्थान में उसने कहा है : "जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया है, क्या वह इन जैसों के पैदा करने पर कादिर नहीं है? यकीनन है और वही तो पैदा करने वाला जानने वाला है।" [148]2- इस संसार को किसी पूर्व मिसाल एवं नमूने के बगैर रचना करने की कुदरत एवं शक्ति को इस बात की दलील बनाना कि वह इस संसार को दोबारा पैदा करने की शक्ति एवं कुदरत रखता है। क्योंकि जो आरम्भ में किसी भी चीज़ को पैदा करने की शक्ति एवं कुदरत रखता हो, वह दोबारा उस चीज़ को पैदा और रचना करने पर ज्यादा समर्थ होगा। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और वही है, जो पहली बार सृष्टि (मखलूक) को पैदा करता है, वही फिर से दोबारा पैदा करेगा, और यह तो उसपर बहुत आसान है। उसी की अच्छी और उच्च विशषेता है।" [149] एक अन्य स्थान में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "और उसने हमारे लिए मिसाल बयान की और अपनी (मूल) पैदाईश को भूल गया, कहने लगा कि इन सड़ी-गली हड्डियों को कौन ज़िन्दा कर सकता है? कह दीजिए कि उन्हें वह ज़िन्दा करेगा, जिसने उन्हें पहली बार पैदा किया, जो सब प्रकार (तरह) की पैदाFश को अच्छी तरह जानने वाला है।'' [150]3- अल्लाह ने मनुष्य को बेहतरीन ढाँचे एवं शक्ल-सूरत में जन्म दिया है। उसके शरीर के सुंदर एवं संपूर्ण अंग, उसके अंदर मौजूद विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ, विशेषताएँ और उसके शरीर की अलग-अलग चीज़ें जैसे उसका मांस, हड्डियाँ, रगें, पट्ठे, अंदर की चीज़ें बाहर आने और बाहर की चीज़ें अंदर जाने के रास्ते, उसके विभिन्न प्रकार के ज्ञान, इरादे एवं कुशलताएँ, यह सारी चीज़ें इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण हैं कि अल्ला मुर्दों की जीवित कर सकता है।4- दुनिया के जीवन में मुर्दों को ज़िन्दा करने को आख़िरत के दिन मुर्दों को जीवित करने की क्षमता का दलील बनाकर प्रस्तुत करना। रसूलों पर अल्लाह की उतारी हुई किताबों में इस तरह की कई घटनाएँ बयान की गई हैं। उदाहरण के तौर पर इब्राहीम तथा ईसा अलैहिमस्सलाम के हाथों अल्लाह की अनुमति से मुर्दों को जीवित किया जाना। इस तरह की बहुत-सी मिसालें मौजूद हैं।5- अल्लाह तआला का ऐसे कामों की क्षमता को, जो दोबारा जीवित करने तथा एकत्र करने के जैसे ही हैं, मरे हुए लोगों को दोबारा जीवित करने का प्रमाण बनाना। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :क. अल्लाह तआला ने मनुष्य को वीर्य की एक बूंद से पैदा किया, जो कि जिस्म के सारे हिस्सों में बिखरी हुई थी। इसी कारण शरीर के सारे अंग संभोग के समय आनंद लेने में बराबर शरीक होते हैं। अल्लाह तआला इस नुतफ़े को जिस्म के विभिन्न हिस्सों से इकट्ठा करता है, फिर उसे औरत के गर्भाशय में जमा रखता है, फिर वहाँ से मनुष्य को जन्म देता है। जब अल्लाह पूरे शरीर में बिखरी हुई एक बूँद को जमा कर सकता है और उससे इन्सान की रचना कर सकता है, तो मौत के पश्चात उसके बिखर जाने के बाद उसे क्यों एकत्र नहीं कर सकता? सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने कहा है : "अच्छा, फिर यह तो बताओ कि जो वीर्य तुम टपकाते हो, क्या उससे (इंसान) तुम बनाते हो या बनाने वाले हम ही हैं?'' [151]ख. विभिन्न प्रकार के बीज जब नमीयुक्त खेत में पड़ते हैं और पानी तथा मिट्टी की कोख में चले जाते हैं, तो मानव विवेक यही कहता है कि उसे सड़-गलकर ख़राब हो जाना चाहिए, क्योंकि दोनों तो दूर, दोनों में से एक भी उसे सड़ा-गला देने के लिए काफ़ी है। लेकिन ऐसा नहीं होता। वह सुरक्षित रहता है। फिर जब नमी बढ़ती है, तो बीज फट जाता है और उससे पौधा निकल आता है। क्या यह अल्लाह की अपार शक्ति और अनंत हिकमत का प्रमाण नहीं है? ज़रा सोचिए कि ऐसा हिकमत वाला और शकक्तिशाली अल्लाह मरे हुए व्यक्ति के विभिन्न अंगों को एकत्र कर और उन्हें जोड़कर उसे जीवित क्यों नहीं कर सकता? अल्लाह तआला का फ़रमान है : "अच्छा फिर यह भी बताओ कि तुम जो कुछ बोते हो, उसे तुम ही उसे उगाते हो या उसे उगाने वाले हम हैं।'' [152] इसी तरह अल्लाह तआला ने एक और स्थान में कहा है : "और तुम देखते थे कि धरती बंजर और सूखी है, फिर जब हम उसपर वर्षा करते हैं, तो वह उभरती है और लहलहा उठती है और हर तरह की सुन्दर वनस्पति उगाती है।'' [153]6- बेशक सामर्थ्यवान, ज्ञानवान और हिकमत वाला सृष्टिकर्ता इस बात से पवित्र है कि वह किसी चीज़ को बिना किसी उद्देश्य के पैदा करे और अपनी सृष्टियों को बेकार छोड़ दे। अल्लाह तआला का फरमान है : "और हमने आकाश और धरती और उनके बीच की चीज़ों को बेकार (और बिला वजह) पैदा नहीं किया। यह शक तो काफिरों का है। तो काफ़िरों के लिए आग का विनाश है।'' सच्चाई यह है कि उसने अपनी सृष्टि की रचना एक बड़े उद्देश्य के तहत की है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “मैंने जिन्नात और इंसानों को सिर्फ इसी लिए पैदा किया है कि वे केवल मेरी इबादत करें।'' [154] लिहाज़ा हम इस हिकमत वाले अल्लाह के बारे में यह नहीं मान सकते कि उसके निकट अज्ञाकारी तथा अवज्ञाकारी दोनों बराबर हों। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "क्या हम उन लोगों को, जो ईमान लाए और नेक काम किए, उन्हीं के बराबर कर देंगे, जो धरती पर फ़साद मचाते रहे या परहेज़गारों को बदकारों जैसा कर देंगे?'' [155] अतः उसकी संपूर्ण हिकमत एवं बेपनाह सामर्थ्य का तक़ाज़ा यह है कि वह क़यामत के दिन सारी सृष्टियों को दोबारा जीवित करे, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्म का बदला दिया जा सके और अच्छा काम करने वाले को अच्छा बदला और बुरा काम करने वाले को बुरा बदला प्रदान करे। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "तुम सब को अल्लाह के पास जाना है। अल्लाह ने सच्चा वादा कर रखा है। बेशक वही पहली बार पैदा करता है, फिर वही दोबारा पैदा करेगा, ताकि ऐसे लोगों को, जो कि ईमान लाए और उन्होंने नेकी के काम किए, इंसाफ के साथ बदला दे और जिन लोगों ने कुफ्र किया उनके पीने के लिए खौलता हुआ पानी और दुखदायी अज़ाब होगा, उनके कुफ्र के सबब।'' [156][157]आखिरत के दिन यानी दोबारा जीवित होकर उठने और हिसाब-किताब के लिए उपस्थित होने के दिन पर ईमान के व्यक्ति तथा समाज पर कई प्रभाव पड़ते हैं। कुछ प्रभाव इस प्रकार हैं :1- मनुष्य के अन्दर आख़िरत के दिन के सवाब की चाहत में अल्लाह के आज्ञापलन और उस दिन की सज़ा के भय से उसकी अवज्ञा से बचने की भावना जागृत होती है।2- आख़िरत के दिन पर ईमान एक मोमिन को दुनिया की नेमतों एवं साधनों से वंचित रहने एहसास होने नहीं देता, क्योंकि उसे आख़िरत की नेमतों और वहाँ के प्रतिफल की आशा रहती है।3- आख़िरत के दिन पर ईमान से बंदा यह जान लेता है कि उसे मौत के बाद कहाँ जाना है। उसे पता होता है कि उसे उसके कर्मों का प्रतिफल मिलना है। अगर कर्म अच्छा होगा, तो प्रतिफल अच्छा मिलेगा और अगर कर्म बुरा होगा, तो प्रतिफल बुरा मिलेगा। उसे मालूम रहता है कि उसे हिसाब-किताब के लिए अपने रब के सामने खड़े होना है और उसपर अत्याचार करने वालों से उसे क़िसास दिलाया जाएगा और यदि उसने किसी पर अत्याचार किया या किसी का हक़ मारा, तो उससे भी लोगों का अधिकार दिलवाया जाएगा।4- आख़िरत पर ईमान मुनष्य को दूसरे लोगों पर अत्याचार करने और उनका हक़ मारने से रोकता है। अतः, जब लोग आख़िरत के दिन पर ईमान ले आते हैं, तो एक-दूसरे पर अत्याचार करने से बच जाते हैं और उनके अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं।5- आखिरत के दिन पर ईमान के बाद इंसना सांसारिक जीवन को जीवन का एक मर्हला समझता है, संपूर्ण जीवन नहीं।इस परिच्छेद के अंत में मैं अमेरीकी ईसाई "वैन बिट" के एक उद्धरण को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करना चाहता हूँ। ध्यान रहे कि यह व्यक्ति पहले एक चर्च में काम करता था, फिर बाद में मुसलमान हो गया और आख़िरत के दिन पर ईमान का फल प्राप्त किया। वह कहता है : "अब मैं उन चार प्रश्नों का उत्तर जानता हूँ, जिनकी तलाश में मेरे जीवन का बड़ा भाग व्यतीत हुआ। अब मुझे मालूम हो गया है कि मैं कौन हूँ, क्या चाहता हूँ, कहाँ से आया हूँ और मुझे कहाँ जाना है?" [158] रसूलों के आह्वान के प्रमुख सिद्धांतसारे नबी और रसूल कुछ व्यापक सिद्धांतों[159] के आह्वान में एकमत रहे हैं। जैसे- अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों, उसके रसूलों, अंतिम दिन और अच्छे-बुरे भाग्य पर ईमान की ओर बुलाना। इसी प्रकार एक अल्लाह, जिसका कोई साझी एवं शरीक नहीं है, की उपासना और उसके मार्ग का अनुसरण करने तथा उसके विपरीत मार्गों के अनुसरण से बचने का आदेश देना। इसी तरह चार वर्ग की वस्तुओं यानी खुली तथा छुपी बेहयाइयों, गुनाह, अत्याचार और अल्लाह का साझी बनाने एवं बुतों की पूजा को हराम घोषित करना। इसी तरह अल्लाह को पत्नी, संतान, साझी, समान, समकक्ष एवं उसके बारे में कोई असत्य बात कहने से पवित्र क़रार देना। साथ ही संतान के वध एवं किसी व्यक्ति के नाहक़ वध को हराम ठहराना, सूद एवं अनाथ का माल खाने से रोकना, वादा निभाने, सही नापकर देने और लेने, माता-पिता का आज्ञापालन करने, लोगों के बीच न्याय करने, सच्ची बात कहने और सच्चा कर्म करने का आदेश देना, फ़ज़ूलखर्ची और ग़लत तरीक़े से लोगों का माल खाने की मनाही आदि।इब्न-ए- क़य्यिम [160] कहते हैं : “सभी शरीयतें, गरचे वे अलग-अलग हों, सैधांतिक रूप से समान हैं और जनमानस में उनकी सुंदरता सर्वमान्य है। अगर यह उससे अलग रंग-रूप में आतीं, जिस रंग-रूप में आई हैं, तो हिकमत, मसलहत एवं कृपालुता से परे होतीं। अतः यह जिस रंग-रूप में हमारे पास आई हैं, उससे अलग रंग-रूप में आना संभव नहीं था। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “अगर हक़ ही उनकी इच्छाओं का अनुयायी (पैरोकार) हो जाएँ, तो धरती और आकाश और उनके बीच की जितनी चीजें हैं, सब तहस-नहस हो जाएँ।" [161] कोई भी विवेकशील व्यक्ति इस बात की कल्पना कैसे कर सकता है कि सबसे बड़े शासनकर्ता का बनाया हुआ विधान उससे भिन्न होता, जो मानव जाति को प्राप्त हुआ है?[162]यही कारण है कि सारे नबियों का धर्म एक था। जैसे कि अल्लाह का फ़रमान है : "ऐ पैगम्बरो! हलाल चीजें खाओ और नेकी के काम करो। तुम जो कुछ कर रहे हो, उसको मैं अच्छी तरह जानता हूँ। और बेशक तुम्हारा यह दीन एक ही दीन है और मैं ही तुम सब का रब हूँ। अतः, तुम मुझसे डरते रहो।" [163] दूसरी जगह अल्लाह तआला ने फ़रमाया : “अल्लाह तआला ने तुम्हारे लिए वही दीन मुक़र्रर कर दिया है, जिसको कायम करने का उसने नूह को हुक्म दिया था, जो (वह्य के द्वारा) हमने तेरी तरफ़ भेज दिया है और जिसका विशेष हुक्म हमने इब्राहीम और मूसा और ईसा (अलैहिमुस्सलाम) को दिया था कि इस दीन को कायम रखना और इसमें फूट न डालना।" [164]सच्चाई यह है कि धर्म का उद्देश्य बंदों को उनके पालनहार, जिसका कोई साझी नहीं है, की इबादत का मार्ग बताना है, जिसके लिए उन्हें पैदा किया गया है[165]। यही कारण है धर्म उनके कुछ कर्तव्यों का निर्धारण करता है, उनके कुछ अधिकारों को संरक्षित करता है और उन्हें कुछ साधन प्रदान करता है, जो उनकी इस उद्देश्य तक पहुँच को आसान बनाए, जिससे उन्हें अल्लाह की प्रसन्नता तथा लोक एवं परलोक का सौभाग्य प्राप्त हो। फिर, यह सब कुछ एक ऐसे ईश्वरीय विधान के अनुसार हो, जो इंसान को अशांति का शिकार नहीं बनाता और न उसे किसी ऐसी लाइलाज बीमारी में मुबतला करता है कि वह अपनी प्रकृति, आत्मा और आसपास की दुनिया से मुसलसल लड़ता ही चला जाए।चुनांचे सारे रसूलों ने उस दीन-ए-इलाही की ओर लोगों को बुलाया है, जो मानव जाति के आगे वह बुनियादी अक़ीदा पेश करता है जिसपर वह ईमान लाए और वह धर्म विधान प्रस्तुत करता है जिसपर चलकर वह जीवन व्यतीत करे। अतः तौरात आस्था एवं शरीयत थी और उसके मानने वालों को उसके अनुसार निर्णय करने का आदेश दिया गया था। अल्लाह तआला का फरमान है : "हमने तौरात उतारी है, जिसमें हिदायत और नूर है। यहूदियों में इसी तौरात के ज़रिये अल्लाह के मानने वाले अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) और अल्लाह वाले और आलिम फैसला किया करते थे।'' [166] फिर ईसा अलैहिस्सलाम आए, जो अपने साथ इंजील लाए, जिसमें मार्गदर्शन एवं प्रकाश था और जो पहले आने वाले ग्रंथ तौरात की पुष्टि करती थी। अल्लाह तआला का फरमान है : "और हमने उनके पीछे ईसा बिन मरियम को भेजा, जो अपने से पहले की किताब यानी तौरात की पुष्ठि करने वाले थे और हम ने उन्हें इंजील प्रदान की, जिसमें प्रकाश एवं मार्गदर्शन था।" [167] फिर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पधारे, जिनके साथ एक संपूर्ण धर्म और अंतिम शरीयत थी, जो अपने से पहले की सारी शरीयतों को नियंत्रण में रखने वाली और पहले आने वाली सारी किताबों की पुष्टि करने वाली थी। अल्लाह तआला का फरमान है : "और हमने आपकी तरफ सच्चाई से भरी किताब उतार दी, जो अपने पूर्व की पुस्तकों को सच बताने वाली तथा संरक्षक है। अतः आप लोगों का निर्णय उसी से करें जो अल्लाह ने उतारा है, तथा लोगों की मनमानी पर उस सत्य से विमुख होकर न चलें जो आपके पास आया है।" [168] अल्लाह तआला ने बताया है कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और उनके साथ रहने वाले ईमान वाले उसपर ईमान रखते हैं। इसी तरह उनसे पहले के सारे रसूल एवं नबी भी उसपर ईमान रखते थे। अल्लाह तआला फरमाता है : “रसूल उस चीज़ पर ईमान लाए जो उसकी तरफ़ अल्लाह की ओर से उतारी गई है और मुसलमान भी ईमान लाए। यह सब अल्लाह, उसके फरिश्तों, उसकी किताबों और उसके रसूलों पर ईमान लाए। उसके रसूलों में से किसी के बीच हम फर्क नहीं करते। उन्होंने कहा कि हमने सुना और अनुसरण किया। हम तुझसे क्षमा माँगते हैं हे हमारे रब! और हमें तेरी ही तरफ़ लौटना है।" [169]सदा बाक़ी रहने वाला सन्देश [170]पीछे यहूदी, नसरानी, मजूसी, जर्दुशती और मूर्ती पूजा पर आधारित धर्मों का जो हाल बयान हुआ, उससे छठी सदी ईसवी में मनुष्य [171] का हाल खुलकर सामने आ जाता है। जब धर्म बिगड़ जाए, तो फिर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ भी बिगड़ जाती हैं। फिर भीषण युद्ध फैल जाता है, अत्याचार होने लगता है और इंसानियत घंघोर अंधकार में जीने लगती है। फलस्वरूप, नास्तिकता और अत्याचार की वजह से हृदय भी काले होने लगते हैं, चरित्र बिगड़ जाते हैं, इज्जत पामाल होने लगती है, अधिकार मिटने लगते हैं और फिर जल एवं थल में हर ओर अत्याचार फैल जाता है। उस समय हाल यह था कि अगर आज कोई बुद्धिजीवी विचार करे, तो पाएगा कि यदि उस समय अल्लाह किसी महान सुधारक को भेजकर इंसानियत का हाथ थाम न लेता, जो नबूवत की मशाल एवं मार्गदर्शन का चराग लेकर उसको राह दिखाने का काम करता, तो उस समय मानवता मरणासन्न अवस्था में थी और क्षय के निकट पहुँच चुकी थी।ऐसे हालात में अल्लाह ने चाहा कि वह हमेशा बाकी रहने वाली नबूवत के नूर को मक्का मुकर्रमा से रौशन करे कि जहाँ पर महान घर काबा है और वहाँ की परस्थितियाँ भी शिर्क, जिहालत, जुल्म और अत्याचार में दूसरी तमाम इंसानी समाजों की तरह ही थीं। हाँ, बहुत-सी विशेषताओं में वह अलग भी था। जैसे :1. वहाँ का वातावरण साफ था, जो यूनानी, रोमीय और भारतीय विचारों की गंदगी से आलूदा नहीं हुआ था और वहाँ के लोग मज़बूत भाषा शैली, तेज़ दिमाग और आश्चर्यजनक बुद्धि के मालिक थे।2. वह दुनिया के बीच में स्थित था। वह यूरोप, एशिया और अफ्रीका के बीच में होने के कारण, बहुत कम समय में अल्लाह का यह हमेशा बाकी रहने वाला पैगाम दुनिया के इन हिस्सों में बड़ी तेजी के साथ फैल सकता था।3. वह सुरक्षित स्थान था, क्योंकि जब अबरहा ने उसपर हमला करना चाहा था तो अल्लाह ने उसकी हिफ़ाज़त की थी। इसी तरह उसके पड़ोस में कायम रोमन एवं फ़ारसी साम्राज्यों से भी उसे सुरक्षित रखा था। इतना ही नहीं उसे उत्तर एवं दक्षिण की दिशाओं में व्यापार के लिए भी शांतिमय वातावरण प्रदान कर रखा था। यही बातें मक्का में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नबी बनाकर भेजे जाने का कारण बनीं। अल्लाह ने मक्का वालों को इस नेमत का स्मरण कराते हुए कहा है : “क्या हमने भयरहित हरम को उनके लिए निवास स्थान नहीं बनाया, जिसकी ओर प्रत्येक प्रकार के फल खिंचे चले आते हैं?"4. वहाँ का वातावरण मरुस्थलीय है, जिसने अपने आचरण में दानशीलता, पड़ोसी का संरक्षण, इसमत की ग़ैरत आदि बहुत-सी प्रशंसनीय बातों को सुरक्षित रखा था, जिनके कारण वह हमेशा बाक़ी रहने वाले संदेश को संभालने का गौरव प्राप्त करने वाला स्थान बन सका।इसी महत्वपूर्ण स्थान से और उसके कुरैश कबीले से, जो अपनी उच्च कोटि की भाषा शैली, उत्तम आचरण, शराफ़त एवं सरदारी के लिए जाना जाता था, अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद صلى الله عليه وسلم का चयन अंतिम नबी एवं रसूल के तौर पर किया। आप छठी सदी ईसवी में लगभग 570 ईसवी में पैदा हुए। यतीमी की हालत में पले-बढ़े, क्योंकि पिता का देहांत उसी समय हो चुका था जब आप माँ के पेट में थे। फिर आप छह साल के थे कि माता एवं दादा का देहांत हो गया। तब आपके चचा अबू तालिब ने आपको पाला-पोसा। इस प्रकार आप यतीमी की हालत में बड़े हुए। इस दौरान आपके प्रतिभाशाली होने की निशानियाँ जाहिर होने लगीं। आपकी आदतें, चरित्र एवं स्वभाव अपनी कौम की आदतों से भिन्न था। आप बात करते समय झूठ नहीं बोलते और किसी को कष्ट नहीं देते थे। सच्चाई, पाकदामनी एवं अमानतदारी के मामले में इतने मशहूर हो गए कि आपकी क़ौम के बहुत-से लोग आपके पास अमानत के तौर पर अपने बहुमूल्य धन छोड़ जाते थे और आप उनका अपने धन की तरह सुरक्षा करते थे, जिसके कारणं आप "अमीन" यानी अमानतदार के नाम से विख्यात हो गए। आप बहुत शर्मीले थे। जब से वयस्क हुए, कभी किसी के सामने निर्वस्त्र नहीं हुए। बड़े पाक-साफ़ और परहेज़गार थे। लोगों को बुतों की पूजा करते, शराब पीते और रक्तपात करते देख बड़े दुखी होते थे। लोगों के जिन कामों को पसंद करते, उनमें उनका साथ देते और जिन कामों को नापसंद करते, उनमें उनसे अलग रहते थे। निर्धनों तथा बेवाओं की सहायता करते और भूखों को खाना खिलाते थे। इस तरह जब लगभग चालीस साल के हुए, तो अपने चारों ओर के बिगाड़ को देख बड़े दुःखी हुए। अतः, अपने रब की इबादत के लिए अलग-थलग रहने लगे और उससे सवाल करने लगे कि वह आपको सीधा मार्ग दिखा दे। यह सिलसिला जारी रहा, यहाँ तक कि आपके रब की ओर से एक फ़रिश्ता वह्य लेकर आपके पास उतरा और आपको हुक्म दिया कि आप इस धर्म को लोगों तक पहुँचा दें। लोगों को अपने रब की इबादत करने और उसके अलावा अन्य चीज़ों की इबादत से दूर रहने की दावत दें। फिर दिन-ब-दिन और साल-ब-साल आपपर शरीयत व अहकाम के साथ वह्य का उतरना जारी रहा, यहाँ तक कि अल्लाह ने मनुष्य के लिए इस धर्म को पूरा कर दिया और इन्सानियत पर अपनी नेमत संपूर्ण कर दी। जब आपका मिशन पूरा हो गया, तो अल्लाह तआला ने आपको मौत दे दी। मृत्यु के समय आपकी आयु 63 साल थी, जिस में से 40 साल नबी होने से पूर्व के और 23 साल नबी व रसूल बनने के बाद के हैं।जो व्यक्ति नबियों के हालात पर विचार करेगा और उनका इतिहास पढ़ेगा, वह यक़ीनी तौर पर जान लेगा कि जिन तरीकों से किसी नबी की नबूवत साबित की जा सकती है, उन सभी तरीक़ों से आपकी नबूवत को बड़ी आसानी से साबित किया जा सकता है।जब आप विचार करेंगे कि मूसा और ईसा अलैहिमस्सलाम की नबूवत हम तक कैसे पहुँची है, तो आप पाएँगे कि वह तवातुर के साथ यानी नस्ल-दर-नस्ल बड़ी संख्या में लोगों के माध्यम से हस्तांतरित होती हुई हमारे पास आई है और वह तवातुर जिसके साथ अंतिम संदेष्टा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नबूवत हमारे पास आई है, कहीं अधिक बड़ा, मज़बूत तरीन तथा निकटवर्ती ज़माने का है।इसी प्रकार वह तवातुर जिसके माध्यम से रसूलों के चमत्कार और निशानियाँ नक़ल की गई हैं, एक-दूसरे से मिलता-जुलता है। बल्कि मुहम्मद صلى الله عليه وسلم के हक़ में वह कहीं अधिक प्रबल है, क्योंकि आपकी निशानियों की संख्या बहुत ज़्यादा है। फिर आपकी सबसे बड़ी निशानी और चमत्कार यह क़ुरआन है, जो शुरू से अब तक लगातार ध्वनि एवं लिखित रूप में तवातुर के साथ हस्तांतरित होता आया है। [172]जो मूसा एवं ईसा अलैहिमस्सलाम के लाए हुए और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लाए हुए सही अक़ीदा, ठोस धर्म-विधान और लाभकारी ज्ञान-विज्ञान का तुल्नात्मक दृष्टि से अध्ययन करेगा, वह पाएगा कि यह सारी चीज़ें एक ही स्रोत यानी नबूवत के स्रोत से निकलकर आई हैं।इसी तरह जो अन्य नबियों के अनुसरणकारियों और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अनुसरणकारियों की तुलना करेगा, उसे मालूम होगा कि वे लोगों के हक़ में सबसे अच्छे लोग ही नहीं, बल्कि सभी नबियों के अनुसरणकारियों में बाद के लोगों पर सबसे अधिक प्रभाव डालने वाले लोग थे, जिन्होंने एकेश्वरवाद का प्रचार किया, न्याय को फैलाया तथा निर्बल एवं निर्धन लोगों के हक़ में कृपा थे। [173]अगर आप मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नबूवत को प्रमाणित करने के लिए अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं, तो मैं आपके लिए उन प्रमाणों एवं निशानियों को नक़ल कर देता हूँ, जिन्हें अली बिन रब्बन अल-तबरी ने उन दिनों पाया, जब वह ईसाई थे और उन्हीं के कारण मुसलमान हो गए। ये प्रमाण कुछ इस तरह हैं :1. आपने केवल एक अल्लाह की इबादत करने और उसके अलावा तमाम चीज़ों की इबादत से दूर रहने की ओर बुलाया। आप इस मामले में सारे नबियों से सहमत थे।2. आपने ऐसी खुली निशानियाँ दिखाईं, जिन्हें केवल अल्लाह के नबी ही प्रस्तुत कर सकते हैं।3. आपने भविष्य में होने वाली कई घटनाओं की सूचना दी, जो बाद में हू-ब-हू घटित हुईं।4. आपने दुनिया और उसके विभिन्न देशों की बहुत-सी घटनाओं के बारे में सूचना दी और वह उसी तरह घटित हुईं, जिस तरह आपने बताया था।5. मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई किताब यानी पवित्र क़ुरआन आपकी नबूवत की एक महत्वपूर्ण निशानी है। क्योंकि यह एक बड़ी प्रभावशाली किताब है, जिसे अल्लाह ने एक ऐसे व्यक्ति पर उतारा था, जो पढ़ना लिखना नहीं जानता था। फिर उसने बड़े-बड़े भाषाविदों को चैलेंज कर रखा है कि वे उस जैसी एक किताब या उसकी किसी सूरा जैसी एक सूरा प्रस्तुत करके दिखाएँ। इस किताब की सुरक्षा की ज़िम्मेवारी अल्लाह ने ली है, उसके ज़रिए सही अक़ीदे को सुरक्षा प्रदान की है, उसके अंदर सबसे संपूर्ण धर्म-विधान को समाहित रखा है और उसके द्वारा सबसे उत्तम समुदाय को गठित किया है।6. आप सबसे अंतिम नबी हैं। यदि आप नबी न बनाए जाते, तो उन नबियों की नबूवतें बेमानी होकर रह जातीं, जिन्होंने आपके नबी बनाए जाने की भविष्यवाणी की थी।7. पिछले नबियों ने आपके प्रकट होने से बहुत पहले ही आपके बारे में सूचना दी थी और आपके भेजे जाने के स्थान तथा नगर और विभिन्न समुदायों एवं बादशाहों के आपके अधीन होने और आपके धर्म के चारों दिशाओं में फैलने की सूचना दी थी।8. आपका उन तमाम उम्मतों पर गालिब आना, जिन्होंने आपसे युद्ध किया, आपकी नबूवत की निशानियों में से एक निशानी है, क्योंकि यह असंभव है कि कोई व्यक्ति यह दावा करे कि वह अल्लाह की ओर से भेजा हुआ रसूल है और वह झूठा भी हो, फिर भी अल्लाह उसकी सहायता करे, उसको गलबा प्रदान करे, उसे दुश्मनों पर जीत प्रदान करे, उसके आह्वान को फैलाए, उसके मानने वालों की संख्या बढ़ाता जाए, क्योंकि यह चीजें एक सच्चे नबी के हाथ पर ही पूरी हो सकती हैं।9. आपका व्यवहार, पाकदामनी, सच्चाई, प्रशंसायोग्य आचरण औप आपके द्वारा दिए गए आदेश-निर्देश आदि भी आपकी नबूवत की निशानी हैं। क्योंकि यह सारी बातें एक नबी के अंदर ही एकत्र हो सकती हैं।इस हिदायत पाने वाले व्यक्ति ने इन प्रमाणों को बयान करने के बाद कहा : "ये स्पष्ट बातें एवं पर्याप्त प्रमाण हैं। जिसके अन्दर ये पाई जाएँगी, वह निश्चित रूप से नबी होगा, सफलताएँ उसके क़दम चूमेंगी, उसकी पुष्टि करना ज़रूरी होगा और जो उसे ठुकराएगा उसके हिस्से में असफलता आएगी और वह दुनिया एवं आख़िरत में नाकाम व नामुराद होगा।" [174]इस अनुभाग के अन्त में, मैं आपके सामने दो साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा हूँ। एक तो रोम के भूतपूर्व राजा की गवाही, जो मुहम्मद صلى الله عليه وسلم का समकालीन था और दूसरी गवाही समकालीन अंग्रेज़ ईसाई धर्म प्रचारक जॉन सेंट की है।हिरक़्ल की गवाही : इमाम बुखारी रहिमहुल्लाह ने अबू सुफ़ियान के उस घटना का उल्लेख किया है, जब रोम के बादशाह ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया था। इमाम बुख़ारी कहते हैं : "मुझसे अबुल यमान अल-हकम बिन नाफ़े ने वर्णन किया, वह कहते हैं कि हमसे शुऐब ने ज़ोहरी के माध्यम से बयान किया, वह कहते हैं कि मुझे उबैदुल्लाह बिन अब्दुल्लाह बिन उत्बा बिन मसऊद ने सूचना दी कि अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने उन्हें बतलाया कि उन्हें अबू सुफ़ियान बिन हर्ब ने बताया है कि वह कुरैश के कुछ लोगों के साथ व्यापार के उद्देश्य से शाम गए हुए थे। यह उस समय की बात है जब अल्लाह के पैग़म्बर और कुफ्फ़ार-ए-कुरैश के बीच संधि हो चुकी थी[175]। अबू सुफ़ियान का कहना है कि रोम के बादशाह (Heraclius) ने उनको बुला भेजा, तो वे उससे मिलने ईलिया [176] (बैत अल-मक़दिस) गए। जब वे उसके पास पहुँचे, तो उसने उनको अपनी सभा में बुलाया, जहाँ उसके चारों तरफ रोम के बड़े-बड़े लोग उपस्थित थे। उसने अपने अनुवादक को बुलाया और उसके माध्यम से पूछा : यह आदमी जो अपने आपको पैगम्बर समझता है, इससे तुममें से किसका रिश्ता सबसे निकट का है? अबू सुफ़ियान का कहना है कि मैंने कहा : मेरा रिश्ता उससे सबसे निकट का है। अब उसने कहा : इसे मेरे करीब कर दो और इसके साथियों को भी निकट लाकर इसके ठीक पीछे रहने दो। फिर अपने अनुवादक से कहा : इसके साथियों को बता दो कि मैं इस आदमी से उस व्यक्ति के बारे में प्रश्न करूँगा, जो अपने आपको पैग़म्बर समझता है, अगर यह झूठ बोले तो तुम लोग इसे झुठला देना। अबू सुफ़ियान कहते हैं : अल्लाह की कसम, अगर मुझे इस बात की शर्म महसूस न होती कि मेरे साथी मेरे झूठे होने की चर्चा करेंगे, तो मैं मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में झूठ बोलने से गुरेज़ न करता। उसका सबसे पहला प्रश्न था : तुम लोगों में उसका नसब कैसा है? मैंने कहा : वह हमारे बीच ऊँचे नसब वाला है। उसने कहा : क्या यह बात उससे पहले भी तुममें से किसी ने कही है? मैंने कहा : नहीं। उसने कहा : क्या उसके पूर्वजों में से कोई बादशाह हुआ है? मैंने कहा : नहीं। उसने कहा : अच्छा, तो सम्मानित लोगों ने उसकी बात मानी है या कमजोर लोगों ने? मैंने कहा : कमज़ोर लोगों ने। उसने कहा : क्या यह लोग बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं? मैंने कहा : बढ़ रहे हैं। उसने कहा : क्या उसके धर्म में प्रवेश करने के बाद कोई आदमी उसके धर्म से नाराज़ होकर पलट भी जाता है? मैंने कहा : नहीं। उसने कहा : क्या उसने अभी जो दावा किया है, इससे पहले कभी तुमने उसपर झूठ बोलने का आरोप लगाया है? मैंने कहा : नहीं। उसने कहा : क्या वह धोखा देता है? मेंने कहा : नहीं, किन्तु इस समय हम उसके साथ एक संधि की अवधि में हैं और हमें नहीं पता कि वह क्या करेगा। अबू सुफ़ियान कहते हैं कि इसके सिवा मैं कोई एक बात भी घुसेड़ नहीं सका। उसने कहा : क्या तुम लोगों ने उससे या उसने तुम लोगों से लड़ाई की है? मैंने कहा : हाँ। उसने कहा : तो उसकी और तुम्हारी लड़ाई कैसी रही? मैंने कहा : हमारी लड़ाई बराबर की रही। कभी वह जीता, तो कभी हम जीते। उसने कहा : वह तुम्हें क्या आदेश देता है? मैंने कहा : वह हमें यह आदेश देता है कि हम केवल अल्लाह की इबादत (उपासना) करें, उसके साथ किसी को भी साझी न ठहराएँ और हमारे बाप-दादा जो कुछ पूजते आए हैं, हम उसे छोड़ दें। वह हमें नमाज़, सच्चाई, पाकदामनी और रिश्ते-नाते का ख़याल रखने का आदेश देता है। यह सुन उसने अपने अनुवादक से कहा : इस आदमी (अबू सुफ़ियान) से कह दो कि मैंने तुमसे तुम्हारे बीच उस आदमी (पैग़म्बर) के नसब के बारे में पूछा, तो तुमने बताया कि वह ऊँचे नसब वाला है। इस संदर्भ में याद रखो कि इसी तरह पैगम्बर अपनी कौम के ऊँचे कुल में पैदा हुआ करते हैं। फिर मैंने तुमसे पूछा कि क्या यह बात उससे पहले भी तुममें से किसी ने कही है, तो तुमने बतलाया कि नहीं। अतः, मैं कहता हूँ कि अगर यह बात उससे पहले तुममें से किसी ने कही होती, तो मैं सोचता कि वह एक ऐसी बात कह रहा है, जो उससे पहले कही जा चुकी है। फिर मैंने तुमसे पूछा कि क्या उसके पूर्वजों में से कोई बादशाह हुआ है, तो तुमने जवाब दिया कि नहीं। मैं कहता हूँ कि अगर उसके पूर्वजों में से कोई बादशाह गुज़रा होता, तो मैं कहता कि वह अपने पूर्वजों की बादशाहत प्राप्त करना चाहता है। फिर मैंने तुमसे पूछा कि क्या उसने अभी जो दावा किया है, उसे कहने से पहले तुमने कभी उसपर झूठ बोलने का आरोप लगाया है, तो तुमने कहा कि नहीं। इससे मैं समझ गया कि ऐसा नहीं हो सकता कि वह लोगों के बारे में तो झूठ न बोले और अल्लाह पर झूठ बाँधे। उसके बाद मैंने तुमसे पूछा कि उसकी बात की पैरवी श्रेष्ठ लोगों ने की है या कमजोर लोगों ने, तो तुमने कहा कि कमजोर लोगों ने उसकी पैरवी की है। ऐसे में जान लो वास्तव में पैग़म्बरों के मानने वाले इसी तरह के लोग हुआ करते हैं। फिर मैंने तुमसे पूछा कि क्या उसके मानने वाले बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं, तो तुमने कहा कि वे बढ़ रहे हैं। दरअसल ईमान की बयार इसी तरह बढ़ती जाती है, यहाँ तक कि वह चारों ओर फैल जाता है। फिर मैंने तुमसे पूछा कि क्या उसके धर्म में प्रवेश करने के बाद कोई आदमी उसके धर्म से नाराज़ होकर पलट भी जाता है, तो तुमने कहा कि नहीं। वास्तविकता यह है कि जब ईमान का आनन्द दिलों के अंदर प्रवेश कर जाता है, तो बाहर निकलने का नाम नहीं लेता। फिर मैंने तुमसे पूछा कि क्या वह धोखा देता है, तो तुमने उत्तर दिया कि नहीं। दरअसल पैग़म्बर ऐसे ही हुआ करते हैं। वे धोखा नहीं देते। फिर मैंने तुमसे पूछा कि वह तुम्हें किन बातों का हुक्म देता है, तो तुमने बतलाया कि वह तुम्हें अल्लाह की इबादत करने और उसके साथ किसी को साझी न ठहराने का आदेश देता है, तुम्हें बुतों की पूजा से मना करता है तथा नमाज़ पढ़ने, सच बोलने और पाकबाज़ रहने का आदेश देता है। ऐसे में यदि तुम्हारी बात सही है, तो वह एक दिन मेरे क़दमों के स्थान पर भी अधिकार कर लेगा। मुझे पता था कि वह आने वाला है, किन्तु मेरा गुमान यह नहीं था कि वह तुममें से होगा। अगर मुझे आशा होती कि मैं उसके पास पहुँच सकूँगा, तो मैं उससे मिलने के लिए हर कष्ट सहता और अगर मैं उसके पास होता तो उसके दोनों पाँव धोता। फिर उसने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का वह पत्र मँगवाया, जो आपने देहया कल्बी के मारफ़त बुसरा के राजा के नाम लिखा था। जब पत्र "Heraclius" को दिया गया, तो उसने उसे पढ़ा। उसमें लिखा हुआ था : "शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा दयालु तथा अति दयावान है। यह पत्र अल्लाह के बंदे तथा उसके रसूल मुहम्मद की ओर से रूम के बादशाह "Heraclius" के नाम लिखा गया है। सत्य के मार्ग का अनुसरण करने वालों पर शांति की धारा बरसे। इसके बाद, मैं तुम्हें इस्लाम का आमंत्रण देता हूँ। इस्लाम ग्रहण कर लो, सुरक्षित रहोगे। इस्लाम ग्रहण कर लो, अल्लाह तुम्हें तुम्हारा प्रतिफल दो बार देगा। अगर तुमने मुँह फेरा तो तुमपर अरीसियों [177] यानी तुम्हारी प्रजा का भी गुनाह होगा। "ऐ अह्ले-किताब! एक ऐसी बात की ओर आओ, जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है कि हम केवल अल्लाह ही की पूजा करें और किसी को उसका साझी न बनाएँ और अल्लाह को छोड़कर हम एक-दूसरे को रब (पालनहार) न बनाएँ। अगर लोग मुँह फेरें, तो कह दो कि तुम लोग गवाह रहो कि हम मुसलमान हैं।" [178]समकालीन अंग्रेज़ ईसाई धर्म प्रचारक जॉन सेंट की गवाही : वह कहता है : "व्यक्ति और समूह की सेवा में इस्लाम के सिद्धान्तों और उसके विवरण, तथा बराबरी और एकता के आधार पर समाज को स्थापित करने में उसके न्याय से लगातार अवगत होने के बाद मैं अपने आपको अपने समुचित मन और आत्मा के साथ तेज़ी से इस्लाम की ओर खिंचता हुआ पाता हूँ और उसी दिन से मैंने अल्लाह से वादा किया है कि मैं इस्लाम का प्रचारक बनूँगा और सारी दुनिया में उसके संदेश को आम करने का काम करूँगा।"दरअसल उसे यह विश्वास ईसाई मत के गहरे अध्ययन के बाद प्राप्त हुआ था। उसने महसूस किया था कि ईसाई मत बहुत-से ऐसे प्रश्नों का उत्तर नहीं देता, जो लोगों के जीवन में अकसर पेश आया करते हैं। यहीं से वह संदेहों का शिकार होने लगा, जिसके बाद उसने साम्यवाद एवं बौद्ध धर्म का अध्ययन किया, लेकिन उसकी प्यास न बुझ सकी। फिर उसने इस्लाम का गहरा अध्ययन किया और उसे गले लगाकर लोगों को उसकी ओर बुलाने लगा। [179] ख़त्म-ए-नबूवतपिछली बातों से आपके सामने नबूवत की हक़ीक़त, उसकी निशानियाँ और हमारे नबी मुहम्मद صلى الله عليه وسلم की नबूवत के प्रमाण स्पष्ट रूप से आ चुके हैं। ऐसे में खत्म-ए-नबूवत पर बात करने से पहले आपके लिए यह जानना आवश्यक है कि पवित्र अल्लाह किसी भी रसूल को निम्न कारणों में से किसी एक कारण के तहत ही भेजता है :1- रसूल की रिसालत किसी एक कौम के साथ ख़ास हो और उसे अपना संदेश आसपास के समुदायों को पहुँचाने का आदेश न दिया गया हो, बल्कि अल्लाह दूसरे समुदाय की ओर एक विशेष संदेश के साथ एक अन्य रसूल को भेजे।2- पहले नबी का संदेश लुप्त हो चुका हो। अतः अल्लाह धर्म की पुनः स्थापना के लिए किसी नबी हो भेजे।3- पहले नबी की शरीयत उसके समय के लिए तो उचित रही हो, लेकिन बाद के दौर के लिए उचित न हो, इसलिए ऐसे संदेश एवं शरीयत के साथ एक नबी भेजे, जो उस समय एवं स्थान के अनुरूप हो। वैसे, पवित्र अल्लाह ने मुहम्मद صلى الله عليه وسلم को ऐसे संदेश के साथ भेजा है, जो सारे ज़मीन वालों के लिए है और हर समय व स्थान के लिए उचित है। फिर हर प्रकार के बदलाव और परिवर्तन से उसकी हिफाज़त फ़रमा दी, ताकि आपका संदेश हमेशा जीवित रहे, जिससे लोगों को ज़िन्दगी मिलती रहे और हर प्रकार के छेड़छाड़ और परिवर्तन के दाग से पाक-साफ़ रहे। इन्हीं बातों के मद्देनज़र अल्लाह ने उसे अंतिम संदेश बनाया। [180]अल्लाह ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को एक विशेषता यह प्रदान की है कि आप अंतिम नबी हैं और आपके बाद कोई नबी नहीं होगा। क्योंकि अल्लाह ने आपके द्वारा संदेशों की समाप्ति कर दी है, धर्म-विधानों के सिलसिले का अंत कर दिया है और भवन को पूर्ण रूप प्रदान कर दिया है। आपको नबी बना दिए जाने के बाद ईसा अलैहिस्सलाम की उस भविष्यवाणी ने भी मूर्त रूप ले लिया है, जिसमें उन्होंने कहा था : “क्या तुमने कभी किताबों में नही पढ़ा कि वह पत्थर जिसे बनाने वालों ने ठुकरा दिया था, वही एक कोने के लिए सरदार बन गया।" [181] पादरी इब्राहीम खलील -जिसने बाद में इस्लाम कबूल कर लिया था- ने इस बात को मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अपने बारे में कही हुई इस हदीस के अनुसार माना है : “बेशक मेरी मिसाल और मुझसे पहले के नबियों की मिसाल उस व्यक्ति की तरह है, जिसने एक घर बनाया। बड़ा अच्छा और बहुत सुंदर घर बनाया। मगर एक कोने में एक ईंट की जगह खाली छोड़ दी। चुनांचे लोग उसके चारों ओर चक्कर लगाते और उसपर आश्चर्य करते तथा कहते : तुमने यह ईंट भला क्यों नहीं लगाई?" आपने आगे फरमाया : "तो मैं ही वह ईंट हूँ और मैं नबियों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हूँ।'' [182]यही कारण है कि अल्लाह ने पाक मुहम्मद صلى الله عليه وسلم के द्वारा लाई हुई किताब को पिछली सारी किताबों का निरीक्षक और उनका नासिख़ क़रार दिया। इसी तरह आपकी शरीयत को पिछली तमाम शरीयतों के लिए नासिख बना दिया। अल्लाह ने आपकी शरीयत की हिफाज़त की ज़िम्मेदारी भी स्वयं ले ली। चुनांचे वह भी उसी तरह तवातुर के साथ एक नस्ल से दूसरी नस्ल को हस्तांतरित हुई है, जिस तरह क़ुरआन ध्वनि एवं लिखित रूप से तवातुर के साथ नक़ल हुआ है। साथ ही इस धर्म के विधानों, आदेशों, निषेधों, इबादतों एवं सुन्नतों पर अमल करने का तरीक़ा भी तवातुर के साथ नक़ल हुआ है।हदीस की किताबों से अवगत हर व्यक्ति यह जानता है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने मानव जाति के लिए आपके जीवनचरित्र, आपकी बातों, कर्मों, अल्लाह की इबादत, उसके रास्ते में जिहाद, उसके ज़िक्र और उससे क्षमा याचना, आपकी दानशीलता, वीरता, अपने साथियों तथा बाहर से आने वालों के साथ व्यवहार, आपकी ख़ुशी, गम, यात्रा, घर में रहने का तौर तरीक़ा, खाने तथा पीने एवं वस्त्र धारण करने का तौर तरीक़ा और सोने-जाने से संबंधित बातें पूरी बारीकी से वर्णन की हैं। जब आपको यह एहसास होगा, तो विश्वास हो जाएगा कि इस धर्म को अल्लाह ने सुरक्षित रखा है और जिसके कारण यह आज तक सुरक्षित है। तब यह विश्वास अपने आप प्राप्त हो जाएगा कि आप नबियों तथा रसूलों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हैं। क्योंकि अल्लाह तआला ने हमें बताया है कि आप नबियों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हैं। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : “मुहम्मद तुममें से किसी पुरुष के पिता नहीं हैं, लेकिन वे अल्लाह के रसूल और अंतिम नबी हैं।”[183] और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खुद अपने विषय में फ़रमाया है : “मैं पूरी मखलूक की ओर रसूल बनाकर भेजा गया हूँ और मेरे द्वारा नबियों का सिलसिला ख़त्म कर दिया गया।" [184]अब इस्लाम की परिभाषा, उसकी वास्तविकता, उसके स्रोतों, स्तंभों और उसके दर्जों को बयान करने का समय है।"इस्लाम" शब्द का अर्थ :जब आप अरबी भाषा के शब्दकोषों का अध्ययन करेंगे, तो आपको मालूम होगा कि “इस्लाम'' शब्द का अर्थ है : मान लेना, झुक जाना, फ़रमाँबरदार होना, सिर झुका देना और आदेश देने वाले के आदेश और उसकी मनाही को बिना किसी आपत्ति के मान लेना। अल्लाह पाक ने सच्चे धर्म को “इस्लाम'' का नाम दिया है, क्योंकि इस्लाम नाम है बिना किसी आपत्ति के अल्लाह का आज्ञापालन करने, उसके आदेश को पूरा करने, विशुद्ध रूप से अल्लाह की इबादत करने, उसकी बताई हुई बातों को सच जानने और उनपर ईमान लाने का। फिर इस्लाम विशेष रूप से उस धर्म का नाम हो गया, जो मुहम्मद صلى الله عليه وسلم के द्वारा लाया गया है।इस्लाम की परिभाषा [185] :इस धर्म का नाम इस्लाम क्यों रखा गया? बेशक ज़मीन पर पाए जाने वाले अनेक प्रकार के धर्मों के उनके अपने-अपने नाम हैं। धर्मों का नामकरण कभी तो किसी विशेष व्यक्ति या फिर विशेष समुदाय के नाम पर हुआ है। चुनांचे नसरानियत को “नसारा'' से लिया गया है, बौद्ध धर्म को उसके संस्थापक बुद्ध के नाम से जाना जाता है और ज़रदुश्ती धर्म (पारसी धर्म) को उसकी बुनियाद रखने वाले ज़रदुश्त के नाम से पहचाना जाता है। इसी प्रकार यहूदी धर्म का उदय एक ऐसे कबीले के बीच हुआ जो “यहूज़ा'' के नाम से प्रसिद्ध था, इसीलिए उसे यहूदी का नाम दिया गया। इसी से अन्य धर्मों का हाल जाना जा सकता है। मगर इस्लाम के साथ ऐसा नहीं है। उसका नामकरण न तो किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर हुआ है और न किसी विशेष समुदाय के नाम पर है। बल्कि उसका नाम एक ऐसी विशेषता को बतलाता है, जो इस्लाम शब्द के अंदर पाया जाता है। इस नाम से जो बातें ज़ाहिर होती हैं, उनमें से एक यह है कि इस धर्म को वजूद में लाने वाला और इसकी स्थापना करने वाला कोई मनुष्य नहीं है, और न ही यह धर्म किसी विशेष समुदाय के लिए है कि दूसरे समुदायों का उसपर कोई अधिकार न हो। इसका लक्ष्य यह है कि जमीन में रहने वाले सारे लोग इस्लाम की विशेषता को अपने अंदर समाहित कर लें। जो भी व्यक्ति इस विशेषता को अपना लेगा, चाहे उसका संबंध भूतकाल से रहा हो, वर्तमान काल से या आने वाले समय से हो, वह मुसलमान कहलाएगा। इस्लाम की वास्तविकता :यह बात मालूम है कि इस सृष्टि की हर चीज़ एक विशेष आदेश और साबित मार्ग का पालन करती है। सूर्य, चाँद, ज़मीन और सितारे एक समान्य शासन के अधीन काम कर रहे हैं। वे न तो बाल बराबर उससे हिल सकते हैं और न ही उससे निकल सकते हैं। यहाँ तक कि मनुष्य भी, जब वह अपनी अवस्था पर विचार करेगा, उसके लिए साफ हो जाएगा कि वह अल्लाह के मार्गों का पूर्ण रूप से पालन कर रहा है। न तो वह साँस लेता है, न उसे पानी, आहार, रोशनी और गर्मी की आवश्यकता होती है, मगर उसी समय जब अल्लाह की बनाई हुई तक़दीर चाहती है, जो जीवन को चलाता है और उसके सारे अंग उसी तक़दीर के अनुसार काम करते हैं। जितने भी काम ये अंग करते हैं, वह अल्लाह की बनाई हुई तक़दीर के अनुसार ही करते हैं।यह व्यापक तक़दीर, जिसका सृष्टि की सारी चीजें अनुपालन करती हैं और आसमान के सबसे विशाल ग्रह से लेकर, ज़मीन की रेत के सबसे छोटे कण तक, इस ब्राह्मांड की कोई भी चीज़ उसके अनुपालन से जुदा नहीं है, सब कुछ उस एक सामर्थ्यवान एवं वैभवशाली बादशाह और पूज्य की तकदीर के अधीन है। अतः, जब आसमान व ज़मीन और उनके बीच की सारी चीजें उसी तक़दीर के अधीन हैं, तो यह सारा ब्राह्मांड उसी सामर्थ्वान बादशाह के आदेश अनुसार चलता है, जिसने उसे पैदा किया है। इस विवरण से यह बात साफ हो जाती है कि इस्लाम ही सारी सृष्टि का धर्म है। क्योंकि इस्लाम का मतलब ही होता है, बात मानना और बिना किसी आपत्ति के आदेशकर्ता के आदेशों एवं निषेधों का पालन करना, जैसा कि अभी-अभी आपने जाना है। इस तरह, सूर्य, चाँद और ज़मीन उसी के आदेश के अधीन हैं तथा हवा, पानी, रोशनी, अंधेरा और गर्मी उसी के आदेश के अधीन है। इसी प्रकार पेड़, पत्थर और चौपाये भी उसी के आदेश के अधीन हैं। बल्कि वह मनुष्य भी जो अपने रब को नहीं पहचानता, उसके अस्तित्व को नकारता और उसकी निशानियों का इंकार करता है, या उसके अलावा किसी और की इबादत करता और उसके साथ किसी और को साझेदार बनाता है, वह भी अपनी उस फ़ितरत के अनुसार जिसपर अल्लाह ने उसे पैदा किया है, उसके आदेश के अधीन है।जब आपने यह सब जान लिया, तो आइए हम मनुष्य के अंदर विचार करें। आप पाएँगे कि इंसान को दो चीज़ों अपनी-अपनी ओर खींचने में लगी हुई :1. मनुष्य की फ़ितरत, जिसपर अल्लाह ने उसे पैदा किया है। उदाहरण के तौर अल्लाह के आगे झुकना, उससे मुहब्बत करना, उसकी इबादत करना, उसकी निकटता प्राप्त करना, सत्य, भलाई तथा सच्चाई आदि जिन चीज़ों से अल्लाह मुहब्बत करता है उनसे मुहब्बत करना और असत्य, बुराई, अत्यार एवं ज़ुल्म आदि जिन चीज़ों से वह नफ़रत करता है उनसे नफरत करना। साथ ही इसके अतिरिक्त फ़ितरत के अन्य तक़ाज़े जैसे धन, परिवार एवं संतान का मोह, खाने, पीने एवं निकाह की चाहत इन बातों के तक़ाज़े के तौर पर होने वाले अन्य काम, जैसे शरीर के अंगों का उनका आवश्यक काम करना।2. मनुष्य की चाहत और उसकी इच्छा। अल्लाह ने मनुष्य की ओर रसूलों को भेजा और किताबें उतारीं, ताकि वह सत्य एवं असत्य, हिदायत और गुमराही तथा अच्छाई एवं बुराई के बीच अंतर कर सके। इसी तरह उसे अक्ल व समझ प्रदान, ताकि चयन के समय समझ-बूझ से काम ले। अगर वह चाहे, तो अच्छाई के मार्ग पर चले, जो उसको सत्य एवं हिदायत की ओर ले जाएगा और अगर चाहे, तो बुराई के मार्गों पर चले, जो उसे पाप और विनाश की ओर ले जाएगा।अगर आप मनुष्य की फ़ितरत के एतबार से उसके बारे में विचार करेंगे, तो आप उसे पैदाइशी तौर पर आज्ञाकारी, आज्ञापालन के मार्ग पर चलने वाला और अन्य सृष्टियों की तरह ही इससे अलग न होने वाला पाएँगे।लेकिन मानव इच्छा के एतबारे से उसपर विचार करेंगे, तो आप उसे स्वयं अपनी इच्छी का मालिक पाएँगे, जो जो रास्ता चाहे चुन सकता है। चाहे तो आज्ञापालन का मार्ग चुने और चाहे तो अवज्ञा की राह पर चले। “या शुक्र करने वाला या कुफ़ करने वाला।'' [186]इसीलिए आपको दो तरह के लोग मिलेंगे :एक वह इंसान, जो अपने पैदा करने वाले को पहचानता और उसके रब, मालिक और माबूद होने पर विश्वास रखता है। वह केवल उसी की इबादत करता है और अपने ऐच्छिक जीवन में उसी की शरीयत पर चलता है। जैसा कि उसकी रचना के समय ही उसकी फ़ितरत में अपने पालनहार को मानने, उसका अनुसरण करने और उसके नियोजन के अनुसार जीवन व्यतीत करने की बात रख दी गई थी। इसी प्रकार का इंसान संपूर्ण मुसलमान। इसका ज्ञान सही माना जाएगा। क्योंकि उसने अल्लाह को पहचाना, जो उसका ख़ालिक़ एवं रचनाकार है और जिसने उसकी ओर रसूलों को भेजा तथा जानने और सीखने की क्षमता प्रदान की। उसका विवेक भी सही माना जाएगा। क्योंकि उसने सोच-विचार से काम लिया और उसके बाद यह निर्णय लिया कि वह केवल उसी अल्लाह की इबादत करेगा, जिसने उसको सारी बातों पर विचार करने और उनको समझने की योग्यता दी है। उसकी ज़बान भी सही और सत्य बोलने वाली हो गई। क्योंकि अब वह केवल उसी एक रब का इक़रार करती है, जिसने उसे बोलने और अपनी बात कहने की शक्ति दी है।अब गोया उसके जीवन में सच ही सच है, क्योंकि वह अपने उन कामों में, जिनमें उसकी इच्छा का दख़ल है, अल्लाह की शरीयत का पालन कर रहा है तथा उसके और अन्य सारी सृष्टियों के बीच परिचय और प्रेम का रिश्ता कायम हो चुका है। क्योंकि वह केवल उसी ज्ञानवान एवं हिकमत वाले अल्लाह की इबादत करता है, जिसके आदेश का अनुपालन सारी सृष्टियाँ करती हैं और जिसकी निर्धारित तक़दीर के अनुसार सारी मख़लूक़ात चलती हैं, जिन्हें उसने तुम्हारे काम में लगा रखा है। कुफ्र की वास्तविकता :उसके विपरीत एक दूसरा मनुष्य है, जो मानने वाला बनकर पैदा हुआ और अपना पूरा जीवन मानने वाला बनकर ही बिताया, मगर अपने मानने वाले होने का एहसास न कर सका और अपने रब को पहचान न सका। चुनांचे उसकी शरीयत पर ईमान नहीं लाया, उसके रसूलों की बात नहीं मानी और उसे अल्लाह ने जो ज्ञान और विवेक दे रखा था उसका इस्तेमाल नहीं किया कि उस हस्ती को पहचान सके, जिसने उसे पैदा किया है और उसके कान और आँख बनाए हैं। परिणामस्वरूप उसने उसके अस्तित्व का इंकार कर दिया, उसकी इबादत से मुँह मोड़ लिया और इस बात पर आमादा नहीं हुआ कि अपने जीवन के एख़्तियार वाले कामों में अल्लाह की शरीयत का पालन करे या फिर उसने अन्य वस्तुओं को अल्लाह का साझी बना डाला। उसने अल्लाह की उन निशानियों पर भी ईमान लाने से इंकार कर दिया, जो उसकी वहदानियत (अकेला होने) को प्रमाणित करती हैं। इसी प्रकार के व्यक्ति को काफ़िर (अविश्वासी) कहते हैं। क्योंकि कुफ्र का अर्थ छुपाना और ढाँपना है। कहा जाता है : "كفر درعه بثوبه" यानी उसने अपने कवच को अपने कपड़े को छुपा दिया। फिर, इस तरह के व्यक्ति को खाफ़िर इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उसने अपनी प्रकृति को अज्ञानता और मूर्खता के परदे में छुपा दिया है। आपको अच्छी तरह मालूम है कि इंसान इस्लाम की प्रकृति पर पैदा होता है और उसके शरीर के सारे अंग इस्लाम की प्रकृति के अनुसार ही काम करते हैं। मनुष्य के चारों ओर की सारी सृष्टि भी “मानने'' के मार्ग पर चल रही है। लेकिन उसने उसे अपनी अज्ञानता और मूर्खता के पर्दे में डाल दिया है तथा उसके विवेक से इस ब्राह्मांड की प्रकृति और स्वयं उसकी प्रकृति छुप गई है। इसलिए आप देखेंगे कि वह अपनी बुद्धि एवं विवेक से संबंधित शक्तियों को प्रकृति विरोधी कार्यों में ही इस्तेमाल कर रहा है। उसे उसके विपरीत चीजें ही दिखाई देती हैं और प्रकृति को नष्ट करने वाली चीज़ों के पीछे ही उसकी सारी दौड़-भाग होती है।अब आप खुद ही विचार करें कि काफ़िर कितनी दूर की गुमराही और खुले अंधकार में डूबा हुआ होता है। [187]यह इस्लाम, जो आपसे यह अपेक्षा करता है कि आप उसका अनुसरण करें, इसका पालन करना मुश्किल काम नहीं, बल्कि अल्लाह आसान कर दे तो बड़ा आसान है। इसी इस्लाम पर सारी सृष्टि चल रही है : "और तमाम आसमानों वाले और ज़मीन वाले सभी उसी की बात मानने वाले हैं, चाहे खुशी से या नाखुशी से।" [188] यही अल्लाह का धर्म है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया : "नि:सन्देह अल्लाह के निकट धर्म इस्लाम ही है।" [189] उसका अर्थ है, अपने सिर को अल्लाह के आगे झुका देना। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "अगर ये आपसे झगड़ें, तो आप कह दें कि मैंने और मेरी बात मानने वालों ने अल्लाह के लिए सिर को झुका दिया है।" [190] नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस्लाम का अर्थ बताते हुए फ़रमाया है : “तुम अपने हृदय अल्लाह के हवाले कर दो, अपने चेहरे को उसी की ओर मोड़ दो और फर्ज़ ज़कात अदा करो।" [191] एक व्यक्ति ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा कि इस्लाम क्या है? तो आपने उत्तर दिया : "तुम्हारा हृदय अल्लाह के आगे झुक जाए और तुम्हारी ज़बान और हाथ से मुसलमान महफूज़ रहें।" उसने पूछा : इस्लाम की कौन-सी बात सबसे उत्तम है? फ़रमाया : "ईमान।" पूछा : ईमान क्या है? फ़रमाया : "यह कि तुम ईमान लाओ अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर, उसके रसूलों पर और मृत्यु के बाद दोबारा ज़िन्दा किए जाने पर।" [192] इसी तरह अल्लाह के रसूल ने फरमाया है : “इस्लाम यह है कि तुम इस बात की गवाही दो कि अल्लाह के सिवा कोई सच्चा माबूद नहीं है और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं, नमाज़ क़ायम करो, ज़कात अदा करो, रमज़ान के रोज़े रखो और यदि सामर्थ्य हो तो अल्लाह के घर काबा का हज करो।" [193] इसी तरह आपका फ़रमान है : "असल मुसलमान वह है, जिसकी ज़बान और हाथ से दूसरे मुसलमान सुरक्षित रहें।" [194]यही धर्म इस्लाम धर्म है, जिसे छोड़कर किसी धर्म को अल्लाह ग्रहण नहीं करेगा। न पहले के लोगों से, न बाद के लोगों से। क्योंकि तमाम नबी इसी धर्म के प्रचारक थे। अल्लाह तआला ने नूह अलैहिस्सलाम के बारे में कहा है : "ऐ मेरी कौम, अगर तुमको मेरा रहना और अल्लाह की आयतों की नसीहत करना भारी लगता है, तो मैं तो केवल अल्लाह ही पर भरोसा करता हूँ ... यहाँ से इन शब्दों तक : और मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं मुसलमानों में से रहूँ।" [195] इसी तरह इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बारे में कहा है : "जब उनके रब ने उनसे कहा : तू मेरा अज्ञाकारी हो जा। उन्होंने कहा : मैं सारे जहान के रब का आज्ञाकारी हो गया।'' [196] इसी तरह मूसा عليه السلام के बारे में फरमाया है : और मूसा ने कहा : “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, अगर तुम अल्लाह पर ईमान लाए हो, तो उसीपर भरोसा करो, अगर तुम मुसलमान हो।'' [197] इसी ईसा अलैहिस्सलाम की घटना में कहा है : "और जबकि मैंने हवारियों को आदेश दिया कि मुझपर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ, तो उन्होंने कहा कि हम ईमान लाए और आप गवाह रहिए कि हम मुसलमान हैं।'' [198]यह इस्लाम धर्म अपना विधान, धारणाएँ और आदेश तथा निषेध अल्लाह की प्रकाशना यानी क़ुरआन थता सुन्नत से प्राप्त करता है। अब हम संक्षिप्त में क़ुरआन एवं सुन्नत के बारे में कुछ बातें बयान करते हैं। इस्लाम के स्रोतअसत्य धर्मों एवं तथाकथित पंथों के मानने ऐसी पुस्तकों का सम्मान करते आए हैं, जो उन्हें नस्ल-दर-नस्ल हस्तांतरित होती आई हैं। जो लिखी तो पुराने समयों में गई हैं, लेकिन अकसर न उनके लिखने वाले का पता होता और न अनुवाद करने वाले का और न यह मालूम होता है कि कब लिखी गई हैं। दरअसल उन्हें ऐसे मनुष्यों ने लिखा है, जो दूसरे मनुष्यों की तरह ही बहुत सी कमियों, कोताहियों और भूलचूक के शिकार हुए होंगे।लेकिन जबाँ तक इस्लाम की बात है, तो उसे दूसरे धर्मों की तुलना में यह विशिष्टता प्राप्त है कि वह अल्लाह की वह्य पर आधारित सच्चे स्रोत यानी क़ुरआन एवं सुन्नत पर टिका हुआ है।अब आइए संक्षिप्त में इन दोनों से परिचित हो जाएँ : क- पवित्र कुरआन :अब तक जो कुछ बयान हो चुका है, उससे आप अवगत हो गए हैं कि इस्लाम अल्लाह का धर्म है। इसी धर्म की स्थापना के लिए अल्लाह ने कुरआन को मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतारा, जो लोगों का मार्गदर्शन, मुसलमानों का संविधान, जिन लोगों को अल्लाह शिफ़ा देना चाहे उनके दिलों के लिए शिफ़ा और जिनको सफलता एवं रोशनी प्रदान करना चाहे, उनके लिए दीपक है। कुरआन उस सिद्धांतों पर सम्मिलित है, जिनके लिए अल्लाह ने रसूलों [199] को भेजा। कुरआन कोई नई किताब नहीं है, जैसे कि मुहम्मद صلى الله عليه وسلم कोई नए नबी नहीं थे। अल्लाह ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम पर सहीफ़े उतारे थे, मूसा عليه السلام पर तौरात उतारी थी, दाऊद अलैहिस्सलाम को ज़बूर प्रदान किया था और ईसा अलैहिस्सलाम इंजील लाए थे। यह सारी किताबें अल्लाह की ओर से वह्य हैं, जिनको अल्लाह ने नबियों और रसूलों पर उतारा था। लेकिन इनमें से अधिकतर गुम हो चुकी हैं, उनके अधिकतर भाग मिट चुके हैं और उनके साथ छेड़छाड़ की गई है।लेकिन कुरआन की रक्षा की ज़िम्मेदारी स्वयं अल्लाह ने ली है और उसे पिछली किताबों का संरक्षक और उनका नासिख़ (निरस्त करने वाला) बनाया है। अल्लाह तआला का फरमान है : "और हमने आपकी ओर हक के साथ यह किताब उतारी है, जो अपने से अगली किताबों की पुष्टि करने वाली है और उनकी संरक्षक है।'' [200] अल्लाह ने उसे हर चीज़ को बयान करने वाली किताब कहा है । अल्लाह का फ़रमान है : "और हमने तुझपर यह किताब उतारी है, जिसमें हर चीज़ का संतोषजनक बयान है।'' [201] उसे मार्गदर्शन एवं कृपालुता भी कहा है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया : “अब तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से एक खुला तर्क और मार्गदर्शन तथा दया आ गई है।'' [202] यह भी कहा है कि कुरआन सीधा रास्ता दिखाता है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "सत्य में यह कुरआन वह रास्ता दिखाता है, जो बहुत ही सीधा है।" [203] वह इन्सानों को ज़िन्दगी के हर मोड़ पर सबसे सीधा रास्ता दिखाता है।यह मुहम्मद صلى الله عليه وسلم की उन निशानियों में से एक है, जो क़यामत के दिन तक बाक़ी रहेंगी। पिछले नबियों के चमत्कार उनके जीवन की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाया करते थे, लेकिन क़ुरआन एक बाक़ी रहने वाला चमत्कार है।क़ुरआन एक प्रभावशाली चमत्कार और रौशन निशानी भी है। अल्लाह ने मानव जाति को चैलेंज कर रखा है कि वह उसके जैसी कोई पुस्तक या उसकी जैसी दस सूरतें या फिर कम से कम एक सूरा ही लाकर दिखाए। लेकिन वह इस चुनौती को स्वीकार न कर सका। जबकि वह अक्षरों एवं शब्दों ही से बना है और जिस समुदाय पर क़ुरआन उतरा था, उसे अपनी साहित्यिक संपदा पर बड़ा नाज़ था। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "क्या यह लोग यह कहते हैं कि आपने उसको घड़ लिया है? आप कह दीजिए कि तो फिर तुम उसकी तरह एक ही सूरा लाओ और अल्लाह के अतिरिक्त जिनको भी बुला सको बुला लो, अगर तुम सच्चे हो।'' [204]कुरआन अल्लाह की वह्य है, इसका एक प्रमाण यह है कि इसके अन्दर पिछली उम्मतों की बहुत-सी कहानियाँ मौजूद हैं। उसने आने वाले समय से संबंधित कई भविष्यवाणियाँ कीं, जो बिल्कुल उसी तरह घटित हुईं। उसने बहुत-से ऐसे वैज्ञानिक तथ्य भी बयान किए, जिनमें से कुछ के बारे में वैज्ञानिक इस आधुनिक काल ही में पता लगा सके। कुरआन के अल्लाह की वाणी होने का एक प्रमाण यह भी है कि अल्लाह के नबी ने, जिनपर यह क़ुरआन उतरा था, क़ुरआन के अवतरण से पहले न इस तरह की वाणी प्रस्तुत की है और न ही इससे मिलती-जुलती कोई वाणी। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “आप कह दीजिए कि अगर अल्लाह को मंज़ूर होता, तो न मैं तुमको पढ़कर सुनाता और न अल्लाह तआला तुमको इसकी ख़बर देता, क्योंकि मैं इससे पहले तो एक बड़ी आयु तक तुममें रह चुका हूँ, फिर क्या तुम अक्ल नहीं रखते।'' [205] वह पढ़ाई-लिखाई से वंचित व्यक्ति थे, न पढ़ सकते थे और न लिख सकते थे। न किसी गुरू के पास कभी गए, न किसी शिक्षक के पास बैठे। न तो पढ़ सकते थे और न ही लिखना जानते थे। लेकिन इसके बावजूद भाषाविदों को चुनौती देते थे कि क़ुरआन के जैसी कोई पुस्तक लाकर दिखाएँ। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "इससे पहले तो आप कोई किताब पढ़ते न थे और न किसी किताब को अपने हाथ से लिखते थे कि यह बातिल की पूजा करने वाले लोग शक में पड़ते।'' [206] यह पढ़ने-लिखने से वंचित व्यक्ति, जिसके बारे में तौरात और इंजील भी में लिखा है कि वह अनपढ़ होगा और पढ़-लिख नहीं सकेगा, उसके पास यहूदी एवं ईसाई धर्मों के धर्म गुरू -जिनके पास तौरात एवं इंजील के बचे हुए भाग मौजूद थे- आते थे और उन मामलों में उससे पूछते थे, जिनमें उनका मतभेजा हो जाया करता था। अल्लाह तआला ने तौरात एवं इंजील में मौजूद अल्लाह के अंतिम नबी की सूचना को स्पष्ट करते हुए कहा है : “जो लोग ऐसे रसूल अनपढ़ नबी का आज्ञापालन करते हैं, जिनको वह लोग अपने पास तौरात व इंजील में लिखा हुआ पाते हैं, वह उनको नेक बातों का आदेश देते हैं और बुरी बातों से रोकते हैं और पाकीज़ा चीज़ों को हलाल बताते हैं और गंदी चीज़ों को उनपर हराम फ़रमाते हैं।'' [207] यूदियों एवं ईसाइयों द्वारा मुहम्मद صلى الله عليه وسلم से पूछे गए प्रश्न का विवरण देते हुए कहा है : “अह्ले किताब आपसे अनुरोध करते हैं कि आप उनके पास कोई आसमानी किताब लाएँ।'' [208] इसी तरह फ़रमाया है : "और यह लोग आपसे रूह के बारे में प्रश्न करते हैं।" [209] एक अन्य स्थान में कहा है : “और यह लोग आपसे ज़ुल-क़रनैन के बारे में पूछ रहे हैं।" [210] एक और स्थान में फ़रमाया है : "बेशक यह कुरआन बनी इसराईल के सामने उन अधिकतर चीज़ों का बयान कर रहा है, जिनमें यह विवाद रखते हैं।" [211]पादरी इब्राहीम फिलिप्स ने अपने पी.एच.डी. के शोधपत्र में कुरआन के अंदर कमी निकालने का प्रयत्न किया था, लेकिन सफल नहीं हुआ। कुरआन ने अपने मजबूत तर्कों से उसे ऐसा करने से असमर्थ कर दिया। अंततः उसने अपने असमर्थ होने की घोषणा कर दी और अपने रब के सामने नतमस्तक होते हुए इस्लाम स्वीकार कर लिया। [212]जब एक मुसलमान ने अमरीकी डॉक्टर जेफ़री लैंग (Jaffrey Lang) को एक अनूदित कुरआन भेंट किया, तो उसने पाया कि कुरआन उसकी आत्मा को संभोधित करता है और उसके प्रश्नों का उत्तर देता है तथा इंसान एवं उसकी आत्मा के बीच की रुकावट को दूर करता है। उसने यहाँ तक कह दिया : “ऐसा लगता है कि जिसने कुरआन उतारा है, वह मेरे बारे में स्वयं मुझसे भी अधिक जानता है।" [213] ऐसा हो भी क्यों ना? जिसने क़ुरआन उतारा है, उसी ने इंसान को पैदा किया है। वह पवित्र अल्लाह की हस्ती है। उसका फ़रमान है : "क्या वही न जाने जिसने पैदा किया? फिर वह बारीक बीं और जानता भी हो।" [214] उसका अनूदित क़ुरआन का अध्ययन उसके इस्लाम ग्रहण करने और इस किताब को लिखने का कारण बन गया, जिससे मैंने यह उद्धरण लिया है।महान कुरआन हर उस चीज़ को सम्मिलित है, जिसकी मनुष्य को ज़रूरत पड़ती है। उसके अंदर बुनियादी सिद्धांत, आस्थाएँ, आदेश एवं निषेध, मामलात और आदाब आदि, सब कुछ मौजूद है। अल्लाह तआला को फ़रमान है : "हमने पुस्तक में कोई चीज़ नहीं छोड़ी।'' [215] उसके अंदर अल्लाह को एक मानने की ओर बुलाया गया है। उसके नाम, काम तथा विशेषताओं का वर्णन है। वह नबियों और रसूलों की लाई हुई शिक्षाओं को सत्य बताता है। आख़िरत, प्रतिफल और हिसाब की ताकीद करता है और इसके तर्क भी देता है। पिछली उम्मतों की घटनाओं का वर्णन करता है, उनको जो कठोर दंड मिले उनको बयान करता है और आखिरत में उनको जो दंड मिलेगा, उसका भी उल्लेख करता है।उसके अंदर बहुत सी ऐसी दलीलें, निशानियाँ और तर्क मौजूद हैं, जो विद्वानों को चकित कर देते हैं। यह हर युग के लिए उपयुक्त है । इसके अंदर वैज्ञानिक तथा खोज करने वाले अपनी खोई हुई कामना पाते हैं। आपके समक्ष केवल तीन उदाहरण प्रस्तुत, जो मेरे इस दावे को किसी हद तक स्पष्ट कर देंगे। ये उदाहरण कुछ इस प्रकार हैं :1- अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और वही है जिसने मिला दिया दो सागरों को, यह मीठा रुचिकर है और वह नमकीन खारा, और उसने बना दिया दोनों के बीच एक पर्दा एवं रोक।'' [216] एक दूसरी जगह अल्लाह तआला ने फ़रमाया : "या फिर जैसे एक गहरे समुद्र में अंधेरे, लहर के ऊपर लहर छा रही है, उसके ऊपर बादल है, अंधेरे हैं एक पर एक। जब वह अपना हाथ निकाले तो उसे वह सुझाई देता प्रतीत न हो। जिसे अल्लाह ही प्रकाश न दे, उसके लिए कोई प्रकाश नहीं।'' [217]सर्वविदित है कि अल्लाह के अंतिम नबी صلى الله عليه وسلم ने समुद्र की यात्रा नहीं की थी और न ही उनके युग में ऐसे साधन थे, जो समुद्र की गहराई का पता लगाने में सहायक होते। ऐसे में अल्लाह के अतिरिक्त भला किसने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह जानकारियाँ प्रदान कीं?2- अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और बेशक हमने इंसान को खनखनाती मिट्टी के सार (खुलासा) से पैदा किया। फिर उसे वीर्य बनाकर एक सुरक्षित जगह में रख दिया। फिर वीर्य को हमने जमा हुआ खून बना दिया, फिर उस खून के लोथड़े को गोश्त का टुकड़ा बना दिया, फिर गोश्त के टुकड़े में हड्डियाँ बनाईं, फिर हड्डियों को गोश्त पहना दिया, फिर एक दूसरी शक्ल में उसे पैदा कर दिया। बाबरकत है वह अल्लाह, जो सबसे अच्छी पैदाइश करने वाला है।" [218] जबकि सच्चाई यह है कि वैज्ञानिकों ने भ्रूण रचना के विभिन्न चरणों के ये सूक्ष्म विवरण आज के इस दौर में आकर ही प्राप्त किए।3- अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और उसी (अल्लाह) के पास गैब की कुंजियाँ हैं, जिनको सिर्फ वही जानता है, और जो थल और जल में है उन सभी को वह जानता है और जो भी पत्ता गिरता है उसे भी वह जानता है और जमीन के अंधेरों में जो भी दाना है और जो भी तर तथा ख़ुश्क है, सब कुछ एक खुली किताब में है।" [219] मानव समाज इतनी व्यापक जानकारी एकत्र कर पाना तो दूर, अभी तक इसके बारे में सोच भी नहीं सका है। बल्कि जब कुछ वैज्ञानिकों ने किसी पौधे या किसी कीट का अध्ययन किया और उसके बारे में प्रयाप्त जानकारियों को एकत्र किया, तो हम उन्हें जानकर आश्चर्यचकित रह गए। हालाँकि उनके द्वारा जुटाई गई जानकारियों के मुक़ाबले में उनकी पहुँच से बाहर रह जाने वाली जानकारियाँ कहीं अधिक हैं।फ्रांसीसी विद्वान मोरेस बोकाय ने कुरआन, इंजील, तौरात और उन आधुनिक खोजों तथा आविष्कारों के बीच तुलना की, जिनका संबंध धरती, आकाश तथा मनुष्य की रचना से है , तो उसने पाया कि आधुनिक खोजें क़ुरआन के वर्णन के अनुरूप हैं। जबकि उसने पाया कि इस समय मौजूद तौरात तथा इंजील के अंदर जानवरों, इन्सानों, आकाशों एवं धरती की रचना से संबंधित बहुत सारी बातें ग़लत हैं।[220] ख- नबी की सुन्नत :अल्लाह तआला ने मुहम्मद पर कुरआन करीम को उतारा और आपकी ओर उसी के समान एक अन्य चीज़ की वह्य की। वह है, आप की सुन्नत, जो कुरआन की व्याख्या करती है और उसके आदेशों को स्पष्ट करती है। आप صلى الله عليه وسلم का फ़रमान है : "सुनो! मुझे कुरआन और उसके समान एक और चीज़ दी गई है।" [221] अल्लाह तआला ने आपको यह अनुमति प्रदान की थी कि आप कुरआन में जो साधारण, विशेष या संक्षिप्त बातें हैं उनको स्पष्ट कर दें। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “यह जिक्र (किताब) हमने आपकी ओर उतारी है कि लोगों की तरफ़ जो उतारा गया है, आप उसे स्पष्ट रूप से बयान कर दें, शायद कि वे सोच-विचार करें।" [222]हदीस इस्लाम का दूसरा स्रोत है। इससे मुराद आपके वह सारे कथन, कार्य, सहमतियाँ एवं विशेषताएँ हैं, जो वर्णनकर्ताओं की सहीह एवं अखंड श्रृंखला के माध्यम से आपसे वर्णित हैं।यह अल्लाह की ओर से उसके रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर अवतरित होने वाली वह्य है। क्योंकि नबी صلى الله عليه وسلم अपनी इच्छा से कुछ नहीं बोलते। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “वह तो केवल वह्य है, जो उतारी जाती है। उसे पूरी ताक़त वाले फ़रिश्ते ने सिखाया है।'' [223] आप, लोगों को वही कुछ पहुँचा दिया करते थे, जिसका आदेश अल्लाह की ओर से प्राप्त होता था। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "मैं तो सिर्फ उसी की पैरवी करता हूँ, जो मेरी तरफ़ वह्य की जाती है और मैं तो केवल स्पष्ट रूप से सावधान कर देने वाला हूँ।'' [224]दरअसल पवित्र सुन्नत इस्लाम के आदेशों एवं निषेधों, धारणाओं, इबादतों, मामलात और शिष्टाचारों का अमली रूप है। क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने रब के आदेशों का पालन करते, उनकी व्याख्या करते और लोगों को आप ही की तरह उनका पालन करने का आदेश देते थे। अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया है : "तुम लोग तरह नमाज़ पढ़ो, जिस तरह तुमने मुझे नमाज़ पढ़ते हुए देखा है।" [225] अल्लाह ने मोमिनों को आदेश दिया है कि वे आपके द्वारा किए गए कामों एवं कही गई बातों का अनुसरण करें, ताकि उन्हें संपूर्ण ईमान प्राप्त हो सके। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “यकीनन तुम्हारे लिए रसूलुल्लाह में अच्छा नमूना है, हर इंसान के लिए जो अल्लाह की और क़यामत के दिन की उम्मीद रखता है, और बहुत ज़्यादा अल्लाह का जिक्र करता है।" [226] सहाबा رضي الله عنهم ने अल्लाह के नबी صلى الله عليه وسلم की हदीसों को अपने बाद वालों के लिए नक़ल किया और उन लोगों ने भी उनको अपने बाद आने वाल लोगों के लिए नकल किया। फिर हदीसों को किताबों में एकत्र करने का काम हुआ। हदीस नक़ल करने वाले लोग किसी से हदीस नक़ल करते समय बड़ी छान-फटक से काम लेते थे और इस बात पर ज़ोर देते थे कि जिससे वे हदीस नक़ल कर रहे हैं, उसने उसे किसी ऐसे व्यक्ति से नक़ल किया हो, जो उसका समकालीन रहा हो। ताकि सबसे निचले वर्णनकर्ता से लेकर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्मल तक हदीस के वर्णनकर्ताओं की श्रृंख्ला में कहीं कोई टूट न पाई जाए[227]। इसी तरह वर्णनकर्ताओं की श्रृंख्ला के सारे लोग विश्वसनीय, सदाचारी, सत्यवादी और अमानतदार हों।सुन्नत इस्लाम का व्यवहारिक नमूना होने के साथ-साथ क़ुरआन का वर्णन करती है, उसकी आयतों की व्याख्या करती है और उसके संक्षिप्त आदेशों की तफ़सील बयान करती है। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर जो कुछ उतारा जाता था, उसकी कभी तो अपने कथन द्वारा, कभी अपने कार्य द्वारा और कभी दोनों के द्वारा व्याख्या करते थे। लेकिन कभी कभी सुन्नत अलग से कुछ आदेश एवं निषेध तथा कुछ विधियाँ भी बयान करता है।कुरआन एवं सुन्नत दोनों के बारे में इस बात का विश्वास रखना ज़रूरी है कि यह दोनों इस्लाम धर्म के मूल स्रोत हैं, जिनका अनुसरण करना, हर मामले में उनकी ओर लौटना, उनके आदेशों का पालन करना, उनके निषेधों से दूर रहना, उनके द्वारा प्रदान की गई सूचनाओं की पुष्टि करना, उनके अंदर मौजूद अल्लाह के नामों, गुणों, कार्यों, अल्लाह की ओर उसके इमान वाले मित्रों के लिए तैयार रखी गई नेमतों और काफ़िरों को दी गई धमकियों को पर विश्वास रखना अनिवार्य है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "तो कसम है तेरे रब की! वे तब तक ईमान वाले नहीं हो सकते, जब तक कि सभी आपस के विवादों में आपको फैसला करने वाला न स्वीकार कर लें, फिर जो फैसला आप कर दें, उससे अपने दिलों में ज़रा भी तंगी और नाखुशी न पाएँ, और पूर्णतः स्वीकार कर लें।" [228] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है : “और तुम्हें जो कुछ रसूल दें, उसे ले लो और जिससे रोंके उससे रुक जाओ।" [229]इस्लाम धर्म के मूल स्रोतों का परिचय देने के बाद, उचित मालूम होता है कि हम इस धर्म की श्रेणियों यानी इस्लाम, ईमान और एहसान का उल्लेख कर दें। आइए संक्षेप में इन श्रेणियों के स्तंभों के बारे में जानते चलें। पहली श्रेणी [234]इस्लाम : इस्लाम के पाँच स्तंभ हैं : दोनों गवाहियाँ, नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज।पहला स्तंभ : इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं।"अल्लाह के सिवा कोई पूज्य न होने की गवाही देने" का अर्थ यह है कि धरती एवं आकाश में अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं है। केवल वही अकेले सत्य पूज्य है और उसके अतिरिक्त अन्य सारे पूज्य असत्य हैं। [230] इसका तक़ाज़ा यह है कि विशुद्ध रूप से केवल उसी की उपासना की जाए और उसके सिवा किसी और की पूजा न की जाए। यह गवाही किसी व्यक्ति को उस समय तक लाभ नहीं दे सकती, जब तक उसके अंदर दो बातें न पाई जाएँ :पहली बात : यह गवाही पूरे विश्वास, ज्ञान, यक़ीन, पुष्टि एवं प्रेम के साथ दी जाए।दूसरी बातः अल्लाह के अतिरिक्त पूजी जाने वाली तमाम चीज़ों का इनकार किया जाए। अतः, जिसने यह गवाही दी और अल्लाह के अतिरिक्त पूजी जाने वाली अन्य वस्तुओं का इनकार नहीं किया, उसे इस गवाही का कोई लाभ नहीं होगा। [231]मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अल्लाह के रसूल होने की गवाही देने का अर्थ है, आपके आदेशों का पालन करना, आपकी बताई हुई बातों की पुष्टि करना, आपके द्वारा मना की गई बातों से दूर रहना, आपके बताए हुए तरीक़े के अनुसार ही अल्लाह की इबादत करना और इस बात को जानना तथा विश्वास रखना कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे मानव समाज की ओर रसूल बनाकर भेजे गए हैं, आप चूँकि अल्लाह के बंदे हैं इसलिए आपकी इबादत नहीं की जा सकती, अल्लाह के रसूल हैं इसलिए आपको झुठलाना घोर अन्याय होगा, आपका अनुसरण किया जाएगा तथा यह कि आपका अनुसरण करने वाला जन्नत जाएगा, जबकि आपकी अवज्ञा करने वाला जहन्नम में प्रवेश करेगा। साथ ही यह जानना और विश्वास रखना आवश्यक है कि विधान बनाने का कार्य, चाहे अक़ीदे के संबंध में हो, अल्लाह के द्वारा आदेशित इबादतों के संबंध में हो, आचरण के संबंध में हो, परिवार के घठन के संबंध में हो या हलाल तथा हराम क़रार देने के संबंध में, यह काम अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के द्वारा ही होगा, क्योंकि आप अल्लाह के संदेष्टा हैं, जो अल्लाह की शरीयत पहुँचाने के लिए आए थे। [232]दूसरा स्तंभ : नमाज़ [233] : यह इस्लाम का दूसरा रुकन और इस्लाम रूपी इमारत का दूसरा खंभा है। क्योंकि यह बंदा और उसके रब के बीच संबंध स्थापित करने वाली चीज़ है। बंदा जब इसे दिन में पाँच बार अदा करता है, तो इसके दावारा अपने ईमान को ताज़ा करता है और अपने नफ़्स को गुनाहों की गंदगियों से पवित्र करता है। नमाज़ इंसान को बेहयाइयों और गुनाहों से रोकने का भी काम करती है। जब बंदा सुबह नींद से जागता है, तो दुनिया के कामों में व्यस्त होने से पहले पाक-साफ़ होकर अपने रब के समाने खड़ा हो जाता है। फिर अपने रब की बड़ाई बयान करता है, उसकी बंदगी का इक़रार करता है, उससे सहायता माँगता है, मार्गदर्शन तलब करता है तथा सजदे की अवस्था में, खड़े होकर और रुकू की हालत में अपने तथा अपने रब के बीच मौजूद अनुसरण एवं बंदगी के अनुबंध का नवीनीकरण करता है। फिर ऐसा एक-दो बार नहीं, बल्कि दिन में पाँच बार करता है। नमाज़ अदा करने के लिए ज़रूरी है कि बंदे का दिल, शरीर, कपड़ा और नमाज़ का स्थान पाक हो। इसी तरह यह भी ज़रूरी है कि बंदा इसे अपने मुसलमान भाइयों के साथ अदा करे और उसका चेहरा अल्लाह के पवित्र घर काबा की ओर हो। नमाज़ अल्लाह की इबादत का सबसे संपूर्ण और सबसे सुंदर तरीक़ा है। उसमें शरीर के विभिन्न अंगों द्वारा अल्लाह के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। ज़ुबान, दोनों हाथ, दोनों पाँव, सर, इंद्रयाँ और शरीर के सारे अंग इसमें व्यस्त होकर इस इबादत का आनंद प्राप्त करते हैं।मनुष्य की इंद्रियाँ और उसके शरीर के अंग भी उसमें सम्मिलित रहते हैं और उसका दिल भी उसमें व्यस्त रहता है। उसके अंदर अल्लाह की प्रशंसा है, स्तुति है, उसकी महानता, पवित्रता और बड़ाई का बयान है, सत्य की गवाही है, पवित्र क़ुरआन की किराअत है और बंदे का अपने महान प्रबंधक रब के सामने एक विनयशील दास की तरह खड़े होने का दृश्य है। इस अवस्था में उसके सामने अनुनय का इज़हार और उसकी निकटता प्राप्त करने का प्रयास है। फिर रुकू, सजदा और बैठक है, जिसमें अल्लाह की महानता के सामने अपनी विनम्रता और विवशता तथा उसके प्रताप के सामने अपनी लाचारी का इज़हार है। वह अल्लाह के सामने एक ऐसे बंदे के रूप में उपस्थित होता है, जिसका दिल टूटा हुआ हो, शरीर से विनम्रता टपक रही हो और उसके सारे अंग सहमे हुए हों। फिर अल्लाह की प्रशंसा और उसके नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दरूद एवं सलाम के साथ नमाज़ की समाप्ति होगी और उसके बाद बंदा अपने पालनहार से दुनिया एवं आख़िरत की भलाइयाँ माँगेगा। [234]तीसरा स्तंभ : ज़कात [235] : ज़कात इस्लाम का तीसरा रुक्न है। धनवान मुसलमान पर अपने धन की ज़कात निकालना आवश्यक है। ज़कात के रूप में धन का एक छोटा-सा भाग निकालना होता है, जिसे फ़क़ीरों एवं मिसकीनों आदि ऐसे लोगों को देना होता है, जो ज़कात का धन लेने के अधिकारी हैं।मुसलमान को ज़कात का धन उसके हक़दारों को खुले मन से देना चाहिए। वह ज़कात लेने वाले पर एहसान जतला नहीं कर सकता और ज़कात देने के बाद उसे किसी तरह से प्रताड़ित नहीं कर सकता। ज़कात अदा करने का उद्देश्य केवल अल्लाह की प्रसन्नता की प्राप्ति होनी चाहिए। इसके पीछे किसी तरह का कोई स्वार्थ या लोगों की प्रशंसा की चाहत नहीं होनी चाहिए। रियाकारी और दिखावा की मिलावट की कोई गुंजाइश नहीं है।ज़कात निकालने से माल एवं धन में बरकत तथा वृद्धि होती है। यह जरूरतमंदो, माँगने वालों और गरीबों के दिलों को प्रसन्न का अवसर देता है, उनको किसी के सामने हाथ फैलाने से बचाता है और उन्हें नष्ट होने से भी बचाता है। जकात निकालने का एक लाभ यह है कि यह मनुष्य को दयालुता, दानशीलता, त्याग, खर्च करने की आदत और कृपालुता जैसे गुणों से सुशोभित करता है और लालच, कंजूसी एवं निर्लज्जापन जैसे बुरे गुणों से दूर करता है। ज़कात के द्वारा मुसलमान एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और उनके धनवान लोग अपने गरीबों भाइयों पर दया करते हैं। यदि इस व्यवस्था को सही से लागू किया गया, तो समाज में कोई संपूर्ण निर्धन, क़र्ज़ में डूबा हुआ व्यक्ति और अपने घर-बार से दूर यात्री असहाय अवस्था में नज़र नहीं आएगा।चौथा स्तंभ : रोज़ा : इससे मुराद रमज़ान महीने के दिनों में फ़ज्र प्रकट होने से लेकर सूरज डूबने तक रोज़ा रखना है। इस अवधि में रोज़ा रखने वाला अल्लाह की इबादत की नीयत से खाने, पीने और सहवास से रुका रहता है और नफ़्स को आकांक्षाओं के अनुसरण से दूर रखता है। अल्लाह तआला ने रमज़ान के रोज़े के मामले में बीमार, मुसाफ़िर, गर्भवती स्त्री, दूध पिलाने वाली स्त्री, माहवारी के दिनों से गुज़रने वाली स्त्री तथा प्रसव के बाद आने वाले रक्त के दिनों से गुज़रने वाली स्त्री को कुछ छूट दे रखी है और इनमें से हर एक के लिए उसकी अवस्था के अनुरूप अलग-अलग आदेश तथा निर्देश हैं।इस माह में मुसलमान अपने नफ़्स को आकांक्षाओं के अनुसरण से बचाता है और इस इबादत के ज़रिए अपने आपको जानवरों की मुशाबहत से निकालकर अल्लाह के निकटवर्ती फ़रिश्तों की मुशाबहत में पहुँचा देता है। यहाँ तक कि रोज़ेदार एक ऐसी सृष्टि का रूप धारण कर लेता है, जिसकी संसार में अल्लाह की प्रसन्नता की प्राप्ति के सिवा कोई दूसरी आवश्यकता न हो।रोज़ा हृदय को जीवन प्रदान करता है, इंसान को दुनिया के मोह से बाहर निकालता है, अल्लाह के यहाँ मिलने वाली नेमतों को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है, धनवानों को निर्धनों एवं उनकी अवस्था का स्मरण कराता है, जिसके नतीजे में अमीरों को ग़रीबों पर दया आती है और वे अल्लाह की दी हुई नेमतों को स्मरण करते हुए अधिक से अधिक शुक्र अदा करने को प्रेरित होते हैं।रोज़ा आत्मा को शुद्ध बनाता है, उसे अल्लाह से भय के डगर पर चलाता है, व्यक्ति एवं समाज को गुप्त एवं सार्वजनिक रूप से तथा अच्छी एवं बुरी अवस्थाओं में अल्लाह की निगरानी में होने का एहसास दिलाता है। इस तरह, पूरा समाज एक पूरा महीना इस इबादत की पाबंदी करते हुए और अपने रब को ध्यान में रखते हुए गुज़ारता है और उसे इसकी प्रेरणा अल्लाह के भय, उसपर ईमान, क़यामत के दिन पर ईमान तथा इस यक़ीन कि अल्लाह गुप्त बातों को भी जानता है और विश्वास से मिलता है कि एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा, जब बंदा अपने रब के सामने खड़ा होगा और उसका पानहार उसके छोटे-बड़े सारे कर्मों का हिसाब लेगा। [236]पाँचवाँ स्तंभ : मक्का में स्थित अल्लाह के पवित्र घर काबा का हज [237] : हज हर वयस्क, होश व हवास वाले और सामर्थ्य रखने वाले मुसलमान पर फ़र्ज़ है, जो काबा तक जाने का साधन या किराये के लिए धन और जाने तथा आने के लिए पर्याप्त खर्च रखता हो, जो कि उसकी किफ़ालत में मौजूद लोगों के खर्च से अतिरिक्त हो। साथ ही उसे रास्ते में कोई भय न हो और अपनी अनुपस्थिति के दिनों में अपने बाल-बच्चों के नष्ट होने का भय न हो। हज सामर्थ्य रखने वाले व्यक्ति पर जीवन में एक बार ही फ़र्ज़ है।जो हज का इरादा रखे, उसे अल्लाह के आगे तौबा करना चाहिए, ताकि मुनाहों के मैल-कुचैल से साफ़-सुथरा हो जाए। फिर जब मक्का और अन्य पवित्र स्थानों तक पहुँचे, तो अल्लाह की बंदगी का इज़हार करते हुए और उसका सम्मान करते हुए हज के सारे कार्य करे। साथ ही इस बात को ध्यान में रखे कि काबा तथा अन्य स्थानों की अल्लाह के स्थान पर इबादत नहीं की जाएगी। ये न किसी का भला कर सकते हैं, न बुरा। यदि अल्लाह ने उनका हज करने का आदेश न दिया होता, तो किसी मुसलमान के लिए उनका हज करना सही न होता।हज करते समय हाजी एक सफेद रंग का तहबंद और एक सफेद चादर पहनता है। इस तरह धरती के कोने-कोने से मुसलमान एक स्थान पर एकत्र होते हैं, एक तरह का वस्त्र पहनते हैं और एक ही पालनहार की इबादत करते हैं। न राजा और प्रजा का अंतर, न धनी तथा निर्धन का फ़र्क़ और काले एवं गोरे का भेदे। सारे लोग अल्लाह की सृष्टि और उसके बंदे हैं। किसी मुसलमान को दूसरे मुसलमान पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है। यदि है तो तक़वा एवं सत्कर्म के आधार पर।इस अवसर सारे मुसलमान एक-दूसरे की सहायता करते हैं, एक-दूसरे से परिचित होते हैं और उस दिन को याद करते हैं, जिस दिन अल्लाह सब को जीवित करके एक ही मैदान में एकत्र करेगा। लिहाज़ा मृत्यु के बाद के जीवन के लिए अल्लाह की इबादत के ज़रिए तैयारी करते हैं।[238] इस्लाम में इबादत का अर्थ [244]इबादत नाम है अर्थ एवं वास्तविकता दोनों एतबार से अल्लाह की बंदगी का। क्योंकि अल्लाह ही पैदा करने वाला है और हम लोग मखलूक़ हैं, हम उसके बन्दें हैं वह हम सब का पूज्य है। जब मामला ऐसा ही है, तो हमारे लिए ज़रूरी है कि इस जीवन में हम अल्लाह तआला के सरल एवं सीधे रास्ते की ओर चलें, उसकी शरीयत का पालन करते हुए और उसके रसूलों के पद्चिह्नों पर चलते हुए। अल्लाह तआला ने अपने बन्दों को कई बड़ी-बड़ी इबादतें करने को कहा है। जैसे सारे संसार के पालनहार अल्लाह को एक जानना और मानना, नमाज़ पढ़ना, ज़कात देना, रोज़ा रखना और ज़कात देना।लेकिन यही चंद बातें इस्लाम की संपूर्ण इबादतें नहीं हैं। इस्लाम में इबादतों का दायरा बहुत ही व्यापक है। इस्लाम में इबादत हर उस गुप्त तथा व्यक्त कर्म एवं कथन को कहते हैं, जिससे अल्लाह प्रसन्न होता है और जिसे वह पसन्द करता है। चुनांचे हर वह कार्य जिसे इंसान करता है या हर वह कथन जिसे वह करता है और वह अल्लाह को पसंद एवं प्रिय है, वह इबादत है। बल्कि हर अच्छी आदत, जिसको वह अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के उद्देश्य से अपनाता है, तो वह भी इबादत है। इस प्रकार, माता-पिता, घर वालों, बीवी-बच्चों और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार, यदि अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के उद्देश्य से हो, तो इबादत है। इसी तरह घर, बाज़ार और कार्यालय में अच्छे आचरण के साथ काम भी यदि अल्लाह को प्रसन्न करने के उद्देश्य से हो, तो इबादत है। अमानत अदा करना, सच्चाई एवं न्याय का पालन करना, किसी को दुःख हीगक निकालना, कमज़ोर की मदद करना, हलाल रोज़ी कमाना, परिवार और बच्चों पर खर्च करना, गरीबों के साथ सहानुभूति जताना, बीमार का हाल जानने के लिए जाना, भूखे को खाना खिलाना और पीड़ित की मदद करना, ये सारे काम भी यदि अल्लाह के लिए किए जाएँ, तो इबादत हैं। सारांश यह है कि जो भी काम आप अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपने समाज के लिए या अपने देश के करें और उसका उद्देश्य अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करना हो, वह इबादत है। बल्कि अल्लाह की निर्धारित सीमाओं के अंदर रहकर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करना भी, यदि सही नीयत के साथ हो, तो इबादत है। अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया है : "जब तुममें से कोई सहवास करता है, तो वह भी उसके लिए सदक़ा है।" सहाबा ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! यदि हममें से कोई अपनी काम इच्छा की पूर्ति करता है, तो उसे उसका भी सवाब मिलेगा? आपने फ़रमाया : "तुम क्या समझते हो, अगर वह काम इच्छा की पूर्ति हराम तरीक़े से करता, तो उसे गुनाह होता या नहीं? इसी प्रकार, अगर वह जायज़ तरीके से यह इच्छा पूरी करता है, तो उसे सवाब मिलना चाहिए।" [239]एक और हदीस में है : "हर मुसलमान पर सदका करना अनिवार्य है।" कहा गया : अगर किसी के पास न हो तो क्या करे? आपने कहा : "वह अपने हाथ से कार्य करे, उससे जो प्राप्त हो, उसमें से खुद खाए और सदका भी करे।" सहाबा ने कहा : अगर वह कार्य की शक्ति न रखता हो तो क्या करे? आपने कहा : "किसी सख्त ज़रूरतमन्द की सहायता एवं सहयोग करे।" कहा गया : अगर यह भी न कर सके तो? आपने कहा : "अच्छी और नेक बातों का आदेश दे।" सहाबा ने कहा : अगर यह भी न कर सके तो? आपने कहा : "अपने आप को बुरी चीज़ों से रोक ले, क्योंकि यह उसके लिए सदक़ा हैं।" [240] दूसरी श्रेणी [247]दूसरा दर्जा ईमान का है। ईमान के छह अरकान हैं : अल्लाह पर ईमान, अल्लाह के फ़रिश्तों पर ईमान, अल्लाह की पुस्तकों पर ईमान लाना, अल्लाह के रसूलों पर ईमान लाना, अंतिम दिन (आख़िरत) पर ईमान और भाग्य पर ईमान।पहला स्तंभ : अल्लाह पर ईमान : इसका अर्थ है, अल्लाह के पालनहार, सृष्टिकर्ता, स्वामी तथा सभी कामों का प्रबंधक होने पर विश्वास रखना, उसके सत्य पूज्य होने और उसके अतिरिक्त सारे पूज्यों के असत्य होने पर विश्वास रखना और इस बात का यक़ीन रखना कि अल्लाह के बहुत-से अच्छे-अच्छे नाम और ऊँचे एवं संपूर्ण गुण हैं।साथ ही इन सारी बातों में अल्लाह के एक होने पर विश्वास रखना और यह मानना कि अल्लाह के पालनहार और पूज्य होने में उसका कोई साझी नहीं है और इसी तरह उसके नामों और गुणों में भी कोई उसका शरीक नहीं है। "आकाशों का और धरती का और जो कुछ उनके बीच है, सबका रब वही है। अतः, तू उसी की इबादत कर और उसकी इबादत पर मज़बूती से कायम रहो। तो क्या तेरे इल्म में उसका हमनाम और बराबर कोई दूसरा भी है?'' [241]इसी तरह, इस बात पर ईमान लाना कि उसको न तो नींद आती है और न ही ऊँघ, वह गुप्त तथा व्यक्ति चीज़ों को जानता है और वही आकाशों और धरती का बादशाह है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और उसी (अल्लाह) के पास गैब की कुंजियाँ हैं। उन्हें केवल वही जानता है। तथा जो कुछ थल और जल में है वह उन सभी को जानता है। और कोई पत्ता नहीं गिरता, परन्तु उसे वह जानता है। और न कोई अन्न जो धरती के अंधेरों में हो, और न कोई भीगा और सूखा है परन्तु वह एक खुली किताब में है।'' [242]इसी तरह इस बात पर यकीन रखना कि अल्लाह अपने अर्श पर अपनी सृष्टियों से ऊपर है। लेकिन इसके बावजूद वह अपनी सृष्टियों के साथ है, उनके हर हाल से अवगत है, उनकी बातें सुनता है, उनके स्थान को देखता है, उनसे संबंधित कामों का प्रबंध करता है, निर्धन को रोज़ी देता है, टूटे हुए को सहारा देता है, जिसे चाहता है बादशाहत प्रदान करता है, जिससे चाहता है बादशाहत छीन लेता है और वह हर काम का सामर्थ्य रखता है। [243]अल्लाह पर ईमान के निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं :1- ईमान बंदे को अल्लाह का प्रेम और उसका सम्मान प्रदान करता है, जिसके नतीजे में उसके आदेश के पालन और उसकी मनाही से दूर रहने का जज़्बा पैदा होता है। फिर जब बंदा इतना कर लेता है, तो इसके फलस्वरूप उसे दुनिया एवं आख़िरत की सफलता हाथ आ जाती है।2. अल्लाह पर ईमान एवं विश्वास इंसान को आत्म सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्रदान करता है। क्योंकि इसके बाद मनुष्य के दिल में यह बात बैठ जाती है कि इस कायनात की सारी वस्तुओं का असल मालिक अल्लाह है और उसके सिवा कोई न कुछ बना सकता है और न बिगाड़ सकता है। यह विश्वास इंसान को अल्लाह के अतिरिक्त अन्य चीज़ों से बेनियाज़ कर देता है और उसके दिल दूसरों का भय निकाल देता है। लिहाज़ा वह आशा रखता है तो केवल अल्लाह से और भय रखता है तो केवल उसी का।3. अल्लाह पर ईमान इंसान को विनम्र बनाता है। क्योंकि वह जानता है कि उसे प्राप्त सारी नेमतें अल्लाह की दी हुई हैं। लिहाज़ा वह शैतान के धोखे में आकर घमंड का शिकार नहीं होता और अपने धन-बल के अभिमान में मुब्तला नहीं होता।4. अल्लाह पर ईमान एवं विश्वास रखने वाला अच्छी तरह जानता है कि नजात एवं कामयाबी का मार्ग मात्र वह अच्छे एवं नेक कार्य हैं, जिनको अल्लाह पसंद करता एवं जिनसे वह खुश होता है। जबकि दूसरे लोग गलत एवं असत्य धारणाओं में फँसे होते हैं, जैसे यह विश्वास कि अल्लाह के पुत्र के फाँसी पर लटक जाने के कारण उसके मानने वालों के गुनाह माफ़ हो गए हैं। या फिर कोई बहुत-से देवी-देवताओं को माने और उनके बारे में यह विश्वास रखे कि वे उसकी मुरादें पूरी कर देंगे, जबकि सच्चाई यह है कि वे न किसी का कुछ बना सकते हैं और न बिगाड़ सकते हैं। या फिर कोई नास्तिक हो और किसी सृष्टिकर्ता के अस्तित्व को ही न मानता हो। यह सारी असत्य धारणाएँ हैं। इन धरणाओं को मानने वाले लोग जब क़यामत के दिन अपने रब के सामने उपस्थित होंगे और सारी सच्चाइयों को अपनी आँखों से देख लेंगे, तो जान जाएँगे कि वे खुली गुमराही में थे।5. अल्लाह पर ईमान इंसान को इच्छा शक्ति, साहस, धैर्य, स्थिरता और अल्लाह पर भरोसा की विशाल संपदा प्रदान करता है, जब वह दुनिया में कोई बड़े से बड़ा काम करने का इरादा करता है। उसे पूरा विश्वास रहता है कि उसका भरोसा आकाशों एवं धरती के स्वामी पर है, जो ज़रूर उसकी सहायता करेगा। इस तरह, वह पहाड़ की तरह स्थिर और डटा हुआ रहता है। [244]दूसरा स्तंभ : फ़रिश्तों पर ईमान : फरिश्तों को अल्लाह ने अपने आज्ञापालन के लिए पैदा किया है। अल्लाह ने उनके बारे में बताया है कि वे : “(फ़रिश्ते) बाइज़्ज़त बंदे हैं। वे अल्लाह के सामने बढ़कर नहीं बोलते और उसके आदेश पर अमल करते हैं। वह जानता है जो उनके सामने है और जो उनसे ओझल है। वह किसी की सिफ़ारिश नहीं करेंगे उसके सिवा जिससे अल्लाह प्रसन्न हो तथा वह उसके भय से सहमे रहते हैं।'' [245] साथ ही बताया है कि वे : "वे अल्लाह की इबादत से न सरकशी करते हैं और न थकते हैं। वे दिनरात उसकी पाकीज़गी बयान करते हैं और ज़रा भी सुस्ती नहीं करते।" [246] अल्लाह तआला ने हमसे उनको छुपा रखा है। अतः हम उनको देख नहीं सकते। अलबत्ता, कभी-कभार कुछ फ़रिश्तों को अपने कुछ नबियों और रसूलों के सामने प्रकट कर देता है।फ़रिश्तों के बहुत-से कार्य हैं, जिनका उनको मुकल्लफ़ बनाया गया है। जैसे- उनमें से एक फ़रिश्ता जिब्रील عليه السلام को वह्य उतारने का कार्य सोंपा गया है। वह अल्लाह के पास से वह्य लेकर उसके रसूलों में से जिसके पास वह चाहता है, आसमान से उतरते हैं। उनमें से एक फ़रिश्ते को इंसान की रूह निकालने का कार्य दिया गया है। कुछ फ़रिश्तों को माँ के गर्भ में बच्चों की रक्षा का कार्य सोंपा गया है, कुछ को बन्दों के आमाल के लिखने और नोट करने की ज़िम्मेदारी दी गई है। हर मनुष्य के साथ दो फ़रिश्ते लगे हुए हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "एक दायें तरफ़ और दूसरा बायें तरफ़ बैठा हुआ है। वह जब भी कोई शब्द बोलता है, उसे लिखने के लिए उसके पास एक निरीक्षक तैयार रहता है।'' [247]फरिश्तों पर ईमान के कुछ फ़ायदे इस प्रकार हैं :1. मुसलमान का अकीदा शिर्क की मिलावट से पवित्र हो जाता है। क्योंकि मुसलमान जब उन फ़रिश्तों के अस्तित्व पर ईमान लाता है, जिनको अल्लाह ने ऊपर उल्लिखित महत्वपूर्ण ज़िम्मेवारियाँ सौंप रखी हैं, तो वह ऐसी काल्पनिक सृष्टियों के अस्तित्व की धारणा से मुक्ति पा लेता है, जो कायनात को चलाने में भाग लेते हों।2. मुसलमान अच्छी तरह से यह जान लेता है कि फ़रिश्ते कोई लाभ या हानि नहीं पहुँचा सकते। वे अल्लाह के सम्मानित बंदे हैं, जो अपने रब के आदेश की अवज्ञा नहीं करते और वही करते हैं जिसका आदेश मिला होता है। अतः न उनकी इबादत की जा सकती है, न उनसे फ़रियाद की जा सकती है और न उनसे चिमटा जा सकता है।तीसरा स्तंभ : किताबों पर ईमान : यानी इस बात पर ईमान लाना कि अल्लाह तआला ने अपने नबियों और रसूलों पर किताबें उतारी हैं, ताकि सत्य को स्पष्ट किया जा सके और उसकी ओर बुलाया जा सके। अल्लाह का फ़रमान है : "बेशक हमने अपने संदेष्टाओं (रसूलों) को खुली निशानियाँ देकर भेजा और उनके साथ किताब और न्याय (तराज़ू) उतारा, ताकि लोग न्याय पर क़ायम रहें।'' [248] इस प्रकार की किताबें बहुत-सी हैं। जैसे इब्राही अलैहिस्सलाम के सहीफ़े, तौरात जो मूसा अलैहिस्सलाम पर उतरी थी, ज़बूर जो दाऊद अलैहिस्सलाम को दी गई थी और इंजील जो ईसा अलैहिस्सलाम लाए थे।यह सारी किताबें जिनके बारे में अल्लाह तआला ने हमें बताया है, नष्ट हो चुकी हैं। चुनांचे इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सहीफ़ों का अस्तित्व ही नहीं रहा। जहाँ तक तौरात, इंजील और ज़बूर की बात है, तो इन नामों की किताबें यहूदियों एवं ईसाइयों के पास मौजूद तो हैं, लेकिन वे छेड़छाड़ और परिवर्तन की शिकार हो चुकी हैं और उनका अधिकतर भाग नष्ट हो चुका है और उसके स्थान पर ऐसी बातें दाख़िल कर दी गई हैं, जो उनका हिस्सा नहीं थीं। बल्कि उनकी निसबत उन्हें लाने वालों के अलावा किसी और की ओर कर दी गई हैं। "ओल्ड टेस्टामेंट" के चालीस से अधिक भाग हैं, जिनमें से केवल पाँट भागों की निसबत मूसा अलैहिस्सलाम की ओर की जाती है। जबकि आज जो इंजीलें मौजूद हैं, उनमें से किसी की निसबत ईसा अलैहिस्सलाम की ओर नहीं की जाती।अतः, इन पिछली किताबों पर हम इस प्रकार से ईमान रखेगें कि अल्लाह ने इन किताबों को अपने रसूलों पर उतारा था और उनके अंदर वह वह धर्म विधान बयान किए गए थे, जो अल्लाह उस समय के लोगों को पहुँचाना चाहता था।जहाँ तक रही बात अंतिम किताब की, जो सबसे अंत में अल्लाह की ओर से नाज़िल की गई है, तो वह कुरआन करीम है, जो कि अंतिम पैग़म्बर मुहम्मद صلى الله عليه وسلم पर उतारा गया है और क़यामत तक जिसकी सुरक्षा अल्लाह इस तरह करेगा कि उसके अक्षरों, शब्दों, मात्राओं और अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होगा।पवित्र कुरआन और पिछली किताबों के बीच बहुत-से अंतर हैं। जैसे :1. पिछली सारी किताबें नष्ट हो गई हैं, उनके अंदर लोगों ने बहुत-से परिवर्तन कर दिए हैं, उन्हें उनके लाने वाले नबियों के बजाय अन्य लोगों की ओर मनसूब किया गया है और उनपर ऐसी बहुत-सी टीकाएँ लिखी गई हैं और उनकी ऐसी व्याख्याएँ की गई हैं, जो वह्य, विवेक और प्रकृति के विपरीत हैं।लेकिन जहाँ तक क़ुरआन की बात है, तो वह अल्लाह के उतारे हुए अक्षरों एवं शब्दों के साथ हमेशा इस तरह सुरक्षित रहेगा कि न उसमें कोई परिवर्तन होगा और न उसमें कुछ बढ़ाया जा सकेगा। सुरक्षा की यह ज़िम्मेवारी खुद अल्लाह ने उठा रखी है। सारे मुसलमानों की इच्छा रहती है कि कुरआन करीम हर प्रकार की मिलावट से सुरक्षित रहे। यही कारण है कि उन्होंने कुरआन के साथ रसूल की सीरत, सहाबा की जीवनी, क़ुरआन की तफ़सीर या इबादतों तथा मामलात से संबंधित आदेशों एवं निर्देशों को मिक्स नहीं होने दिया।2. पुरानी आसमानी किताबों की आज के युग में कोई ऐतिहासिक प्रमाणिकता नहीं है। बल्कि उनमें से कुछ किताबें ऐसी भी हैं, जिनके बारे में नहीं पता कि वह किस पर नाज़िल हुई थीं और किस भाषा में लिखी गई थीं। उनमें से कुछ किताबें तो उन्हें लाने वाले नबियों के बजाय किसी और की तरफ़ मनसूब हैं।जबकि क़ुरआन को मुसलमानों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मौखिक एवं लिखित रूप से नक़ल किया है और हर ज़माने में और दुनिया के हर भाग में मज़ारों मुसलमान उसे अपने सीनों में सुरक्षित रखते आए हैं और उसकी हज़ारों लिखित प्रतियाँ हर जगह पाई जाती रही हैं। जब तक उसकी ज़बानी प्रतियाँ लिखित प्रतियों से मेल न खाएँ, तब तक उनपर विश्वास नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, सीनों में सुरक्षित क़ुरआन का लिखित क़ुरआन से मेल खाना ज़रूरी है।इससे भी बड़ी बात यह है कि कुरआन मौखिक रूप से कुछ इस प्रकार नक़ल हुआ है कि यह सौभाग्य दुनिया की किसी और पुस्तक को प्राप्त न हो सका। किसी किताब को नक़ल करने का यह तरीक़ा केवल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की उम्मत में ही पाया जाता है। यह तरीक़ा कुछ इस प्रकार है कि छात्र कुरआन को अपने गुरू से जबानी याद करे और उसके गुरू ने उसे अपने गुरू से ज़बानी याद किया हो, फिर गुरू अपने छात्र को एक प्रमाण पत्र प्रदान करे, जिसे "अनुमति पत्र" कहा जाता है, जिसमें गुरू यह गवाही दे कि उसने अपने शिष्य को वही कुछ पढ़ाया है जो उसने अपने गुरुओं से मर्हला दर मर्हला सिलसिलेवार पढ़ा है। इस शृंख्ला का हर व्यक्ति अपने गुरू को नाम बयान करता है, यहाँ तक कि यह सिलसिला बिना किसी टूट के अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तक पहुँच जाता है।कुरआन करीम की हर सूरा और आयत के बारे में इस बात के प्रबल प्रमाण और ऐतिहासिक साक्ष्य बड़ी संख्या में मौजूद हैं कि वह कहाँ उतरी थी और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर कब उतरी थी।3. वह भाषाएँ जिनमें पिछली किताबें उतारी गई थीं, वह बहुत समय पहले लोगों के बीच से ख़त्म हो चुकी हैं। उन भाषाओं को बोलने वाले मौजूद नहीं हैं और आज उनके समझने वाले भी बहुत ही कम पाए जाते हैं। लेकिन जहाँ तक उस भाषा की बात है, जिसमें क़ुरआन उतरा है, तो वह एक जीवित भाषा है और आज भी उसे करोड़ों बोलते हैं। दुनिया के हर भाग में उसका पठन-पाठन होता है और जो उसे समझ नहीं सकता, हर जगह उसे क़ुरआन समझाने वाले मिल जाते हैं।4. पुरानी किताबें एक विशेष समय के लिए थीं और एक ख़ास उम्मत के लिए उतारी गई थीं, न की सारे मानव जाति के लिए । यही कारण है कि उनके अंदर जो विधि-विधान बताए गए हैं, वह उन समुदायों और उस ज़माने के साथ खास थे। जबकि इस प्रकार की किताब तमाम लोगों के लिए नहीं हो सकती।लेकिन जहाँ तक बात क़ुरआन की है, तो यह हर ज़माने और हर स्थान के लिए उपयुक्त किताबा और इसके अंदर ऐसे विधि-विधान, मामलात और आचरण बताए गए हैं, जो हर समुदाय और हर युग के लिए उपयुक्त हैं। क्योंकि उसमें संबोधन सारी उम्मत के लिए है।इन बातों के द्वारा यह स्पष्ट हो गया कि यह संभव ही नहीं है कि मनुष्य के विरुद्ध अल्लाह का प्रमाण ऐसी किताबें बन सकें, जिनकी असल प्रतियाँ मौजूद नहीं हैं और न ही पूरी धरती पर ऐसा कोई व्यक्ति है, जो उन किताबों की भाषा को बोलना जानता हो, जिनमें उन्हें परिवर्तन के बाद लिखा गया था। मनुष्य के विरुद्ध अल्लाह का प्रमाण कोई ऐसी किताब ही बन सकती है, जो सुरक्षित है, कमी-बेशी और छेड़छाड़ से महफ़ूज़ है, उसकी प्रतियाँ हर जगह फैली हुई हैं और एक जीवित भाषा में लिखी हुई हैं, जिसे हज़ारों लोग पढ़ते हैं और उसमें उल्लिखित अल्लाह का संदेश लोगों को पहुँचाते हैं। यह किताब महान क़ुरआन है, जो अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतारा है। वह पिछली सारी किताबों की संरक्षक है, उनकी पुष्टि करती है और उनके संबंध में गवाही देती है। वह ऐसी किताब है जिसका अनुसरण करना सारे मानव जाति के लिए आवश्यक है, ताकि वह उन केलिए प्रकाश, शिफ़ा, मार्गदर्शन और दया बन सके। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और यह (पाक कुरआन) एक मुबारक किताब है, जिसे हमने उतारा। इसलिए तुम इसका अनुसरण करो, ताकि तुमपर दया की जाए।'' [249] दूसरी जगह अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "आप कह दीजिए कि हे लोगो! तुम सभी की तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ।'' [250]चौथा स्तंभ : रसूलों पर ईमान :अल्लाह ने अपनी सृष्टि की ओर रसूलों को भेजा, ताकि वे ईमान लाने वालों और रसूलों को मानने वालों को नेमतों का सुसमाचार सुनाएँ और अवज्ञा करने वालों को यातना से सावधान करें। अल्लाह का फ़रमान है : "और हमने हर उम्मत में रसूल भेजे कि (लोगों!) केवल अल्लाह की इबादत (उपासना) करो, और ताग़ूत (उसके सिवाय सभी झूठे माबूद) से बचो।'' [251] एक अन्य स्थान पर उसने कहा है : "(हमने इन्हें) खुशखबरी और आगाह करने वाला रसूल बनाया, ताकि लोगों को कोई बहाना रसूलों को भेजने के बाद अल्लाह पर न रह जाए।” [252]रसूलों की संख्या बहुत ज़्यादा है। सबसे पहले रसूल नूह अलैहिस्सलाम और अंतिम रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। कुछ नबियों के बारे में अल्लाह ने हमें बताया है, जैसे- इब्राहीम, मूसा, ईसा, दाऊद, यहया, ज़करिया और सालेह आदि और कुछ के बारे में कुछ नहीं बताया है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और आपसे पहले के बहुत-से रसूलों की घटनाएँ हमने आपसे बयान की हैं और बहुत-से रसूलों की नहीं भी की हैं।'' [253]सारे रसूल अल्लाह के पैदा किए हुऐ इंसान हैं। उन्हें पालनहार एवं पूज्य होने जैसी कोई विशेषता प्राप्त नहीं है। अतः किंचित परिमाण भी उनकी इबादत नहीं हो सकती। सच्चाई यह है कि वे न खुद अपने किसी लाभ के मालिक हैं और न हानि के। अल्लाह ने नूह अलैहिस्सलाम के बारे में, जो पहले नबी थे, बताया है : "और मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के खजाने हैं। (सुनो) मैं गैब का इल्म भी नहीं रखता, न मैं यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ।'' [254] इसी तरह अल्लाह तआला ने अंतिम नबी को आदेश दिया है कि वह कह दें : "(आप) कह दीजिए कि न तो मैं तुमसे यह कहता हूँ कि मेरे पास अल्लाह का खज़ाना है और न मैं गैब जानता हूँ और न मैं यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ।'' [255] इसी तरह कह दें : "आप कह दें कि मैं स्वयं अपने लाभ और हानि का मालिक नहीं हू। होता वही है, जो अल्लाह चाहे।" [256]लिहाज़ा सारे नबी अल्लाह के सम्मानित बंदे हैं। अल्लाह ने उनको चुन लिया है और उन्हें पैगम्बरी के पद से सम्मानित किया है। अल्लाह ने उनके बंदे होने की बात कही है। सारे नबियों का धर्म इस्लाम है, जिसे छोड़ कर कोई अन्य धर्म अल्लाह के यहाँ मान्य नहीं है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "बेशक अल्लाह के पास धर्म इस्लाम ही है।" [257] सारे रसूलों का संदेश सैद्धांतिक रूप से एक है और उनके धर्म-विधान अलग-अलग हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "तुममें से हर एक के लिए हमने एक शरीयत और रास्ता निर्धारित कर दिया है।'' [258] इन सारे धर्म विधानों की अंतिम कड़ी हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का लाया हुआ धर्म विधान है। इसने पिछले तमाम धर्म विधानों को निरस्त कर दिया है। इसी तरह मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के अंतिम संदेष्टा हैं और आपके बाद कोई संदेष्टा नहीं आने वाला।अगर कोई मनुष्य किसी नबी पर ईमान लाया है, तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह सारे रसूलों पर ईमान लाए और जिसने किसी नबी का इंकार किया तो गोया उसने सारे नबियों को झुठलाया, क्योंकि सारे नबियों एवं रसूलों ने अल्लाह पर ईमान लाने, उसके फ़रिश्तों पर ईमान लाने, उस के रसूलों और अंतिम दिन पर ईमान लाने का आह्वान किया है, क्योंकि उन सारे नबियों एवं रसूलों का धर्म एक था। लिहाज़ा जो उनके बीच अंतर करता है, किसी पर तो ईमान रखता है और किसी का इंकार करता है, दरअसल वह तमाम लोगों का इंकार करता है। क्योंकि हर नबी और रसूल ने सारे नबियों एवं रसूलों पर ईमान लाने की दावत दी थी[259]। अल्लाह का फरमान है : “रसूल उस चीज़ पर ईमान लाए जो उसकी ओर अल्लाह की तरफ़ से उतारी गई और मुसलमान भी ईमान लाए। यह सब अल्लाह और उसके फ़रिश्ते पर और उसकी किताबों पर और उसके रसूलों पर ईमान लाए।'' [260] इसी प्रकार अल्लाह तआला का फ़रमान है : "जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान नहीं रखते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच अलगाव करें और कहते हैं कि हम कुछ को मानते हैं और कुछ को नहीं मानते हैं और इसके बीच रास्ता बनाना चाहते हैं।" [261]पाँचवा स्तंभ : अंतिम दिन (आखिरत) पर ईमान : इस संसार एवं धरती पर बसने वाले सारे मनुष्यों का अन्त मौत है। लेकिन तो मौत के बाद इंसान का परिणाम एवं ठिकाना क्या होगा? उन अत्याचारियों का अंजाम क्या होगा, जो दुनिया में यातना से बच गए? क्या वे अपने अत्याचार के वबाल से बच जाएँगे? इसी प्रकार उन सदाचारियों का क्या होगा, जो दुनिया में अपने सदाचार के प्रतिफल से वंचित रह गए? क्या वे प्रतिफल से वंचित ही रह जाएँगे?लोग नस्ल दर नस्ल मरते जा रहे हैं और यह सिलसिला जारी रहेगा, यहाँ तक कि जब अल्लाह की अनुमति से यह दुनिया फना हो जाएगी और उसके ऊपर बसने वाली सारी सृष्टियाँ हलाक हो जाएँगी, तो अल्लाह सारे लोगों को जीवित करके उठाएगा और उन्हें एक दिन एकत्र करेगा तथा उनके द्वारा दुनिया में किए गए भले-बुरे कामों का हिसाब लेगा। उसके बाद ईमान वालों को जन्नत की ओर ले जाया जाएगा और फ़ाफिरों को जन्नत में धकेल दिया जाएगा।जन्नत से मुराद वह नेमतों का स्थान है, जिसे अल्लाह ने अपने मोमिन प्रियजनों के लिए तैयार कर रखा है। उसमें इतनी तरह की नेमतें हैं कि कोई उनका बखान नहीं कर सकता।उसकी एक सौ श्रेणियाँ हैं। हर श्रेणी के, ईमान एवं इबादत के अनुसार अलग-अलग निवासी होंगे। सबसे कम रुतबे वाले जन्नती को भी इतनी नेमतें दी जाएँगी कि दुनिया के किसी बादशाह की बादशाहत से दस गुना अधिक होंगी।जबकि जहन्नम से मुराद अल्लाह की वह यातना है, जिसे अविश्वासियों के लिए तैयार कर रखा है। उसमें इतनी तरह की यातनाएँ होंगी कि उनके ज़िक्र मात्र से रूह काँप उठती है। यदि अल्लाह आख़िरत में किसी को मृत्यु की अनुमति दे, तो जहन्नमी उसे देखने मात्र से मर जाएँ।अल्लाह तआला हर मनुष्य के बारे में अच्छी तरह जानता था कि वह अच्छी बात करेगा या बुरी और अच्छा काम करेगा या बुरा, चाहे छुपकर हो या दिखाकर। इसके बावजूद उसने हर इंसान के साथ दो फ़रिश्ते नियुक्त कर रखे हैं। एक नेकियाँ लिखता है और दूसरा बुराइयाँ। कोई भी चीज़ उनसे छूट नहीं पाती। अल्लाह का फ़रमान है : "वह जब भी कोई बात बोलता है, उसे लिखने के लिए उसके पास एक निरीक्षक तैयार होता है।'' [262] दोनों फ़रिश्ते बंदों के कार्यों को एक किताब में संकलित करते रहते हैं, जिसे क़यामत के दिन इंसानों को दिया जाएगा। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और कर्मपत्र सामने रख दिए जाएँगे, तो आप अपराधियों को देखेंगे कि उससे डर रहे हैं, जो कुछ उसमें अंकित हैं तथा कहेंगे कि हाय हमारा विनाश! यह कैसी पुस्तक है जिसने किसी छोटे और बड़े कर्म को नहीं छोड़ा है, परन्तु उसे अंकित कर रखा है। और जो कर्म उन्होंने किए हैं, उन्हें वह सामने पाएँगे और आपका पालनहार अत्याचार नहीं करेगा।" [263] हर व्यक्ति अपना कर्मपत्र पढ़ेगा और उसमें लिखी किसी बात का इंकार नहीं करेगा। कोई यदि इंकार करेगा भी, तो अल्लाह उसके कान, आँख, हाथों, पैरों और चमड़ी को बोलने की शक्ति प्रदान कर देगा और ये उसके सारे कर्मों का विवरण प्रस्तुत कर देंगे। अल्लाह तआला फ़रमाता है : “और जिस दिन अल्लाह के दुश्मन नरक की तरफ़ लाए जाएँगे और उन (सब) को जमा कर दिया जाएगा। यहाँ तक कि जब नरक के बहुत करीब आ जाएँगे, उनपर उनके कान और उनकी आंखें और उनकी खालें उनके अमल की गवाही देंगे। और वे अपनी खालों से कहेंगे कि तुमने हमारे ख़िलाफ़ गवाही क्यों दी? वह जवाब देंगे कि हमें उस अल्लाह ने बोलने की शक्ति दी, जिसने हर चीज़ को बोलने की शक्ति प्रदान की है। उसी ने पहली बार तुम्हें पैदा किया और उसी की तरफ़ तुम सब लौटाए जाओगे। तथा तुम पाप करते समय छुपते नहीं थे कि कहीं साक्ष्य न दें तुमपर तुम्हारे कान तथा तुम्हारी आँखें एवं तुम्हारी खालें। परन्तु तुम समझते रहे कि अल्लाह उनमें से अधिकतर बातों को नहीं जानता, जो तुम करते हो।" [264]अंतिम दिन यानी क़यामत तके दिन, जिस दिन सारे लोगों को जीवित करके उठाया जाएगा और एक स्थान में जमा किया जाएगा, की बात सारे नबियों एवं रसूलों ने कही है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और अल्लाह की निशानियों में से यह भी है कि तू धरती को दबी-दबायी (शुष्क) देखता है, फिर जब हम उसपर वर्षा करते हैं, तो वह तर-व-ताज़ा होकर उभरने लगती है। जिसने उसे ज़िन्दा कर दिया, वही निश्चित रूप से मुर्दा को भी ज़िन्दा करने वाला है। बेशक वह हर चीज़ पर क़ादिर है।'' [265] इसी प्रकार अल्लाह तआला का फ़रमान है : "क्या वह नहीं देखते कि जिस अल्लाह ने आकाशों और धरती को पैदा किया और उनके पैदा करने से वह न थका, वह बेशक मुर्दो को जिंदा करने की कुदरत रखता है?'' [266] अल्लाह तआला की हिकमत का तक़ाज़ा भी यही है। क्योंकि अल्लाह ने अपनी सृष्टि को बिना किसी अर्थ के पैदा नहीं किया है और उन्हें मनमानी करने के लिए खुला छोड़ नहीं दिया है। क्योंकि दुनिया का सबसे विवेकहीन व्यक्ति भी बिना किसी उद्देश्य के कोई अहम काम नहीं करता। तो फिर भला इंसान के बारे में कैसे सोचा जा सकता है कि उसने इंसना को बिना किसी उद्देश्य के पैदा किया होगा और उन्हें यूँ ही छोड़ देगा। अल्लाह इस तरह की बातों से ऊँचा एवं महान है। उसका फ़रमान है : "क्या तुम यह समझ बैठे हो कि हमने तुम्हें बेकार ही पैदा किया है और यह कि तुम हमारी ओर लौटाए ही नहीं जाओगे।" [267] इसी उसका फ़रमान है : “और हमने आकाश और धरती और उनके बीच की चीजों को बेकार (और बिला वजह) पैदा नहीं किया। यह शक तो काफ़िरों का है। अतः, काफ़िरों के लिए आग की यातना है।" [268]उसपर ईमान की गवाही सारे बुद्धिमान लोगों ने दी है और मानव-विवेक का तक़ाज़ा भी यही है और सीधे मार्ग पर क़ायम फ़ितरत भी उसे ग्रहण करती है। क्योंकि जब इंसान क़यामत के दिन पर विश्वास रखता है, तो उसे शऊर हो जाता है कि इंसान किसी काम को क्यों छोड़े और किसी काम को क्यों करे? उसे इस बात का भी शऊर हो जाता है कि जो किसी पर अत्याचार करेगा, उसे उसका पाप ज़रूर उठाना होगा और लोग क़यामत के दिन उससे क़िसास ज़रूर लेंगे। साथ ही यह कि हर इंसान को उसके कर्मों का प्रतिफल ज़रूर मिलेगा। यदि अच्छा तो अच्छा और बुरा तो बुरा। ताकि हर व्यक्ति को उसके किए का बदला दिया जा सके और अल्लाह का न्याय सामने आए। अल्लाह तआला फ़रमाता है : "तो जिसने कण के बराबर भी पुण्य किया होगा, वह उसे देख लेगा। और जिसने कण के बराबर भी पाप किया होगा, वह उसे देख लेगा।'' [269]लेकिन किसी को यह पात नहीं कि क़यामत कब आएगी। उस दिन की ख़बर न किसी अल्लाह के नबी को है न किसी निकटवर्ती फ़रिश्ते को। इसकी जानकारी केवल अल्लाह को है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “यह लोग आपसे क़यामत के बारे में सवाल करते हैं कि वह कब आएगी? आप कह दीजिए कि इसका इल्म सिर्फ मेरे रब के पास ही है। इसको इसके समय पर सिवाय अल्लाह के कोई दूसरा ज़ाहिर न करेगा।'' [270] एक अन्य स्थान में उसने कहा है : "बेशक अल्लाह ही के पास क़यामत का इल्म है।'' [271]छठा स्तंभ : तक़दीर पर ईमान :तक़दीर नाम है इस विश्वास का कि अल्लाह को जो कुछ हो चुका है और जो कुछ होने वाला है, सबका ज्ञान है। वह बंदों के हालात, उनके कर्मों, आयु और रोज़ी की भी जानकारी रखता है। अल्ल तआला का फ़रमान है : "बेशक अल्लाह हर चीज़ का जानने वाला है।" [272] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है : "और अल्लाह ही के पास गैब की कुंजियाँ हैं, जिनको सिर्फ वही जानता है। तथा जो कुछ थल और जल में है वह सबका ज्ञान रखता है। कोई पत्ता नहीं गिरता, परन्तु वह उसे जानता है।तथा जो कुछ थल और जल में है, वह सबका ज्ञान रखता है। और कोई पत्ता नहीं गिरता, परन्तु उसे वह जानता है। और न कोई दाना जो धरती के अंधेरे में हो और न कोई तर और सूखा है, परन्तु वह एक खुली पुस्तक में है।'' [273] अल्लाह के पास सारी चीज़ें एक किताब में लिखी हुई हैं। अल्लाह का फ़रमान है : “और हर बात को हमने एक खुली किताब में संकलन कर रखा है।'' [274] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है : "क्या आपने नहीं जाना कि आकाश और धरती की हर चीज अल्लाह के ज्ञान में है। यह सब लिखी हुई किताब में है। अल्लाह के लिए यह काम बड़ा आसान है।'' [275] जब वह किसी चीज़ के करने का इरादा करता है, तो कहता है कि हो जा और वह हो जाती है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "जब वह किसी चीज़ का इरादा करता है, उसे इतना कह देता है कि हो जा, चुनांचे वह फौरन हो जाती है।'' [276] अल्लाह ने सारी चीज़ों का तक़दीर लिखने के साथ-साथ उन्हें पैदा भी किया है। उसका फ़रमान है : "बेशक हमने हर चीज़ को एक (निर्धारित) अंदाजा पर पैदा किया है।'' [277] एक अन्य स्थान में कहा है : "अल्लाह सभी चीजों का पैदा करने वाला है।'' [278] अल्लाह ने बंदों को अपने आज्ञापालन के लिए पैदा किया है और उनको स्पष्ट रूप से आज्ञापालन का तरीक़ा बताया है। इसी तरह अपनी अवज्ञा से मना किया है और अवज्ञा के कामों को स्पष्ट कर दिया है। फिर उन्हें शक्ति एवं इरादा प्रदान किया है कि वे अल्लाह के आदेशों का पालन कर सवाब प्राप्त कर सकें और उसकी अवज्ञा के मार्ग पर चलकर यातना के अधिकारी बन सकें।जब इंसान तक़दीर पर विश्वास रखता है, तो उसे निम्नलिखित फल प्राप्त होते हैं :1. किसी भी कार्य के साधन को अपनाते समय वह अल्लाह पर भरोसा रखता है। क्योंकि उसे पता होता है कि साधन और उसका परिणाम दोनों अल्लाह के निर्णय का हिस्सा हैं।2. इससे आत्मा को शांति और दिल को संतोष प्राप्त होता है। क्योंकि जब उसे विश्वास होता है कि सब कुछ अल्लाह के निर्णय से होता है और उसके भाग्य में जो अप्रिय बात लिख दी गई है, वह हर हाल में होकर रहेगी, तो वह अल्लाह के निर्णय से राज़ी हो जाता है और उसके दिल को संतोष प्राप्त हो जाता है। इस तरह तक़दीर को मानने वाला इंसान दुनिया का सबसे प्रसन्न और संतोषप्रद जीवन व्यतीत करता है।3. यह, मक़सद हासिल होते समय अपने नफ़्स पर इतराने से रोकता है। क्योंकि उद्देश्य का पूरा होना अल्लाह की नेमत है, जो उसके द्वारा उपलब्ध कराए गए भलाई एवं सफलता के साधनों के ज़रिए पूरा होता है। इसलिए इस अवसर पर इंसान को अल्लाह का शुक्र अदा करना चाहिए।4. भाग्य पर ईमान किसी मुराद के प्राप्त न होने या संकट के समय परेशानी और गम को दूर करता है। क्योंकि वह जानता है कि यह अल्लाह के फैसले के अनुसार हुआ है और उसके फ़सले को कोई टाल नहीं सकता और न ही उसके आदेश को कोई बदल सकता है। वह हर हाल में होकर रहेगा। ऐसे में वह सब्र करता है और अल्लाह से प्रतिफल की आशा रखता है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “न कोई कठिनाई (संकट) दुनिया में आती है न विशेष तुम्हारी जानों पर, लेकिन इससे पहले कि हम उसको पैदा करें, वह एक खास किताब में लिखी हुई है। बेशक यह काम अल्लाह पर आसान है। ताकि तुम अपने से छिन जाने वाली चीज़ पर दुखी न हो जाया करो और न प्रदान की हुई चीज़ पर गर्व करने लगो और इतराने वाले फख़्र करने वालों से अल्लाह प्रेम नहीं करता।" [279]5. तक़दीर पर ईमान से अल्लाह तआला पर पूर्ण भरोसा प्राप्त होता है। क्योंकि मुसलमान जानता है कि अल्लाह के हाथ में ही लाभ एवं हानि है। लिहाज़ा वह न किसी शक्तिशाली की शक्ति से डरता है और न किसी इंसान के भय से किसी अच्छे काम से पीछे हटता है। अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से फ़रमाया है: “याद रखो कि अगर पूरी की पूरी उम्मत तुमको लाभ पहुँचाना चाहे, तो वह कुछ भी लाभ नहीं पहुँचा सकती, सिवाय उतने के जितना अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दिया है, और इसी प्रकार अगर सारे लोग तुमको हानि पहुँचाना चाहें, तो तुमको कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकते, सिवाय उतने के जितना अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दिया है।" [280] तीसरी श्रेणी :तीसरी श्रेणी एहसान (उपकार एवं भलाई) है और इसका एक ही स्तंभ है :एहसान का अर्थ यह है कि आप अल्लाह की इबादत इस प्रकार से करें कि गोया आप उसे देख रहे हैं। लेकिन अगर आप उसे देख नहीं रहे हैं, तो कम से कम यह ख्याल रहे कि वह आपको देख रहा है। जब इंसान इस तरह अल्लाह की इबादत करता है और उसे यह एहसास रहता है कि उसका पालनहार उसके निकट ही है और वह उसके सामने खड़ा है, तो उसके अंदर अल्लाह का भय, उसका खौफ़ और उसके प्रति सम्मान पैदा होता है, इबादत की अदायगी में इख़लास आता है और वह उसे सुंदर एवं संपूर्ण बनाने का प्रयास होता है।लिहाज़ा बंदा इबादत करते समय अपने दिल में अपने पालनहार का भय रखे और अल्लाह की निकटता को इस प्रकार से महसूस करे, जैसे कि वह अल्लाह को देख रहा हो। अगर इस हालत को प्राप्त करने में कोई कठिनाई आ रही हो, तो उसे प्राप्त करने के लिए अल्लाह तआला से सहायता माँगे और इस बात पर विश्वास रखे कि अल्लाह तआला उसे देख रहा है और उसकी सारी ढकी एवं छुपी बातों को जानता है। उसकी कोई भी बात उससे छुपी नहीं है। [281]जब बंदा इस प्रकार से अल्लाह की इबादत करता है, तो वह इख़लास के साथ अपने रब की इबादत कर रहा होता है। ऐसे में न वह उसके सिवा किसी की ओर तवज्जो देता है, न लोगों की प्रशंसा की प्रतीक्षा करता है और न उनकी बुराई करने से डरता है, क्योंकि उसके लिए बस इतना काफ़ी हो जाता है कि उसका पालनहार उससे प्रसन्न हो जाए और उसका प्रभु उसकी प्रशंसा करे।वह एक ऐसा इंसान बन जाता है, जिसका ज़ाहिर और भीतर समान होता है। वह अपने रब की इबादत एकांत में भी करता है और लोगों के सामने भी। वह संपूर्ण तरीके से इस बात पर विश्वास रखता है कि जो कुछ उसके दिल में छुपा है और जो बुरे ख़याल उसके दिल में आते हैं, अल्लाह सबसे सूचित है। ईमान उसके दिल में रच-बस गया होता है और वह इस बात का एहसास रखता है कि वह अल्लाह की निगरानी में है। इस तरह उसके शरीर के सारे अंग अपने सृष्टिकर्ता के सामने समर्पित रहते हैं और वह उनके ज़रिए वही काम करता है, जो अल्लाह का पसंद हो और जिससे वह प्रसन्न होता हो।इस प्रकार जब उसका दिल अपने पालनहार से संबद्ध हो जाता है, वह किसी सृष्टि की सहायता नहीं माँगता। क्योंकि वह अल्लाह ही को पर्याप्त समझता है। वह किसी इंसान के सामने शिकायत भी नहीं करता, क्योंकि उसने अपनी ज़रूरतें अल्लाह के सामने रख दी हैं और उसकी मदद के बाद किसी और की मदद की आवश्यकता नहीं है। वह कहीं भयभीत नहीं होता और किसी से डरता नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि हर परिस्थिति में अल्लाह उसके साथ है और वही उसके लिए काफ़ी है और वह सबसे अच्छा मददगार है। वह अल्लाह के किसी आदेश की अवहेलना नहीं करता और उसकी अवज्ञा भी नहीं करता। क्योंकि वह अल्लाह से हया करता है और इस बात को नापसंद करता है कि वहाँ न रहे, जहाँ होने का अल्लाह ने आदेश दिया है और वहाँ रहे, जहाँ न होने का उसने आदेश दिया है। वह किसी सृष्टि पर अत्याचार नहीं करता और उसका हक़ नहीं मारता, क्योंकि वह जानता है कि अल्लाह उसकी हर बात से अवगत है और वह उसके सभी कर्मों का हिसाब भी लेगा। वह धरती में उपद्रव नहीं मचाता, क्योंकि वह जानता है कि धरती की सारी संपदाओं का मालिक अल्लाह है। अल्लाह ने उन्हें इंसान के काम के लिए पैदा किया है। ताकि वह आवश्यकता अनुसार उनमें से ले और उन्हें उपलब्ध कराने पर अल्लाह का शुक्र अदा करे।इस पुस्तिका में मैंने जो कुछ बयान किया और लिखा है, वह इस्लाम की महत्वपूर्ण बातें तथा महान स्तंभ हैं। ये वो स्तंभ हैं कि जब कोई बंदा इनपर विश्वास रखता और इनपर अमल करता है, तो मुसलमान हो जाता है। वरना इस्लाम नाम है धर्म और संसार, इबादत और जीने के मार्ग का। इस्लाम एक ऐसा व्यापक एवं संपूर्ण ईश्वरीय व्यवस्था है, जिसके विधि-विधानों के दायरे में जीवन के सारे क्षेत्र समान रूप से शामिल हैं। क्षेत्र चाहे आस्था का हो या राजनीति का, आर्थिक हो या सामाजिक अथवा शांति एवं सुरक्षा से संबंधित। उसके अदंर इंसान को ऐसे नियम एवं सिद्धांत और आदेश तथा निर्देश मिल जाते हैं, जो शांति एवं युद्ध की स्थितियों से निमटने के लिए काफ़ी हैं, अनिवार्य अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करते हैं, इंसान एवं पशु-पक्षियों और उनके आस-पास के माहौल की हिफ़ाजत करते हैं और इंसान, जीवन, मृत्यु और मौत के बाद के जीवन को स्पष्ट करते हैं। इसी तरह उसके अंदर लोगों के साथ व्यवहार का सबसे उत्तम आदर्श भी मिल जाता है। जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है : “और लोगों से अच्छी बात करना।” [282] इसी प्रकार अल्लाह तआला का फ़रमान है : “और ऐसे लोग, जो लोगों को माफ़ करने वाले हैं।” [283] इसी प्रकार अल्लाह तआला का फ़रमान है : “और किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हें इंसाफ़ न करने पर आमादा न करे। इंसाफ़ करो, वह परहेज़गारी से बहुत क़रीब है।" [284]इस्लाम की श्रेणियों और उसकी हर श्रेणी के सारे रुक्नों (बुनियादी बातों) का वर्णन करने बाद बेहतर मालूम होता है कि हम संक्षेप में इस्लाम की खूबियों एवं अच्छाईयों का उल्लेख कर दें। इस्लाम की कुछ खूबियाँ एवं अच्छाइयाँ [292] :इस्लाम की खूबियों के संपूर्ण वर्णन से क़लम विवश है और इस धर्म की फ़ज़ीलतों के संपूर्ण बयान में शब्द अक्षम हैं। इसका कारण यह है कि यह धर्म पवित्र एवं महान अल्लाह का धर्म है। अतः जिस तरह मानव दृष्टि से अल्लाह के दर्शन नहीं हो सकते और मानव ज्ञान उसकी संपूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता, उसी तरह उसकी शरीयत के संपूर्ण उल्लेख से क़लम विवश है। इब्न-ए-क़य्यिम कहते हैं : "जब आप इस सीधे और सरल धर्म, एकेश्वरवाद पर आधारित मज़हब और मुहम्मद صلى الله عليه وسلم की लाई हुई इस शरीयत पर चिंतन करेंगे, जिसका संपूर्ण वर्णन शब्दों के ज़रिए संभव नहीं है, जिसके सौंदर्य का बखान मुम्किन नहीं है और जिससे आगे के बारे में ज्ञानी लोगों का ज्ञान, यद्पि सब लोगों का ज्ञान उनके किसी सबसे संपूर्ण व्यक्ति के अंदर एकत्र हो जाए, सोच नहीं सकता। संपूर्ण एवं उत्कृष्ट बुद्धियों के लिए बस इतना ही काफ़ी है कि उसके सौंदर्य को ही महसूस कर लें, उसकी उत्कृषट्ता का इक़रार कर लें और यह जान लें कि संसार को उससे अधिक संपूर्ण, विशाल और भव्य जीनव विधान प्राप्त नहीं हुआ है। अगर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस शरीयत के सत्य होने का कोई प्रमाण न भी लाते, तो भी स्वयं इस शरीयत की विशालता यह बताने के लिए काफी होती कि वह अल्लाह की ओर से है। यह पूरी की पूरी शरीयत इस बात की गवाही देती है कि उसका रचयिता संपूर्ण ज्ञान वाला, संपूर्ण हिकमत वाला, व्यापक दया, भलाई और उपकार का मालिक, परोक्ष तथा प्रत्यक्ष का ज्ञान रखने वाला और हर वस्तु के आरंभ एवं अंत से अवगत है। साथ ही यह कि यह बंदों पर अल्लाह का एक बहुत बड़ा उपकार है। अल्लाह ने बंदों पर इससे बढ़कर कोई उपकार नहीं किया है कि उन्हें इस शरीयत का मार्गदर्शन किया तथा उन्हें इसका मानने वाला और पसंद करने वाला बनाया। यही कारण है कि अल्लाह ने उन्हेें इस शरीयत का मार्गदर्शन कराने को अपने उपकार बताया है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "बेशक मुसलमानों पर अल्लाह का उपकार (एहसान) है कि उसने उन्हीं में से एक रसूल उनके अंदर भेजा, जो उन्हें उसकी आयतें पढ़कर सुनाता है और उन्हें पाक करता है और उन्हें किताब और हिकमत सिखाता है, और बेशक यह सब उससे पहले स्पष्ट रूप से भटके हुए थे।" [285] अल्लाह तआला ने अपने बंदों से इस शरीयत का परिचय कराते हुए, उन्हें अपनी विशाल नेमत का स्मरण कराते हुए और इस शरीयत की प्राप्ति पर उनसे अल्लाह का शुक्र अदा करने का तक़ाज़ा करते हुए कहा है : “आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे दीन को मुकम्मल कर दिया।'' [286]इस धर्म के प्रति हम अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए इस्लाम धर्म की कुछ खूबियों को संक्षेप में वर्णन कर रहे हैं : 1- इस्लाम अल्लाह का धर्म है :यह वही धर्म है, जिसे अल्लाह तआला ने अपने लिए पसंद किया है, उसे देकर अपने रसूलों को भेजा है और लोगों को उसके द्वारा अपनी इबादत का आदेश दिया है। जिस तरह से सृष्टिकर्ता और सृष्टि के बीच कोई समानता नहीं है, उस तरह अल्लाह के धर्म इस्लाम और मानव निर्मित विधानों एवं धर्मों के बीच कोई समानता नहीं है। जिस प्रकार पवित्र अल्लाह हर एतबार से संपूर्ण है, उसी तरह उसका धर्म हर एतबार से संपूर्ण है, जो ऐसे विधि-विधान प्रस्तुत करता है, जो लोगों की दुनिया एवं आख़िरत को सँवारने का काम करते हैं, सृष्टिकर्ता के अधिकारों और उसके प्रति बंदों की ज़िम्मेवारियों तथा लोगों के एक-दूसरे के प्रति अधिकारों और ज़िम्मेवारियों को संपूर्ण रूप से बयान करते हैं। 2- व्यापकता :इस धर्म की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह कि इसकी व्यापकता के दायरे में सारी चीज़ें आ जाती हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "हमने किताब में लिखने से कोई चीज़ न छोड़ी।" [287] अतः इस धर्म की व्यापकता के अंदर सृष्टिकर्ता से संबंधित सारी बातें जैसे अल्लाह के नाम, उसके गुण और उसके अधिकार आदि और सृष्टि से संबंधित सारी बातें जैसे विधि-विधान, ज़िम्मेदारियाँ, आचरण और आपसनी मामलात आदि सब कुछ दाख़िल है। यह धर्म पहले और बाद के लोगों, फ़रिश्तों, नबियों और रसूलों से संबंधित सारी सूचनाएँ प्रदान करता है। यह आकाश, ग्रहों, तारों, समुद्रों, पेड़ों और कायनात के बारें में बात करता है। इसने सृष्टि की रचना के कारण, उद्देश और अंजाम भी बताया है। इसने जन्नत और ईमान वालों का अंजाम बयान किया है, तो जहन्नम एवं काफ़िरों का ठिकाना भी बताया है। 3- इस्लाम सृष्टिकर्ता और सृष्टि के बीच संबंध जोड़ता है :हर समुदाय और हर झूठे धर्म की यह विशेषता है कि वह एक इंसान को उसी के समान दूसरे इंसान से जोड़ता है, जिसको मौत, कमज़ोरी और बीमारी आती है, बल्कि कभी-कभार ऐसे मनुष्य से संबंध जोड़ता है जो सदियों पहले मर चुका होता है और सड़-गलकर मिट्टी और हड्डी बन गया होता है। लेकिन इस्लाम की विशेषता यह है कि वह मनुष्य का संबंध सीधे उसके सृष्टिकर्ता से जोड़ता है। यहाँ बीच में न कोई पादरी होता है, न पुण्यात्मा होती है और न धार्मिक संस्कार होते हैं। यहाँ सृष्टि एवं सृष्टिकर्ता के बीच सीधा संबंध होता है। ऐसा संबंध, जो विवेक को उसके रब से जोड़ देता है, जिससे वह प्रकाशमय हो जाता है, मार्गदर्शन प्राप्त करता है, ऊँचाई प्राप्त करता है, संपूर्णता का मार्ग अपनाता है और तुच्छ चीज़ों से बचता है, क्योंकि जो दिल अपने सृष्टिकर्ता से संबद्ध नहीं होता, वह पशुओं से भी अधिक गुमराह है।यह सृष्टिकर्ता और सृष्टि के बीच ऐसा संबंध स्थापित करता है, जिसके ज़रिये सृष्टि यह जानती है कि अल्लाह उससे क्या चाहता है, फलस्वरूप वह पूरी समझ-बूझ के साथ अल्लाह की इबादत करता है और अल्लाह के पसंदीदा कामों को जानकर उन्हें करने एथा उसके नापसंदीदा कामों को जानकर उनसे बचने का प्रयास करता है।यह महान सृष्टिकर्ता और निर्बल एवं निर्धन सृष्टि के बीच संबंध स्थापित करता है, जिसके नतीजे में वह उससे मदद, सहायता और सामर्थ्य माँगता है और षड्यंत्रकारियों के षड्यंत्र एवं शैतान के हाथ का खिलौना बनने से सुरक्षा माँगता है। 4- इस्लाम दुनिया और आखिरत दोनों के हितों की रक्षा करता है :इस्लामी शरीयत की बुनियाद दुनिया एवं आख़िरत के हितों की रक्षा एवं उच्च नैतिकता को संपूर्ण रूप देने के विचार पर रखी गई है।जहाँ तक आख़िरत के हितों के बयान का संबंध है, तो याद रहे कि शरीयत ने उसके सारे रूपों को बयान किया है और उसके किसी भी पहलू को नहीं छोड़ा है। बल्कि उनको विस्तारित रूप से बयान कर दिया है, ताकि कोई भी बात निगाहों से ओझल न रह जाए। इसी क्रम में उसकी नेमतों का वादा किया है और उसकी यातनाओं से सावधान किया है।और जहाँ तक सांसारिक हितों के बयान की बात है, तो अल्लाह ने इस धर्म के द्वारा ऐसे विधान प्रस्तुत कर दिए, जिनके ज़रिए इंसान के धर्म, जान, माल, नसब, इज़्ज़त और बुद्धि की सुरक्षा हो सके।जबकि उच्त नैतिकता के बयान की बात करें, तो अल्लाह ने भीतरी एवं बाहरी दोनों एतबार से इससे सुसज्जित होने का आदेश दिया है और हीन नैतिकता का शिकार होने से मना किया है। ज़ाहिरी उच्च नैतिकता में स्वच्छता एवं गंदगियों से साफ़-सुथरा रहना जैसी चीज़ें आती हैं। इस्लाम ने खुशबू लगाने तथा अच्छे कपड़े पहनने और अच्छी शक्ल-सूरत में रहने की प्रेरणा दी है। जबकि गंदी चीज़ों जैसे व्यभिचार, मदिरापान तथा मुर्दार, रक्त एवं सूअर का मांस खाने को हराम क़रार दिया है। इसी प्रकार उसने पाक चीज़ों को खाने का आदेश दिया है एवं फ़ज़ूलखर्ची से मना किया है।जहाँ तक अंदरूनी स्वच्छता की बात है, तो इसका संबंध हीन नैतिकता से खुद को बचाए रखने और उच्च नैतिकता से सुशोभित करने से है। हीन नैतिकता के उदाहरण झूठ, गुनाह, क्रोध, ईर्ष्या, कंजूसी, तुच्छ मानसिकता, पद एवं दुनिया का मोह, घमंड, अभिमान और रियाकारी आदि हैं। जबकि उच्च नैतिकता के उदाहरण अच्छा आचरण, लोगों के साथ अच्छा व्यवहार, लोगों की भलाई करना, न्याय, विनम्रता, सच्चाई, दानशीलता, खर्च करना, अल्लाह पर भरोसा करना, इख़लास, अल्लाह का भय, धैर्य और शुक्र आदि हैं। [288] 5- सरलता :सरलता इस धर्म की एक महत्पूर्ण विशेषता है। इसके हर धार्मिक कार्य में सरलता एवं आसानी दिखती है और इसकी हर इबादत में आसानी दिखती है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और अल्लाह ने तुमपर दीन के बारे में कोई कठिनाई नहीं रखी।" [289] इस सरलता का पहला दृश्य यहाँ नज़र आता है कि जब कोई व्यक्ति इस धर्म में प्रवेश करना चाहे, तो उसे किसी मानव मध्यस्थता अथवा अतीत में किए हुए कामों का एतराफ़ करने की आवश्यकता नहीं है। उसे जो कुछ करना है, वह यह है कि पाक-साफ़ होकर इस बात की गवाही दे कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं। फिर इन दोनों गवाहियों के अर्थ को समझे और उनके तक़ाज़ों पर अमल करे।इसी तरह जब इंसान सफर करता है या बीमार हो जाता है, तो उसकी इबादत में कमी एवं आसानी कर दी जाती है और उसको उस कार्य का वही सवाब मिलता है, जो किसी घर में रहने वाले और स्वस्थ आदमी को मिलता है। इससे भी आगे बढ़कर यह कि एक मुसलमान का जीवन सरल एवं संतोषजनक रहता है, जबकि एक काफ़िर का जीवन मुश्किल एवं कठिनाई भरा रहता है। इसी प्रकार मोमिन की मौत आसान होती है और उसकी आत्मा कुछ इस तरह निकलती है, जैसे किसी बर्तन से पानी की बूंद निकतली हो। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "वे जिनकी जान फ़रिश्ते ऐसी हालत में निकालते हैं कि वे पाक-साफ हों, कहते हैं कि तुम्हारे लिए सलामती ही सलामती है, अपने उन कर्मों के बदले जन्नत में जाओ, जो तुम कर रहे थे।" [290] जबकि काफ़िर की मौत के समय बड़े निर्दयी और शक्तिशाली फ़रिशते उपस्थित रहते हैं और उसपर कोड़े बरसा रहे होते हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “अगर आप ज़ालिमों को मौत के सख्त अज़ाब में देखेंगे, जब फ़रिश्ते अपने हाथ लपकाए होते हैं कि अपनी जान निकालो, आज तुम्हें अल्लाह पर नाहक आरोप लगाने और अभिमान से उसकी आयतों का इंकार करने के सबब अपमानकारी बदला दिया जाएगा।'' [291] एक अन्य स्थान पर उसका फ़रमान है : "और अगर आप देखेंगे जब फ़रिश्ते काफिरों की जान निकालते हैं, उनके चेहरे और कमर पर मार मारते हैं (और कहते हैं) तुम जलने के अज़ाब का मज़ा चखो।'' [292] 6- न्याय :इस्लामी शरीयत के विधि-विधानों का रचयिता अल्लाह है, जो सारे इंसानों, पुरुष हों कि स्त्री एवं गोरे हों कि काले, का सृष्टिकर्ता है। सारे इंसान उसके शासन, न्याय एवं दया के सामने समान हैं। उसने पुरुष एवं स्त्री सबके लिए उसके अनुरूप विधि-विधान बनाए हैं। ऐसे में यह असंभव है कि शरीयत स्त्रियों की तुलना में पुरुषों का पक्ष ले या स्त्री को तरजीह दे एवं पुरुष पर अत्याचार करे या काले इंसानों की तुलना में गोरे इंसानों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान करे। सारे लोग अल्लाह की शरीयत के सामने बराबर हैं। उनके बीच कोई अंतर नहीं है। यदि है भी तो तक़वा यानी धर्म के अनुपालन के आधार पर। 7- भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना :इस शरीयत की एक सम्मानीय विशेषता और अनूठी ख़ुसूसियत भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना है। हर वयस्क, विवेकी और सक्षम मुसलमान पुरुष तथा स्त्री पर अनिवार्य है कि अपनी शक्ति के अनुसार, भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने की विभिन्न श्रेणियों को ध्यान में रखते हुए यह काम करे। इस ज़िम्मेवारी की विभिन्न श्रेणियों से आशय यह है कि अपने हाथ से भलाई का आदेश दे और बुराई से रोके। अगर हाथ से ऐसा करना संभव न हो, तो ज़बान से करे और अगर ज़बान से भी संभव न हो, तो दिल से करे। ऐसा करने से पूरी उम्मत स्वयं अपनी ही निगरानी कर रही होगी। इस तरह हर व्यक्ति पर उस आदमी को भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना अनिवार्य है, जो किसी अच्छे काम में कोताही करे या किसी ग़लत का में पड़ जाए। चाहे वह शासक हो या आम नागिरक। उसे अपनी क्षमता एवं उन शरई सिद्धांतों के अनुसार यह काम करना है, जो इस काम को सुव्यवस्थित तरीक़े से करने के लिए बनाए गए हैं।जैसा कि आपने देखा यह काम हर व्यक्ति पर उसकी क्षमता के अनुसार आवश्यक है, जबकि आज बहुत-सी समकालीन राजनीतिक प्रणालियाँ इस बात पर गर्व करती हैं कि उन्होंने विपक्षी दलों को सारकारी कार्यकलापों और आधिकारिक एजेंसियों के कामकाज पर नज़र रखने का अवसर प्रदान किया है।यह इस्लाम की कुछ महत्वपूर्ण खूबियाँ हैं। अगर मैं विस्तृत जानकारी उपलब्ध करना चाहता, तो इस्लाम के हर प्रतीक, हर फ़र्ज़, हर आदेश एवं हर निषेध को अलग-अलग समय देकर उसमें निहित अनंत हिकमत, ठोस विधि निर्माण के पक्ष, असीम सौंदर्य और अतुलनीय संपूर्णता को बयान करना पड़ता। जो व्यक्ति इस धर्म के विधानों पर ग़ौर करेगा, वह निश्चित रूप से जान लेगा कि यह अल्लाह का धर्म है और यह वह सत्य है जिसमें कोई संदेह नहीं है और वह मार्गदर्शन है जिसमें कोई भटकाव नहीं है।अगर आप अल्लाह की ओर लौटना चाहते हैं, उसकी शरीयत का अनुसरण करना चाहते हैं और उसके नबियों एवं रसूलों के पद्चिह्नों पर चलना चाहते हैं, तो तौबा का द्वार खुला हुआ है और आपका क्षमाशील एवं दयावान अल्लाह आपको बुलाता है कि आपको क्षमा कर दे। तौबाअल्लाह के रसूल يصلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया है : "आदम के सारे बेटे खताकार हैं और सबसे अच्छे खताकार वह लोग हैं, जो अपने गुनाहों की अल्लाह से माफी माँगते हैं।" [293] मनुष्य अपनी रचना के एतबार से कमज़ोर है और अपने साहस तथा निश्चय के एतबार से भी कमज़ोर है। वह अपने पाप एवं गुनाहों के अंजाम को उठाने की शक्ति नहीं रखता। इसलिए अल्लाह तआला ने उसपर दया करते हुए उसको बहुत सारी छूट दे रखी है। उदाहरणस्वरूप उसके लिए तौबा करने का विकल्प रखा है। तौबा से आशय है अल्लाह के भय और मोमिन बंदों के लिए उसके द्वारा तैयार की गई नेमतों की आशा में गुनाह को छोड़ देना, जो कोताही हुई है उसपर शर्मिंदा होना, दोबारा गलती न करने का निश्चय करना और सत्कर्मों के ज़रिए क्षतिपूर्ति का प्रयास करना। [294] तौबा, जैसा कि आपने देखा, एक हृदय संबंधित कार्य है, जिसका ताल्लुक़ बंदा और उसके रब से है। न कोई थकान और न किसी कठिन कार्य का सामना। केवल दिल से संबंधित काम करना है और आने वाले दिनों में गुनाहों से बचना है। गुनाहों से बचना छोड़ना और राहत है।[295]ऐसा कुछ ज़रूरी नहीं है कि आप किसी इंसान के हाथ पर तौबा करें, जो आपका अपमान करे, आपका भेद खोल दे और आपकी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाए। तौबा नाम है आपके और आपके रब के बीच मुनाजात है। आप उससे क्षमा माँगते हैं और मार्गदर्श तलब करते हैं और वह आपकी तौबा ग्रहण करता है।इस्लाम में न विरासत में मिले हुए पाप की कोई कल्पना है और न किसी प्रतीक्षित मुक्तिदाता की धारणा। बल्कि आस्ट्रियाई यहूदी, जिसने बाद में इस्लाम ग्रहण कर लिया था और मुहम्मद असद नाम रख लिया था, ने जो कुछ महसूस किया था, वह कुछ इस तरह है : “मुझे पूरे कुरआन में किसी भी जगह इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिला कि मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाने की ज़रूरत है। इस्लाम में किसी भी विरासत में मिली हुई प्रथम गलती की कोई कल्पना नहीं है, जो आदमी के और उसके अंतिम परिणाम के बीच रुकावट बनती हो। इसका कारण यह है कि : "इंसान के लिए केवल वही है जिसकी कोशिश खुद उसने की।" [296] यहाँ इंसान से इस बात का मुतालबा नहीं होता कि तौबा का मार्ग खुलवाने और गुनाह से मुक्ति प्राप्त करने के लिए कोई क़ुरबानी पेश करे या अपना वध कर दे[297]।" बल्कि उसका सिद्धांत अल्लाह तआला के इस कथन में बयान किया गया है : “कोई इंसान किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा।'' [298]तौबा के बहुत-से बड़े-बड़े प्रभाव प्रकट होते हैं। यहाँ हम इस तरह के कुछ प्रभावों का उल्लेख कर रहे हैं :1. बंदा को अल्लाह तआला की व्यापक सहनशीलता और उसके गुनाहों को उजागर न करने के मामले में उदारता का ज्ञान होता है। हालाँकि अगर अल्लाह चाहे, तो बंदे को फौरन उसके गुनाह की सज़ा दे दे और बंदों के बीच उसका अपमान कर दे, जिसके बाद वह लोगों की नज़रों में खटकने लगे। ऐसा करने के बजाय अल्लाह उसके गुनाह पर पर्दा डाल देता है और उसे सामर्थ्य, शक्ति एवं रोज़ी प्रदान करता है।2. तौबा का दूसरा लाभ यह है कि बंदा अपनी वास्तविकता को अच्छी तरह जान जाता है और इस बात से अवगत हो जाता है कि इंसान का मन उसे बुराई का आदेश देता है। साथ ही यह कि उससे जो गुनाह और बुराई होती है, वह मन की दुर्बलता, अवैध आकांक्षाओं से दूर रहने में अक्षमता और इस बात का प्रमाण है कि वह एक क्षण के लिए भी अल्लाह से बेनियाज़ नहीं हो सकता कि वह उसे पवित्र करे और मार्गदर्शन करे।3. अल्लाह ने तौबा का प्रावधान इसलिए रखा है, ताकि उसके ज़रिए बंदे के सैभाग्य का सबसे बड़ा साधन प्राप्त हो। यानी वह अल्लाह के शरण में आ जाए और उससे मदद माँगने लगे। इसी तरह तौबा से दुआ, अल्लाह के सामने गिड़गिड़ाने, उससे प्रेम, उसके भय और उससे आशा आदि के द्वार भी खुलते हैं। तौबा नफ़्स को उसके सृष्टिकर्ता से एक विशेष प्रकार की निकटता प्रदान करती है, जो तौबा एवं अल्लाह के शरण में गए बिना प्राप्त नहीं हो सकती।4. तौबा करने से अल्लाह तआला मनुष्य के पिछले पापों का क्षमा कर देता है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “आप काफिरों से कह दीजिए कि अगर यह लोग रुक जाएँ, तो इनके सारे गुनाह जो पहले कर चुके हैं, माफ़ कर दिये जायेंगे।" [299]5. तौबा के द्वारा इंसान के गुनाहों को नेकियों में बदल दिया जाता है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “उन लोगों के सिवाय जो माफी माँग लें और ईमान लाएँ और नेक काम करें। ऐसे लोगों के गुनाहों को अल्लाह नेकी में बदल देता है। अल्लाह तआला बड़ा क्षमा करने वाला और दया करने वाला है।" [300]6. इंसान अन्य इंसानों के साथ उनकी कोताहियों एवं गलतियों में उसी प्रकार का व्यवहार करे, जिस प्रकार का व्यवहार वह पसंद करता है कि अल्लाह उसकी कोताहियों, गलतियों एवं गुनाहों के बारे में करे। क्योंकि इंसान जिस तरह का कर्म करता है, उसे उसी तरह का प्रतिफल मिलता है। अतः जब वह लोगों के साथ इस तरह का अच्छा व्यवहार करेगा, तो उसी तरह का प्रतिफल अपने प्रभु से प्राप्त करेगा और अल्लाह उसके गुनाहों एवं गलतियों को नेकियों और अच्छाइयों से बदल देगा।7. इंसान इस बात को जान ले कि उससे भी बहुत-सी गलतियों होती हैं और उसके अंदर भी बहुत-सी कमियाँ हैं। इससे वह दूसरे लोगों की कमियाँ गिनना छोड़ देगा और दूसरे लोगों की कमियों के बारे में सोचने के बजाय अपना सुधार करने पर ध्यान देने लगेगा। [301]मैं इस भाग का अंत एक हदीस से करना चाहता हूँ, जिसमें है कि एक व्यक्ति अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और बोला : ऐ अल्लाह के रसूल! मैंने हर प्रकार की बुराइयाँ की हैं। आपने पूछा : "क्या तुम यह गवाही नहीं देते कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं है और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं?" आपने तीन बार कहा तो उस आदमी ने उत्तर दिया : जी हाँ। इसपर आपने कहा : "यह वाक्य उन्हें खत्म कर देगा।" और दूसरी रिवायत में है कि : “उन सब को यही काफी है।'' [302]एक दूसरी रिवायत में है कि वह अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم के पास आया और बोला : आपका क्या विचार है उस व्यक्ति के बारे में, जिसने हर प्रकार के गुनाह किए हों, सिवाय इसके कि उसने अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं किया हो? क्या ऐसे व्यक्ति के लिए तौबा (पश्चाताप) का दरवाज़ा खुला हुआ है? तो आपने उससे पूछा : "क्या तू इस्लाम लाया है?" उस आदमी ने उत्तर दिया : मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं है, वह एक है और उसका कोई साझी नहीं है और आप अल्लाह के रसूल हैं। तो आपने फ़रमाया : "ठीक है, अच्छे कार्य करते रहो औप बुरे कार्यों से बचते रहो। तो अल्लाह तआला तुम्हारे लिए उन्हें भी नेकियों में बदल देगा।" फिर उसने कहा : मेरी पहले की गलतियाँ और नाफरमानियाँ भी? आपने कहा : "हाँ।" यह सुन उसने "अल्लाहु अकबर" कहा और इसे दोहराता ही रहा, यहाँ तक नज़रों से ओझल हो गया। [303]इस तरह इस्लाम पहले के सारे गुनाहों को मिटा देता है और सच्ची तौबा भी अपने से पहले के गुनाहों को मिटा देती है, जैसा कि अल्लाह के नबी صلى الله عليه وسلم की हदीस से साबित है। इस्लाम का पालन न करने वाले का परिणामइस पुस्तक से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि इस्लाम अल्लाह का धर्म है, वही सच्चा धर्म है, उसी धर्म को लेकर सारे नबी और रसूल आए थे, उसपर ईमान लाने वाले को अल्लाह दुनिया एवं आखिरत में बहुत बड़ा प्रतिफल प्रदान करेगा, जबकि उसे न मानने वाले को उसने भयानक यातना की धमकी दी है।चूँकि अल्लाह तआला ही इस ब्रह्माण्ड का रचयिता, स्रष्टा, स्वामी और प्रबंधक है और इंसान उसकी सृष्टियों में से एक सृष्टि है, जिसे उसने पैदा किया है और ब्रहमाण्ड की सारी चीजों को उसके काम में लगाया है, उसके लिए विधान बनाए हैं और उसे उनके अनुसरण का आदेश दिया है। अब यदि वह ईमान लाता है, अल्लाह के आदेशों का पालन करता है और उसके मना किए हुए कामों से बचता है, तो अल्लाह ने आख़िरत में जिन सदा रहने वाली नेमतों का वादा किया है वह उन्हें प्राप्त करने में सफल हो जाएगा, दुनिया में अल्लाह की प्रदान की हुई विभिन्न प्रकार की नेमतों का आनंद उठाएगा और मानव जाति के सबसे संपूर्ण विवेक और पवित्र आत्मा वाले लोगों यानी नबियों, रसूलों, सदाचारियों और निकटवर्ती फ़रिश्तों से समानता रखने वाले लोगों में शुमार होगा।लेकिन अगर अविश्वास का मार्ग अपनाया और अपने पालनहार की अवज्ञा की तो दुनिया एवं आख़िरत में घाटा उठाने वाला सिद्ध होगा, लोक तथा परलोक में अल्लाह के क्रोध और उसकी यातना का सामना करेगा और सबसे दुष्ट, बुद्धिहीन एवं तुच्छ आत्मा वाले लोगों जैसे शैतानों, अत्याचारियों और फ़साद मचाने वाले ताग़ूतों से समानता वाले लोगों में शुमार होगा। यह संक्षिप्त बात हुई।अब मैं विस्तार से कुफ्र के कुछ परिणामों का उल्लेख कर रहा हूँ : 1- भय और असुरक्षा :अल्लाह तआला ने अपने ऊपर ईमान रखने वालों और अपने संदेष्टाओं का अनुसरण करने वालों के लिए लोक और परलोक में संपूर्ण सुरक्षा का वादा किया है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : "जो लोग ईमान लाए और अपने ईमान में शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की मिलावट नहीं की, उन्हीं लोगों के लिए सुरक्षा है और वही लोग मार्गदर्शन प्राप्त हैं।'' [304] अल्लाह तआला ही शांति प्रदान करने वाला और रक्षक है तथा वही ब्रह्माण्ड की सभी चीजों का स्वामी है। जब वह किसी बंदे से उसके ईमान की वजह से प्यार करता है तो उसे सुरक्षा, शांति और चैन प्रदान कर देता है और जब मनुष्य उसके साथ कुफ़्र करता है तो वह उसके चैन और सुरक्षा को छीन लेता है। अतः आप इस तरह के व्यक्ति को सदा आख़िरत के जीवन के अंजाम और दुनिया में आने वाली आपदाओं तथा बीमारियों एवं अपने भविष्य से डरा हुआ देखेंगे। इसी असुरक्षा की भावना और अल्लाह पर भरोसा न होने के कारण जीवन बीमा तथा संपत्ति बीमा का बाज़ार खूब उफान पर है। 2- कठिन जीवन :अल्लाह ने मनुष्य को पैदा किया और बह्माण्ड की सभी चीजों को उसके अधीन कर दिया तथा प्रत्येक प्राणी को उसके हिस्से की जीविका और आयु आवंटित कर दी। आप पक्षी को देखते हैं कि वह जीविका की तलाश में सवेरे अपने घोंसले से बाहर जाता है और जीविका प्राप्त करता है, एक डाली से उड़कर दूसरी डाली में बैठता है और मीठे-मीठे गीत गाता रहता है। मानव भी इन्हीं प्राणियों में से एक प्राणी है, जिनकी आजीविका और आयु निर्धारित है। अब अगर वह अपने पालनहार पर विश्वास रखता है और उसके धर्म विधान का पालन करता है, तो उसे सौभाग्य और सुकून प्रदान करता है और उसके लिए जीवन के मार्ग को आसान कर देता है। यद्पि उसके पास जीवन के साधन कम से कम परिमाण ही में क्यों न हों।लेकिन अगर उसने अपने पालनहार के प्रति अविश्वास व्यक्त किया और उसकी इबादत से अहंकार प्रदर्शित किया; तो वह उसके जीवन को तंग और कठोर बना देगा और उसके ऊपर दुःखों एवं चिंताओं का पहाड़ लाद देगा। यद्पि उसके पास सुकून के सारे साधन और हर प्रकार के सामान ही मौजूद क्यों न हों। क्या आप उन देशों में आत्महत्या करने वालों की बड़ी संख्या नहीं देखते, जो अपने नागरिकों के लिए समृद्धि व विलासिता के सभी साधन सुनिश्चित करते हैं? क्या आप जीवन का आनंद लेने के लिए विभिन्न प्रकार के फर्नीचरों और तरह-तरह की यात्राओं में फ़िज़ूलखर्ची नहीं देखते? दरअसल इस फ़िज़ूलख़र्ची का कारण दिल का ईमान की दौलत से वंचित होना, दिल के अंदर बेचैनी का एहसास और इस बेचैनी को कुछ अन्य साधनों के ज़रिए बदलने का प्रयास है। इस संदर्भ में अल्लाह तआला का यह फ़रमान कितना सच्चा है : "और हाँ, जो मेरी याद से मुँह फेरेगा, उसके जीवन में तंगी रहेगी और हम उसे क़यामत के दिन अँधा करके उठायेंगे।'' [305] 3- वह अपने आप और अपने आसपास के ब्रह्माण्ड के साथ संघर्ष में रहता है :इसका कारण यह है कि उसकी सृष्टि एकेश्वरवाद पर हुई है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "अल्लाह तआला की वह फ़ितरत (प्रकृति) को थोमे रखो, जिसपर उसने लोगों को पैदा किया है।'' [306] उसका शरीर भी अपने पैदा करने वाले अल्लाह को मानता और उसकी व्यवस्था के अनुसार चलता है। लेकिन स्वयं वह अपनी फ़ितरत का विरोध करने और अपने अख़्तियारी विषयों में अपने पालनहार के आदेश की मुख़ालफ़त करते हुए जीनव बिताने पर अड़ा हुआ है। इस तरह, एक ओर उसका शरीर अल्लाह की व्यवस्था को मानता है, तो दूसरी ओर वह अपने अख़्तियारी मामलों में उसकी मुख़ालफ़त करता है।वह अपने चारों ओर के ब्रह्माण्ड के साथ भी संघर्षरत है। क्योंकि यह पूरा ब्रह्माण्ड, बड़ी-बड़ी आकाशगंगाओं से छोटे-छोटे कीड़ों-मकोड़ों तक, अपने पालनहार की बनाई हुई व्यवस्था के अनुसार ही चल रहे हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "फिर वह आकाश की ओर बुलंद हुआ और वह धुंआ (सा) था, तो उसे और धरती को आदेश दिया कि तुम दोनों आओ, चाहो या न चाहो। दोनों ने निवेदन किया कि हम खुशी-खुशी हाज़िर हैं।'' [307] बल्कि यह ब्रह्माण्ड उससे प्यार करता है जो अपने अल्लाह के प्रति समर्पण में उससे सहमत है और उससे घृणा करता है जो उसका विरोध करता है। जबकि काफ़िर इस सृष्टि के अंदर अपने रब का नाफ़रमान है, जिसने अपने आपको अपने रब के विरोधी के रूप में स्थापित कर रखा है। अतः आकाश, धरती और सभी सृष्टियों का उससे तथा उसके अविश्वास एवं नास्तिकता से घृणा करना उचित भी है। अल्लाह सर्वशक्तिमान का फ़रमान है : "और उनका कहना तो यह है कि अति दयावान अल्लाह ने संतान बना रखी है। नि:संदेह तुम बहुत (बुरी और) भारी चीज़ लाए हो। करीब है कि इस कथन से आकाश फट जाए और धरती में दराड़ हो जाए और पहाड़ कण-कण हो जाएँ। कि वे रहमान की संतान साबित करने बैठे हैं। और रहमान के लायक नहीं कि वह संतान रखे। आकाशों और धरती में जो भी हैं, सब अल्लाह के गुलाम बन कर ही आने वाले हैं।" [308] अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फिरऔन और उसके सैनिकों के बारे में फ़रमाया : "तो उनपर न आकाश रोया, न धरती रोई और न उन्हें अवसर मिला।” [309] 4- वह अज्ञानता का जीवन गुज़ारता है :क्योंकि कुफ़्र अज्ञानता ही नहीं, सबसे बड़ी अज्ञानता है। कारण यह है कि काफ़िर अपने रब से अनभिज्ञ रहता है। वह इस ब्रहमांड को देखता है, जिसे उसके रब ने बड़े अनूठे अंदाज़ में पैदा किया है तथा स्वयं अपनी शानदार रचना को भी देखता है और इसके बावजूद इस कायनात की रचना और अपनी सृष्टि से अज्ञानता दिखाता है। क्या यह सबसे बड़ी अज्ञानता नहीं है? 5- वह अपने ऊपर और अपने आसपास की चीज़ों पर ज़ुल्म (अत्याचार) करते हुए जीवन बिताता है :क्योंकि उसने अपने आपको उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समर्पित नहीं किया है, जिसके लिए उसे पैदा किया गया है। उसने अपने पालनहार की इबादत के बजाय औरों की इबादत की है। वैसे "ज़ुल्म" शब्द का अर्थ है, किसी चीज़ को उसके असल स्थान से हटाकर दूसरे स्थान में रख देना और इबादत जो कि अल्लाह की होनी चाहिए उसे उसके अतिरिक्त किसी और के लिए करने से बड़ा ज़ुल्म और क्या हो सकता है!! लुक़मान हकीम ने शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की बुराई को स्पष्ट करते हुए फ़रमाया : “ऐ मेरे बेटे! तू अल्लाह के साथ शिर्क न करना। नि:संदेह शिर्क महा अन्याय महापाप) है।'' [310]वह अपने आसपास के इंसानों और सृष्टियों पर अत्याचार करता है, क्योंकि वह किसी हक़दार के हक़ से अवगत नहीं होता। अतः क़यामत के दिन उसके सामने वह सारे इंसान और जानवर खड़े हो जाएँगे, जिनपर उसने अत्याचार किया था। हर कोई अपने पालनहार से उससे क़िसास दिलवाने की गुहार लगाएगा। 6- वह दुनिया में अपने आपको अल्लाह की घृणा और उसके क्रोध का पात्र बना लेता है :चुनाँचे वह तत्काल दंड के रूप में आपदाओं और वेदनाओं से पीड़ित होने के निशाने पर होता है। अल्लाह सर्वशक्तिमान का फ़रमान है : “क्या बुरा छल-कपट करने वाले इस बात से निश्चिंत हो गए हैं कि अल्लाह उन्हें धरती में धंसा दे या उनके पास ऐसी जगह से अज़ाब (प्रकोप) आ जाए, जिसका उन्हें एहसास भी न हो? या उनको चलते-फिरते पकड़ ले, तो वे किसी भी तरह से अल्लाह को मजबूर नहीं कर सकते? या उन्हें डरा-धमका कर पकड़ ले, फिर बेशक तुम्हारा पालनहार बड़ा करुणामया और दयावान है? [311] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है : “काफ़िरों को तो उनके कुफ़्र के बदले सदैव ही कोई न कोई सख्त सज़ा पहुँचती रहेगी, या उनके मकानों के आसपास उतरती रहेगी, यहाँ तक कि अल्लाह का वादा आ पहुँचे। नि:संदेह अल्लाह तआला वादा नहीं तोड़ता।'' [312] इसी तरह उसका फ़रमान है : "क्या इन बस्तियों के रहने वाले इस बात से निश्चिंत हो गए हैं कि उनपर हमारा अज़ाब दिन चढ़े आ जाए, जिस समय वे खेलों में व्यस्त हों?" [313] यही हाल हर उस व्यक्ति का है, जिसने अल्लाह के ज़िक्र से मुँह फेरा। अल्लाह तआला पिछले काफ़िर समुदायों की सज़ाओं के बारे में सूचना देते हुए फ़रमाया है : "फिर तो हमने हर एक को उसके पाप की सज़ा में धर लिया, उनमें से कुछ पर तो हमने पत्थरों की बारिश की, उनमें से कुछ को तेज़ चीख ने दबोच लिया, उनमें से कुछ को हमने धरती में धँसा दिया, और उनमें से कुछ को हमने पानी में डुबो दिया। अल्लाह तआला ऐसा नहीं कि उनपर जुल्म करे, बल्कि वही लोग अपनी जानों पर स्वयं जुल्म करते थे।" [314] इसी तरह आप अपने पास के उन लोगों की मुसीबतों को देखते हैं, जिनको अल्लाह की सज़ा और दंड का सामना करना पड़ा। 7- उसके लिए विफलता और घाटा लिख दिया जाता है :अपने अत्याचार कारण उसने हृदय और आत्मा के आनंद की सबसे बड़ी वस्तु यानी अल्लाह के ज्ञान, उसकी मुनाजात से प्रेम और उसके ज़िक्र से सुकून की प्राप्ति की दौलत को खो दिया होता है। वह दुनिया में भी घाटा का शिकार रहता है, क्योंकि दुनिया में दुखमय और परेशान जीवन व्यतीत करता है। वह स्वयं अपने आपको भी घाटा में रखता है, क्योंकि उसने अपने आपको उस काम में नहीं लगाया, जिसके लिए उसे पैदा किया गया था। इस वह बुरा जीवन व्यतीत करता है, बुरी मौत मरता है और बुरे लोगों के साथ ही दोबारा जीवित किया जाएगा। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और जिसका (नेकियों का) पलड़ा हल्का होगा, तो ये वे लोग हैं, जिन्होंने अपना घाटा कर लिया।'' [315] वह अपने परिवार के लोगों का भी नुक़सान करता है, क्योंकि उनके साथ अविश्वास की अवस्था में जीवन गुज़ारता है, जिसके कारण वे भी उसी की तरह दुर्भाग्य और कठिनाई से भरा जीवन बिताते हैं और उनका भी ठिकाना जहन्नम है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "वास्तव में घाटा उठाने वाले वे लोग हैं, जो क़यामत के दिन अपने आपको और अपने परिवार को घाटे में डाल देंगे।" [316] फिर कयामत के दिन वे नरक की ओर इकट्ठा किए जाएँगे और वह एक बुरा ठिकाना है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "जो लोग जुल्म करते थे उन्हें इकट्ठा करो, और उनके समान लोगों को और जिन-जिनकी वे अल्लाह को छोड़कर पूजा करते थे, (उन सबको जमा करके) उन्हें नरक का रास्ता दिखा दो।" [317] 8- वह अपने पालनहार के साथ कुफ्र करने वाला और उसकी नेमतों का इनकार करने वाला बनकर जीवन गुज़ारता है :अल्लाह ने उसे अनस्तित्व से अस्तित्व प्रदान किया और उसे हर प्रकार की नेमतें प्रदान कीं, लेकिन इसके बावजूद वह दूसरों की इबादत करता है, दूसरों से प्रेम रखता है और उनका आभार व्यक्त करता है। भला इससे बढ़कर हठधर्मी और क्या हो सकती है और इससे बुरी नाशुक्री और क्या हो सकती है? 9- वह वास्तविक जीवन से वंचित कर दिया जाता है :इसलिए कि जीवन के योग्य मनुष्य वह है जो अपने पालनहार पर ईमान लाए, जीवन के उद्देश्य को समझे, अपने अंजाम से अवगत हो और मरने के बाद पुनः जीवित किए जाने पर यकीन रखते। इस तरह वह हर हक़दार के हक को पहचाने। अतः किसी का हक़ न मारे और किसी प्राणी को कष्ट न दे। चुनाँचे सौभाग्यशाली लोगों का जीवन गुज़ारे और दुनिया एवं आख़िरत में उत्तम जीवन बिताए। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "जो व्यक्ति सत्कर्म करेगा, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, किन्तु मोमिन हो, तो नि:सन्देह हम उसे उत्तम जीवन प्रदान करेंगे।" [318] और आख़िरत में उत्तम जीवन का ज़िक्र इस आयत में है : “(वे लोग) सदा रहने वाले बागों के अंदर अच्छे घरों में होंगे। यह बहुत बड़ी सफलता है।'' [319]परन्तु जो व्यक्ति इस जीवन में चौपायों के समान जीवन व्यतीत करेगा, चुनाँचे वह न अपने पालनहार को जानता हो और न अपने जीवन के उद्देश्य को जानता हो और न उसे यह पता हो कि उसका अंतिम परिणाम कहाँ है? बल्कि उसका उद्देश्य महज़ खाना-पीना और सोना हो, तो उसके बीच और अन्य जानवरों के बीच कोई अंतर नहीं है, बल्कि वह उनसे भी अधिक पथभ्रष्ट है। अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फ़रमाया है : "और हमने ऐसे बहुत-से जिन्न और इन्सान जहन्नम के लिए पैदा किए हैं, जिनके दिल ऐसे हैं जिनसे वे नहीं समझते, और जिनकी आँखें ऐसी हैं जिनसे वे नहीं देखते, और जिनके कान ऐसे हैं जिनसे वे नहीं सुनते। ये लोग चौपायों (पशुओं) की तरह हैं, बल्कि उनसे भी अधिक भटके हुए हैं। यही लोग ग़ाफ़िल हैं।'' [320] एक अन्य स्थान में उसने कहा है : “क्या आप इसी सोच में हैं कि उनमें से अधिकतर लोग सुनते या समझते हैं? वे तो निरे जानवर की तरह हैं, बल्कि उनसे भी अधिक भटके हुए हैं।'' [321] 10- वह सदैव अज़ाब (यातना) में रहेगा :काफ़िर एक यातना से दूसरी यातना की यात्रा करता रहता है। वह दुनिया से उसके कड़वे घोंट पीने और उसकी मुसीबतों का सामना करने के बाद आख़िरत की ओर जाता है और उसके पहले ही मर्हले में उसके पास मौत के फ़रिश्ते आते हैं और उनसे भी पहले यातना के फ़रिश्ते आ जाते हैं, ताकि उसे ऐसी यातना दी जाए, जिसका वह हक़दार है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "काश आप देखते जब फ़रिश्ते काफिरों की प्राण निकालते हैं, उनके मुख पर और नितम्बों पर मार मारते हैं।'' [322] फिर जब उसके प्राण निकल जाते हैं और उसे उसकी कब्र में रखा जाता है, तो उसका सामना अति कठोर यातना से होता है। अल्लाह तआला ने फिरऔनियों के बारे में सूचना देते हुए फ़रमाया है : "आग है, जिसपर वे प्रात: काल और सायंकाल पेश किये जाते हैं, और जिस दिन महाप्रलय होगी (आदेश होगा कि) फ़िरऔनियों को अत्यंत कठिन अज़ाब (यातना) में झोंक दो।'' [323] फिर जब क़यामत का दिन होगा, लोगों को उठाया जाएगा, कर्मों को पेश किया जाएगा, तो काफ़िर देख लेगा कि अल्लाह ने उसके सभी कामों को उस किताब में गिन-गिनकर लिख रखा है। इसके बारे में अल्लाह ने फ़रमाया है : “और कर्मपत्र (आमालनामे) आगे रख दिए जाएँगे, तो आप उस समय अपराधियों को देखेंगे कि वे उनमें अंकित बातों से डर रहे होंगे, और कह रहे होंगे कि हाय हमारा विनाश! यह कैसी पुस्तक है, जिसने कोई छोटा-बड़ा (कार्य) बिना गिने हुए नहीं छोड़ा।" [324] उस समय काफ़िर कामना करेगा कि वह मिट्टी हो गया होता : "जिस दिन इंसान अपने हाथों की कमाई को देख लेगा और काफ़िर कहेगा कि काश मैं मिट्टी बन जाता।''[325]उस समय स्थिति इतनी भयावह होगी कि अगर इंसान के पास धरती की सारी चीज़ें भी आ जाएँ, तो उन्हें उस दिन की यातना से बचाव के लिए पेश कर देगा। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "और यदि जालिमों के पास वह सब कुछ हो, जो धरती पर है, और उसके साथ उतना ही और हो, तो भी वे क़यामत के दिन बुरे दंड के बदले में ये सब कुछ दे दें।'' [326] एक अन्य स्थान में उसने कहा है : “पापी उस दिन के अज़ाब के बदले में अपने पुत्रों को देना चाहेगा, अपनी पत्नी को और अपने भाई को को भी देना चाहेगा, और अपने परिवार को भी देना चाहेगा, जो उसे पनाह देता था। और धरती के सभी लोगों को देना चाहेगा, ताकि यह उसे मुक्ति दिला दें।'' [327]चूँकि वह घर बदले का घर है, इच्छाओं और कामनाओं का घर नहीं है, इसलिए इंसान को उसके कर्मों का प्रतिफल ज़रूर मिलेगा। अगर कर्म अच्छे होंगे तो प्रतिफल अच्छा मिलेगा और अगर कर्म बुरे होंगे तो प्रतिफल बुरा मिलेगा। आख़िरत के घर में काफ़िर को जिस सबसे बुरी चीज़ का सामना करना पड़ेगा, वह जहन्नम की यातना है। जहन्नम में प्रवेश करने वालों को अल्लाह तरह-तरह की यातनाएँ देगा, ताकि वे अपने किए का मज़ा चख सकें। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “यह है वह नरक, जिसे अपराधी झूठा मानते थे। वे इसके और गर्म उबलते पानी के बीच चक्कर लगाएँगे।'' [328] उनके पीने की चीजों और पोशाक के बारे में फ़रमाया है : "काफिरों के लिए आग के कपड़े नापकर काटे जाएँगे और उनके सिर के ऊपर से गर्म पानी की धारा बहाई जाएगी। जिससे उनके पेट की सब चीजें और खालें गला दी जाएँगी। और उनकी सज़ा के लिए लोहे के हथौड़े हैं।" [329] समापनहे मनुष्य!तेरा कोई अस्तित्व नहीं था। जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है : "क्या यह इंसान इतना भी याद नहीं रखता कि हमने उसे इससे पहले पैदा किया, जबकि वह कुछ भी नहीं था?'' [330] फिर अल्लाह ने तुझे वीर्य की एक बूंद से पैदा किया और तुझे सुनने वाला और देखने वाला बना दिया। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "वास्तव में इन्सान पर ज़माने का एक वह समय भी गुज़र चुका है, जबकि वह कोई उल्लेखनीय चीज़ न थी। नि:संदेह हमने इन्सान को मिले-जुले वीर्य से, परीक्षा के लिए, पैदा किया है और उसको सुनने वाला और देखने वाला बनाया है।'' [331] फिर तू धीरे-धीरे कमज़ोरी की अवस्था से शक्ति की अवस्था की तरफ आया और फिर तुझे एक दिन कमज़ोरी की अवस्था की ओर पलट कर जाना है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “अल्लाह (सर्वशक्तिमान) वह है, जिसने तुम्हें कमज़ोर अवस्था में पैदा किया, फिर उस कमज़ोरी के बाद शक्ति प्रदान की, फिर उस शक्ति के बाद कमज़ोरी और बुढ़ापा दिया। वह जो चाहता है पैदा करता है। वह सब कुछ जानने वाला और सामर्थ्यवान है।'' [332] फिर तेरा अंत जिसमें कोई संदेह नहीं मृत्यु है। तू उन चरणों में एक कमज़ोरी से दूसरी कमज़ोरी की यात्रा में लगा रहता है। तू अपनी किसी क्षति को रोक नहीं सकता और अपना कुछ भला कर नहीं सकता। ऐसा मुम्किन तभी हो सकता है, जब अल्लाह तुझे इसकी शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करे। तू अपनी सृष्टि के अनुसार निर्बल और मोहताज है। चुनाँचे कितनी ही ऐसी चीजें हैं, जिनका तू अपने जीवन को बरक़रार रखने के लिए मोहताज है, जो तेरे हाथ में नहीं हैं। कभी तू उसे पा लेता है और कभी उससे वंचित रह जाता है। कितनी ही ऐसी चीजें हैं, जो तेरे लिए लाभदायक हैं और तू उन्हें प्राप्त करना चाहता है, परन्तु कभी तो तू उन्हें प्राप्त कर लेता है और कभी वे तेरे हाथ नहीं जाती हैं। कितनी ही चीजें ऐसी हैं, जो तुझे नुकसान पहुँचाती हैं और तेरी आशाओं पर पानी फेर देती हैं, तेरे प्रयासों को नष्ट कर देती हैं और तेरे लिए आपदाओं और कष्ट का कारण बनती हैं, और उन्हें अपने आपसे दूर करना चाहता है। मगर कभी तो दूर कर देता है और कभी दूर नहीं कर पाता। क्या तुझे अपनी लाचारी और अल्लाह की ओर अपनी ज़रूरत का एहसास नहीं होता। जबकि अल्लाह कहता है : "हे लोगो! तुम अल्लाह के भिखारी हो और अल्लाह ही बेनियाज़ तारीफ़ वाला है।'' [333]तेरे ऊपर एक कमज़ोर वायरस का हमला होता है, जिसे तू खुली आँखों से देख भी नहीं सकता। वह तुझे बीमार बना देता है और तू उसे भगा नहीं पाता। फिर तू इलाज के लिए तेरे ही जैसे एक कमज़ोर इंसान के पास जाता है। कभी तो दवा काम कर जाती है और कभी डॉक्टर भी विवश दिखाई देता है और डॉक्टर तथा रोगी दोनों परेशान दिखते हैं।हे आदम के बेटे! तू कितना कमज़ोर है। यदि मक्खी तुझसे कोई चीज़ छीन ले, तो तू उसे वापस लाने की शक्ति नहीं रखता। अल्लाह तआला ने सच फ़रमाया है : "ऐ लोगो! एक उदाहरण (मिसाल) दिया जा रहा है, ज़रा ध्यान से सुनो। अल्लाह के सिवाय तुम जिन-जिन को पुकारते रहे हो, वे एक मक्खी तो पैदा नहीं कर सकते, अगर सारे के सारे जमा हो जाएँ तो भी। बल्कि अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ ले भागे, तो वे उसे भी उससे छीन नहीं सकते। बड़ा कमज़ोर है माँगने वाला और बहुत कमज़ोर है वह, जिससे माँगा जा रहा है।" [334] जब तुम आप उस चीज को वापस ला नहीं सकते, जो एक मक्खी तुमसे छीन ले, तो भला तुझे अपने किस काम का अख़्तियार है? "तेरी पेशानी अल्लाह के हाथ में है, तेरी जान उसी के हाथ में है, तेरा दिल रहमान (अति कृपाशील अल्लाह) की उंगलियों में से दो उंगलियों के बीच में है, वह उसे जिस तरह चाहता है उलटता-पलटता है, तेरा जीवन और मृत्यु उसी के हाथ में है, तेरा सौभाग्य और दुर्भाग्य उसी के हाथ में है, तेरा चलना-फिरना और ठहरना, बोलना और खामोश रहना उसी की अनुमति और इरादे के अधीन है। तू उसकी अनुमति के बिना अपनी जगह से हिल नहीं सकता और उसकी इच्छा के बिना कुछ कर नहीं सकता। यदि वह तुझे तेरे नफ़्स के हवाले कर दे, तो उसने तुझे लाचारी, कमजोरी, कोताही, पाप और त्रुटि के हवाले कर दिया। और यदि उसने तुझे किसी और के हवाले कर दिया, तो उसने तुझे ऐसे व्यक्ति के हवाले कर दिया जो लाभ तथा हानि, मृत्यु और जीवन एवं मरने के बाद पुनर्जीवन का मालिक नहीं है। अतः पलक झपकने के बराबर भी तू उससे बेनियाज़ नही हो सकता। बल्कि जब तक साँस बाकी है, परोक्ष एवं प्रत्यक्ष रूप से तू उसका मोहताज है। वह तुझे नेमतें प्रदान करता है और तू अवज्ञाओं, पापों और नास्तिकता के द्वारा उसके क्रोध को आमंत्रित कर रहा है, जबकि तुझे हर पहलू से उसकी सख्त ज़रूरत है। तूने उसे बिल्कुल भुला दिया है, जबकि तुझे उसी की ओर पलटकर जाना है और उसके सामने खड़ा होना है। [335]हे मनुष्य! तेरी कमज़ोरी और अपने पापों के परिणाम को भुगतने में तेरी असमर्थता को देखते हुए : "अल्लाह तुम्हारे ऊपर आसानी करना चाहता है और इन्सान कमज़ोर पैदा किया गया है।'' [336] अल्लाह तआला ने पैगंबरों को भेजा, पुस्तकें अवतरित कीं, विधि-विधान बनाए, तेरे सामने सीधा मार्ग स्थापित कर दिया, और प्रमाण, तर्क, साक्ष्य और सबूत उपलब्ध कर दिए, यहाँ तक कि तेरे लिए हर चीज़ में एक निशानी रख दी, जो उसकी एकता, उसकी रुबूबियत, उसकी उलूहियत पर दलालत करती है, और तू सत्यको असत्य से दबा रहा है और अल्लाह को छोड़कर शैतान को दोस्त बनाता है और बातिल तरीके से बहस करता है। “और इन्सान सभी चीजों से ज़्यादा झगड़ालू है।'' [337] अल्लाह तआला की उन नेमतों के कारण जिनका तू आनंद ले रहा है, तुने अपने आरंभ और अंत को भुला दिया है। क्या तुझे याद नहीं कि तू वीर्य की एक बूंद से पैदा किया गया है और तेरी वापसी एक गढ़े (क़ब्र) की ओर है और मरने के बाद तेरा अंतिम ठिकाना स्वर्ग या नरक है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "क्या इंसान को इतना भी ज्ञान नहीं कि हमने उसे वीर्य से पैदा किया है? फिर भी वह खुला झगड़ालू बन बैठा। और उसने हमारे लिए मिसाल बयान की और अपनी असल पैदाइश को भूल गया। कहने लगा कि इन गली-सड़ी हड्डियों को कौन ज़िन्दा कर सकता है? आप जवाब दीजिए कि उन्हें वह जीवित करेगा, जिसने उन्हें पहली बार पैदा किया है, जो हर प्रकार की पैदाइश को भली-भाँति जानने वाला है।'' [338] एक अन्य स्थान में वह कहता है : "ऐ इंसान! तुझे अपने दयालु रब से किस चीज़ ने बहकाया, जिसने तुझे पैदा किया, फिर ठीक-ठाक किया फिर (मुनासिब तरीके से) बराबर बनाया, जिस रूप में चाहा, तुझे जोड़ दिया?'' [339]हे मनुष्य! तू अपने आपको अल्लाह के सामने खड़े होने के आनंद से क्यों वंचित करता है कि तू उससे मुनाजात करे; ताकि वह तेरी निर्धनता को दूर कर दे, तुझे बीमारी से स्वस्थ कर दे, तेरी परेशानी को दूर कर दे, तेरे पाप को क्षमा कर दे, तेरी परेशानी को दूर कर दे, अगर तुझपर जुल्म हो तो तेरी सहायता करे, यदि तो भटक जाए तो तेरा मार्गदर्शन करे, जिससे तू अनभिज्ञ है उसका ज्ञान प्रदान करे, अगर तू भयभीत है तो तुझे सुरक्षा प्रदान करे, तेरी कमज़ोरी की स्थिति में तुझपर दया करे, तेरे शत्रुओं को तुझसे दूर कर दे और तुझे आजीविका प्रदान करे[340]।हे मनुष्य! धर्म की नेमत के बाद, अल्लाह तआला की इन्सान पर सबसे बड़ी नेमत बुद्धि की नेमत है, ताकि वह उसके द्वारा अपने लाभ और हानि की चीजों के बीच अंतर कर सके, अल्लाह के आदेश और निषेध को समझ सके, जीवन के सबसे महान उद्देश्य को जान सके, जो कि एकमात्र अल्लाह, जिसका कोई साझी नहीं है की उपासना है। अल्लाह तआला का फ़रमान है : "तुम्हें जो भी सुख-सुविधा प्राप्त है, वह अल्लाह ही की ओर से है। फिर जब तुम्हें दुःख पहुँचता है, तो उसी को पुकारते हो। फिर जब तुमसे दुःख दूर कर देता है, तो तुम्हारा एक समुदाय अपने पालनहार का साझी बनाने लगता है।'' [341]हे मनुष्य! बुद्धिमान इन्सान ऊँची बातों को पसंद करता है और तुच्छ बातों को नापसंद करता है। वह नबियों एवं सदाचारियों जैसे अच्छे काम करने वाले और सम्मानित लोगों का अनुसरण करना पसंद करता है और उसकी मनोकामना उनके साथ मिलने की होती है, भले ही वह उनको न पा सके। इसका रास्ता वही है, जिसका उल्लेख अल्लाह तआला ने अपने इस कथन में किया है : “कह दीजिए कि अगर तुम अल्लाह से मुहब्बत करते हो, तो मेरा आज्ञापालन करो, (स्वयं) अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा।'' [342] अगर वह इसका पालन करेगा, तो अल्लाह तआला नबियों, रसूलों और सदाचारियों के साथ कर देगा। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है : “और जो भी अल्लाह और रसूल के आदेश की पैरवी करेगा, वह उन लोगों के साथ होगा, जिनपर अल्लाह ने अपनी नेमतें की हैं, जैसे नबियों, सत्यवादियों, शहीदों और नेक लोगों के (साथ), और ये अच्छे साथी हैं।'' [343]हे मनुष्य! मैं तुम्हें इस बात की सलाह देता हूँ कि कहीं एकांत में कुछ देर बैठ जाओ, फिर तुम्हारे पास जो सत्य आया है उसमें विचार करो, उसके प्रमाणों में चिंतन करो और उसके सबूतों में गौर करो, यदि उसे सच्चा पाओ तो अविलंब उसका पालन करने लगो और रीति-रिवाजों और परंपराओं के बंधन तोड़ डालो। इस बात को ज़ेहन में रखो कि तुम्हारा नफ़्स तुम्हारे दोस्तों, तुम्हारे साथियों और तुम्हारे बाप-दादाओं की विरासत से अधिक प्यारा है। अल्लाह तआला ने काफिरों को इसकी नसीहत करते हुए और उनसे इसका आह्वान करते हुए कहा है : "कह दीजिए कि मैं तुम्हें केवल एक ही बात की नसीहत करता हूँ कि तुम अल्लाह के लिए (खालिस तौर से तथा ज़िद को छोड़कर) दो-दो मिलकर या अकेले-अकेले खड़े होकर चिंतन तो करो। तुम्हारे इस साथी को कोई जुनून नहीं है। वह तो तुम्हें एक बड़े अज़ाब के आने से पहले आगाह करने वाला है।'' [344]हे मनुष्य! यदि तूने इस्लाम स्वीकार कर लिया, तो तेरा कुछ भी घाटा नहीं होगा। अल्लाह तआला का फ़रमान है : “और उनका क्या नुकसान होता अगर वे अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान ले आते और अल्लाह ने उन्हें जो धन प्रदान किया है उससे खर्च करते? और अल्लाह तआला उन्हें अच्छी तरह जानने वाला है।'' [345] इब्न-ए-कसीर ने कहते हैं : “उनका क्या नुकसान है यदि वे अल्लाह पर ईमान ले आएँ, उसके प्रशंसनीय रास्ते पर चलें, अल्लाह के द्वारा अच्छ अमल करने वाले के हक़ में आख़िरत में किए गए वादे की आशा में उसपर ईमान लाएँ, अल्लाह के दिए हुए धन का कुछ भाग उन रास्तों में खर्च करें जिन्हें अल्लाह पसंद करता और जिनसे वह खुश होता है। वह अल्लाह, जो उनकी अच्छी और बुरी नीयतों और इच्छाओं को जानता है, वह यह भी जानता है कि कौन सत्य के मार्ग पर चलने का सामर्थ्य प्रदान किए जाने का हक़दार है। चुनांचे वह उसे सामर्थ्य देता है, उसका मार्गदर्शन करता है और ऐसे सत्कर्म की शक्ति प्रदान करता है, जिसके आधार पर वह उससे राज़ी होता है। इसी तरह वह जानता है कि कौन उसके विशाल दरबार से धुतकारे जाने का हक़दार है, जिससे धुकतारा जाने वाला व्यक्ति दुनिया एवं आख़िरत में नाकाम एवं नामुराद हो जाता है[346]।" तुम्हारा इस्लाम, तुम्हारे बीच और अल्लाह की हलाल की हुई उन चीज़ों के बीच रुकावट नहीं बनेगा, जिन्हें तुम करना या अपनाना चाहते हो, बल्कि अल्लाह तआला तुम्हें हर उस चीज़ पर पुरस्कृत करेगा, जिसे तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए करोगे, भले ही उस काम का संबंध तुम्हारे सांसारिक हित से हो और उससे तुम्हारे धन या प्रतिष्ठा या पद में वृद्धि होती हो। बल्कि यहाँ तक कि जो जायज़ काम तुम करते हो, यदि तुम उनसे हलाल चीज़ों के द्वारा हराम चीज़ों से बचने का इरादा कर लो; तो उसमें तुम्हारे लिए नेकी है। अल्लाह के पैगंबर صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया है : "और तुम्हारा सहवास करना भी सदक़ा है।" लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! हममें से एक व्यक्ति अपनी कामवासना की पूर्ति करता है और उसे उसमें पुण्य भी मिलेगा? आपने कहा : "तुम्हारा क्या विचार है यदि वह अपनी काम वासना को अवैध तरीक़े से पूरा करता, तो क्या उसे उसका पाप होता? तो इसी प्रकार जब उसने उसे वैध तरीक़े से पूरा किया, तो उसे उसका पुण्य मिलेगा।'' [347]हे मनुष्य! निस्संदेह रसूलगण सच्चा धर्म लेकर आए और अल्लाह के उद्देश्य का प्रसार किया।अतः, मनुष्य को अल्लाह की शरीयत का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए; ताकि वह इस जीवन को ज्ञान और जानकारी के आधार पर गुज़ारे और परलोक में सफलता प्राप्त करने वालों में से हो जाए। जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : "हे लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ से सच लेकर संदेष्टा (मुहम्मद) आ गए हैं। अतः, उनपर ईमान लाओ, तुम्हारे लिए बेहतर है और अगर तुमने नकार दिया, तो आसमानों और जमीन में जो भी है, सब अल्लाह का है और अल्लाह जानने वाला हिकमत वाला है।'' [348] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है : “आप कह दीजिए कि हे लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से हक़ पहुँच चुका है, इसलिए जो इंसान सीधे रास्ते पर आ जाए, वह अपने लिए सीधे रास्ते पर आएगा और जो इन्सान रास्ते से भटक जाएगा, तो उसका भटकना उसका ही हानि करेगा, और मैं तुमपर प्रभारी (निगराँ) नहीं बनाया गया हूँ।'' [349]हे मनुष्य! अगर तूने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो अपने आप ही को लाभ पहुँचाएगा, और अगर तूने अविश्वास का मार्ग चुना तो अपना ही नुकसान करेगा। नि:संदेह अल्लाह तआला अपने बन्दों से बेनियाज़ है तथा उसे अपने बन्दों की आवश्यकता नहीं है। अत: अवज्ञाकारियों की अवज्ञा उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाती और न ही आज्ञाकारियों की आज्ञाकारिता उसे कोई लाभ पहुँचाती है। चुनाँचे उसके ज्ञान के बिना उसकी अवज्ञा नहीं की जा सकती और उसकी अनुमति के बिना उसका आज्ञापालन नहीं किया जा सकता। जबकि एक हदीस क़ुदसी के अनुसार अल्लाह तआला का फ़रमान है : "हे मेरे बन्दो! मैंने अपने ऊपर अत्याचार को वर्जित कर लिया है और उसे तुम्हारे बीच हराम ठहराया है। अत: तुम आपस में एक-दूसरे पर अत्याचार न करो। हे मेरे बन्दो! तुम सब पथभ्रष्ट हो सिवाय उसके जिसे मैं मार्गदर्शन प्रदान कर दूँ। अत: तुम मुझसे मार्गदर्शन का अनुरोध करो, मैं तुम्हें मार्गदर्शन प्रदान करूँगा। हे मेरे बन्दो! तुम सबके सब भूखे हो सिवाय उसके जिसे मैं खाना खिला हूँ। अत: तुम मुझसे खाना माँगो, मैं तुम्हें खाना खिलाऊँगा। हे मेरे बन्दो! तुम सबके सब वस्त्रहीन हो सिवाय उसके जिसे मैं कपड़ा पहनाऊँ। अत: तुम मुझसे कपड़ा पहनाने का प्रश्न करो, मैं तुम्हें कपड़ा पहनाऊँगा। हे मेरे बन्दो! तुम रातदिन गलती करते हो और मैं सभी गुनाहों को क्षमा कर देता हूँ। अत: तुम मुझसे क्षमा याचना करो, मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। हे मेरे बन्दों! तुम मेरे नुकसान को कभी नहीं पहुँच सकते कि तुम मुझे नुकसान पहुँचाओ तथा तुम कभी मेरे लाभ तक नहीं पहुँच सकते कि तुम मुझे लाभ पहुँचाओ। हे मेरे बन्दो! यदि तुम्हारे पहले लोग और तुम्हारे बाद के लोग, तुम्हारे इंसान और तुम्हारे जिन्नात तुममें से सबसे अधिक परहेज़गार व्यक्ति के दिल के समान हो जाएँ, तो इससे मेरी सत्ता में कुछ भी वृद्धि नहीं होगी। हे मेरे बन्दो! यदि तुम्हारे पहले के लोग और तुम्हारे बाद के लोग, तुम्हारे इन्सान और तुम्हारे जिन्नात सबके सब तुममें से सबसे दुष्ट (पापी) व्यक्ति के दिल के समान हो जाएँ, तो इससे मेरी सत्ता में कुछ भी कमी नहीं होगी। हे मेरे बन्दो! यदि तुम्हारे पहले लोग और तुम्हारे बाद के लोग, तुम्हारे इन्सान और तुम्हारे जिन्नात सबके सब एक मैदान में खड़े होकर मुझसे माँगें और मैं हर एक को उसकी माँगी हुई चीज़ प्रदान कर दूँ, तो इससे मेरे पास जो कुछ है, उसमें केवल उतनी ही कमी होगी, जितनी कि सूई को समुद्र में डालने से होती है। हे मेरे बन्दो! ये तुम्हारे कार्य हैं जिन्हें मैं तुम्हारे लिए गिनकर रख रहा हूँ, फिर मैं तुम्हें इनका पूरा बदला प्रदान करूँगा। अत: जो व्यक्ति भलाई पाए वह अल्लाह की प्रशंसा व गुणगान करे, और जो इसके अलावा पाए, वह केवल अपने आप को मलामत करे।" [350]सारी प्रशंसाएँ सर्वशक्तिमान अल्लाह के लिए हैं तथा दया एवं शांति की धारा बरसे सबसे उत्तम नबी और रसूल हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपकी संतान-संतति तथा साथियों पर।[1] सूरा अल-अहज़ाब : 40)। यह अल्लाह की किताब पवित्र क़ुरआन का, जिसे उसने अपने नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतारा था, उद्धरण है। मेरी इस किताब में पवित्र क़ुरआन के बहुत-से उद्धरण नक़ल किए गए हैं, जिन्हें महान अल्लाह ने कहा है या सर्वशक्तिमान अल्लाह ने कहा है आदि वाक्यों के बाद लाया गया है। इस किताब के पृष्ठ संख्या 95-100 तथा 114-117 में क़ुरआन का संक्षिप्त विवरण दे दिया गया है।[2] सूरा अल-हिज्र, आयत संख्या : 9[3] सूरा यूसुफ़, आयत संख्या : 108[4] सूरा अल-अहक़ाफ़, आयत संख्या : 35[5] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या : 200[6] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या : 19[7] सूरा अल-इख़लास।[8] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 54।[9] सूरा अर-राद, आयत संख्या : 2, 3, 7, 8।[10] सूरा अर-राद, आयत संख्या : 16।[11] सूरा फ़ुस्सिलत, आयत संख्या : 37, 39।[12] सूरा अर-रूम, आयत संख्या : 22, 23।[13] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या : 255।[14] सूरा ग़ाफ़िर, आयत संख्या : 3।[15] सूरा अल-हश्र, आयत संख्या : 23।[16] सूरा अत-तूर, आयत संख्या :35, 36।[17] देखिए : मजमू फतावा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया 1/49, 47-73।[18] सूरा अर-रूम, आयत संख्या : 30।[19] सहीह बुख़ारी, किताबुल कद्र, अध्याय-3 तथा सहीह मुस्लिम, किताबुल क़द्र, हदीस संख्या : 2658। शब्द सहीह मुस्लिम के हैं।[20] इसे इमाम अहमद ने अपनी मुसनद 4/162 में तथा मुस्लिम ने अध्याय किताब अल-जन्नह व सिफ़तु नईमिहा व अहलिहा (हदीस संख्या : 2865) में रिवायत किया है। शब्द सहीह मुस्लिम के हैं।[21] देखिए : मजमू फ़तावा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया, 14/380-383, व 7/75।[22] सूरा अल-अंकबूत, आयत संख्या : 61-63।[23] सूरा अल-ज़ुख़रुफ़, आयत संख्या : 9।[24] * अधिक जानकारी के लिए इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब की पुस्तक किताब अत-तौहीद देखी जा सकती है। [25] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या : 8।[25] सूरा यूनुस, आयत संख्या : 22, 23।[26] सूरा लुक़मान, आयत संख्या : 32।[27] देखिए : शरहुल अक़ीदा अत्तहाविया, पृष्ठ : 39।[28] सूरा अल-मोमिनून, आयत संख्या : 92।[29] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या : 42।[30] सूरा सबा, आयत संख्या : 23, 24।[31] देखिए : कुर्रतु ऊयून अल-मुवह्हिदीन, लेखक : शैख अब्दुर्रहमान बिन हसन रहिमहुल्लाह पृष्ठ : 100।[32] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 22।[33] देखिए : फतहुल क़दीर 3/403।[34] देखिए : मिफ्ताहु दार अस-सआदह 1/260।[35] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 25।[36] सूरा हूद, आयत संख्या : 2।[37] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 108।[38] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या : 29।[39] सूरा फ़ुस्सिलत, आयत संख्या : 9-12।[40] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 30,32। सूरा अर-राद के आरंभिक भाग को भी देखें।[41] ये पैराग्राफ़ "मिफ्ताहु दार अस-सआदा" 1/251-269 से विभिन्न जगहों से लिया गया है।[42] सूरा अल-जासिया, आयत संख्या : 13।[43] सूरा इबराहीम, आयत संख्या : 32-34।[44] सूरा अर-रूम, आयत संख्या : 22-25।[45] सूरा अल-अंकबूत, आयत संख्या : 64[46] सूरा अर-रूम, आयत संख्या : 27।[47] सूरा ग़ाफ़िर, आयत संख्या : 57।[48] सूरा अर-राद, आयत संख्या : 2।[49] सूरा अल-जुमुआ, आयत संख्या : 1।[50] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 18।[51] सूरा अन-नूर, आयत संख्या 41।[52] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 11, 25।[53] सूरा अल-मोमिनून, आयत संख्या : 14।[54] मिफ्ताहु दार अस-सआदह 1/327,328। आयतें सूरा इबराहीम (आयत संख्या : 32, 34) की हैं।[55] सूरा अल-इसरा , आयत संख्या : 70।[56] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 7।[57] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या : 228।[58] सूरा अत-तौबा, आयत संख्या : 71।[59] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या : 23,24।[60] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या : 195।[61] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 97।[62] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 124।[63] सभोपदेशक, अध्याय 7 : 25-26। यह बात सर्वज्ञात है कि "पुराना नियम" को यहूदी और ईसाई दोनों ही पवित्र मानते हैं और उसपर ईमान रखते हैं।[64] सिलसिलह मुक़ारनह अल-अदयान, लेखक : अहमद शिल्बी 3/210,213।[65] सूरा अत-तौबा, आयत संख्या : 71।[66] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या : 228।[67] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या : 23, 24।[68] सूरा अज़-ज़ारियात, आयत संख्या : 56।[69] देखिए : मिफ्ताहु दार अस-सआदह 1/8-11।[70] देखिए; अत-ददम्मुरिया, शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया, पृष्ठ : 213,214 और मिफ्ताहु दार अस-सआदह : 2/383[71] देखिए : "अद-दीन", लेखक : मुहम्मद अब्दुल्लाह दर्राज, पृष्ठ : 87।[72] देखिए : "अद-दीन", लेखक : मुहम्मद अब्दुल्लाह दर्राज, पृष्ठ : 88।[73] देखिए : "अद-दीन", लेखक : मुहम्मद अब्दुल्लाह दर्राज, पृष्ठ : 84,98।[74] देखिए : "अल-फवाइद", पृष्ठ : 18,19।[75] देखिए : "अद-दीन", लेखक : मुहम्मद अब्दुल्लाह दर्राज, पृष्ठ : 98,102।[76] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 163।[77] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 25।[78] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 73।[79] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 25।[80] सूरा अल-अन्आम, आयत संख्या : 151।[81] सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़, आयत संख्या : 45।[82] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 82।[83] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 154।[84] सूरा मरयम, आयत संख्या : 21।[85] सूरा हूद, आयत संख्या : 63।[86] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या : 82।[87] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 44।[88] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 46।[89] सूरा अत-तौबा, आयत संख्या : 33।[90] सूरा ताहा, आयत संख्या : 1,2।[91] सूरा अर-रूम, आयत संख्या : 30।[92] सूरा अल-अहक़ाफ़, आयत संख्या : 30।[93] सूरा ताहा, आयत संख्या : 1,2।[94] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 29।[95] सूरा अल-हुजुरात, आयत संख्या : 13।[96] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 9।[97] देखिए इस किबात की पृष्ठ संख्या : 59-100 तथा 114-117।[98] सूरा अल-आला, आयत संख्या : 1-3।[99] सूरा ताहा, आयत संख्या : 50।[100] सूरा अश-शुअरा, आयत संख्या 78। देखिए : "अल-जवाब अस-सहीह फी-मन बद्दला दीन अल-मसीह" 4/97।[101] देखिए : मजमू फतावा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या 4/210-211।[102] अधिक जानकारी के लिए देखें : “ इफ़हाम अल-यहूद" लेखक : सैमुएल बिन यह्या अल -मगरिबी। वह पहले यहूदी थे और बाद में मुसलमान हो गए।[103] Jewish Encyclopedia Vol. XII page 568 - 69, XII, page 7।[104] तल्मद शब्द का अर्थ है यहूदी धर्म और उसके संस्कार सिखाने वाली किताब। दरअसल यह विभिन्न काल खंडों में यहूदी विद्वानों के द्वारा लिए गए "मिशनाह" नामी किताब की टीकाओं का संग्रह है।[105] विस्तार से पढ़ें : "अल-यहूदी अला हस्ब अत-तल्मूद" लेखक ड़ॉ. रोहलन्ज। फ्रांसीसी से अरबी अनुवाद “अल-कन्ज़ अल-मरसूद फ़ी क़वायद अत-तलमूद" के नाम से डॉ. यूसुफ़ हना नसरुल्लाह ने किया है।[106] अधिक विस्तार के लिए देखें : "अल-जवाब अस-सहीह लिमन बद्दला दीन अल-मसीह" लेखक : शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया, "इज़हार अल-हक़्क़", लेखक : रहमतुल्लाह बिन खलील अल-हिन्दी तथा "तोहफा अल-अरीब फ़ी अर-रद्द अला उब्बाद अस-सलीब", लेखक : अब्दुल्लाह अत-तरजुमान। अल्लाह अत-तरजुमान पहले नसरानी थे और बाद में मुसलमान हो गए।[107] देखिए : "अस-सिराउ बैना अद-दीन व अल-इल्म", लेखक : प्रख्यात यूरोपीय लेखक डरापर, पृष्ठ : 40-41।[108] नई कैथोलिक विश्वकोष के अन्दर जो कुछ वर्णन हुआ है, उसका सारांश। लेख : पवित्र त्रिदेव 14/295।[109] Rev. Jamecs Houstoin Baxter in the History of Christionity in the Light of Modern Knowledge. Glasgow, 1929 p 407[110] पढ़िए : "ईरान फ़ी अह्द अस-सासानिय्यीन" लेखक : प्रोफेसर आर्थर क्रिस्तन सेन, जो डेनमार्क के "कोपेन हागेन" विश्वविद्यालय में पूर्वी भाषाओं के प्रोफेसर और ईरान के इतिहास के विशेषज्ञ हैं। इसी तरह "ईरान का इतिहास'', लेखक : पारसी शाहीन मकारियोस।[111] "ईरान फ़ी अह्द अस-सासानिय्यीन" पृष्ठ : 155[112] देखिए किताब “अल-हिन्द अल-कदीमह'' (प्राचीन भारत), लेखक : ऐशूरा तोबा, प्रोफेसर भारतीय संस्कृति, हैदराबाद विश्वविद्यालय, भारत, तथा “इकतिशाफ अल-हिन्द'' (The Discovery of India) लेखक : जवाहर लाल नेहरू, पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री, पृष्ठ : 201-202[113] देखिए : "अल-हिन्द अल-कदीमा" (प्राचीन भारत), लेखक : आर. दत्त 3/276 और “हिन्दुकीया अस-साइदा'' लेखक : L. S. S. O. Malley, पृष्ठ : 6-7[114] C. V. Vidya : History of Mediavel Hindu India Vol. I ( Poone 1921 )[115] देखिए : "अस-सीरह अन-नबविय्यह", लेखक अबुल हसन अली नदवी, पृष्ठ : 19-28[116] सूरा ताहा, आयत संख्या : 124[117] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 82[118] सूरा हूद, आयत संख्या : 108[119] सूरा अश-शूरा, आयत संख्या : 51[120] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 75[121] तफ़सीर अल-कुरआन अल-अजीम, लेखक : अबू अल-फिदा इस्माईल बिन कसीर अल कुरशी 3/64।[122] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 8,9[123] सूरा अल-फ़ुरक़ान, आयत संख्या : 20,21[124] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 43[125] सूरा इब्राहीम, आयत संख्या : 4[126] देखिए ! "लवामिउ अनवार अल-बहिय्या" 2/265-305, तथा "अल-इस्लाम", लेखक : अहमद शिल्बी पृष्ठ : 114[127] सूरा हूद, आयत संख्या : 62[128] सूरा हूद, आयत संख्या : 87[129] सूरा अल-क़लम, आयत संख्या : 4[130] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 124[131] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या : 33[132] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या : 30[133] सूरा अर-राद, आयत संख्या : 38[134] सूरा अल-अंफाल, आयत संख्या : 30[135] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 40[136] सूरा अल-मुजादिला, आयत संख्या : 21[137] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 158[138] देखिए : मजमू फतावा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या 4/212-213[139] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 50[140] सूरा अश-शुअरा, आयत संख्या : 164, 145, 127, 109, 180।[141] सूरा अस-साद, आयत संख्या : 86[142] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 36[143] "आलाम अन-नुबूवह", लेखक : अली बिन मुहम्मद मावरदी, पृष्ठ : 33[144] अहमद बिन अब्दुल हलीम बिन अब्दुस सलाम जो इब्न-ए-तैमिया की कुनियत से प्रसिद्ध हैं, 661 हिजरी में पैदा हुए और 728 हिजरी में परलोग को सुधारे। वह एक महान इस्लामी विद्वान थे और बहुत-सी उत्कृष्ठ किताबें लिखी हैं।[145] "क़ाइदह फ़ी वुजूब अल-ऐतिसाम बि अर-रिसालह" लेखक : शैख़ुल इस्लाम इब्न-ए-तैमिया 19/99-102 देखिए : "लवामिउ अल-अनवार अल-बहिय्यह" लेखक : सफ़ारीनी 2/261-263।[146] देखिए : "अल-जवाब अस-सहीह" 4/96।[147] सूरा अल-अह़काफ़, आयत संख्या : 33[148] सूरा यासीन, आयत संख्या : 81[149] सूरा अर-रूंम, आयत संख्या : 27[150] सूरा यासीन, आयत संख्या : 78-79[151] सूरा अल-वाक़िआ, आयत संख्या : 58[152] सूरा अल-वाक़िआ आयत संख्या : 63,64[153] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 5[154] सूरा साद, आयत संख्या : 27[155] सूरा अज़-ज़ारियात, आयत संख्या : 56[156] सूरा साद, आयत संख्या : 28[157] सूरा यूनुस, आयत संख्या : 4। उल्लिखित बातों के लिए इब्न अल-क़य्यिम की किताब "अल-फ़वाइद", पृष्ठ : 6-9 तथा तफ़सीर-ए-राज़ी 2/113-116 देखें।[158] पत्रिका "अद-दावह अस-सऊदियह" अंक: 1722 दिनांक: 19/9/1420, पृष्ठ : 37।[159] इन व्यापक सिद्धांतों की ओर सूरा अल-बक़रा आय संख्या : 285, 286, सूरा अल-अंआम आयत संख्या : 151, 153, सूरा अल-आराफ़ आयत संख्या : 33 तथा सूरा अल-इसरा आयत संख्या : 23, 37 में इशारा किया गया है।[160] मुहम्मद बिन अबू बक्र बिन अय्यूब अज़-ज़ुरई। सन 691 हिजरी को पैदा हुए तथा सन 751 हिजरी में उनकी मृत्यु हुई। इस्लाम के एक महान विद्वान तथा बहुत-सी उपयोगी पुस्तकों के लेखक।[161] सूरा अल-मोमिनून, आयत संख्या : 71[162] "मिफ्ताहु दार अस-सआदह" 2/383। देखिए : "अल-जवाब अस-सहीह लिमन बद्दला दीन अल-मसीह" 4/322 तथा "लवामिउ अल-अनवार" लेखक : अस-सफारीनी 2/263।[163] सूरा अल-मोमिनून, आयत संख्या : 51,52[164] सूरा अश-शूरा, आयत संख्या : 13[165] मजमू फ़तावा इब्न-ए-तैमिया 2/6।[166] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 44।[167] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 46।[168] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 48।[169] सूरा अल-बकरा, आयत संख्या : 285।[170] अधिक जानकारी के लिए देखिए : "अर-रहीक़ अल-मख़तूम" सफ़ीउर्रहमान मुबारकपुरी।[171] इसी लेख का अनुच्छेद "मौजूदा धर्मों के हालात" पृष्ठ 52 पर देखिए।[172] इसी किताब में कुरआन के बारे में विशेष अनुच्छेद पृष्ठ संख्या 95, 100, 114-117 में देखें।[173] देखिए ; "मजमू अल-फतावा", शैख अल-इस्लाम इब्न-ए-तैमिया 4/201, 211 और "इफ़हाम अल-यहूद", लेखक : अल-समौअल अल-मगरिबी, जो कभी यहूदी थे, फिर इस्लाम ले आए। पृष्ठ संख्या : 58, 59।[174] "अल-दीन वल-दौलह फ़ी इसबात नुबुव्वह नबिय्यिना मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम", लेखक : अली बिन रब्बन अल-तबरी, पृष्ठ : 47, और देखिए : "अल-ऐलाम", कुर्तुबी, पृष्ठ : 263।[175] यानी सुलह हुदैबिया की अवधि में। यह अवधि दस साल की थी। यह सुलह 6 हिजरी में हुई थी। देखिए : "फ़त्ह अल-बारी" 1/34।[176] शाम राज्य।[177] सहीह बुख़ारी, किताब अल-जिहाद "अरीसिय्यीन" का शब्द आया है।[178] इसे इमाम बुख़ारी ने किताब बदउल वह्य, अध्याय :1 में रिवायत किया है।[179] "अद-दीन अल-फ़ितरी अल-अबदी" लेखक : मुबश्शिर अत-तराज़ी अल-हुसैनी 2/319।[180] उल्लिखित बातों के लिए देखिए : अल-अकीद अत-तहाविय्यह, पृष्ठ : 156, "लवामिउ अल-अनवार अल-बहिय्यह" 2/269,277 एवं "मबादि अल-इस्लाम" पृष्ठ : 64।[181] इन्जील मत्ता पृष्ठ : 21-42[182] देखिए : "मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़ी अत-तौरात व अल-इन्जील व अल- कुरआन" लेखक : मुहतदी इब्राहीम खलील अहमद, पृष्ठ : 73। वर्णित हदीस को इमाम बुख़ारी ने "किताब अल मनाकिब", अध्याय : 18 में रिवायत किया है और शब्द उन्हीं के हैं। जबकि इसे मुस्लिम ने भी "किताब अल-फ़ज़ाइल" (हदीस संख्या : 2286) में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से मरफूअन रिवायत रिवायत किया है। यह हदीस मुसनद अहमद 2/256,312 में भी है।[183] सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या : 40[184] इसे इमाम अहमद ने अपनी मुसनद (2/411,412) तथा इमाम मुस्लिम ने "किताब अल-मसाजिद" (हदीस संख्या : 523) में रिवायत कि है और शब्द मुस्लिम के हैं।[185] अधिक जानकारी के लिए देखिए : "मबादि अल-इस्लाम" लेखक : शैख़ हमूद बिन मुहम्मद अल-लाहिम तथा “दलील मुख्तसर लि-फह्म अल-इस्लाम” लेखक : इब्राहीम हर्ब।[186] सूरा अल-इंसान, आयत संख्या : 3[187] मबादी अल-इस्लाम, पृष्ठ : 2, 4।[188] सूरा आले इमरान, आयत संख्या : 83[189] सूरा आले इमरान, आयत संख्या : 19[190] सूरा आले इमरान, आयत संख्या : 20[191] इसे इमाम अहमद (5/3) और इब्ने हिब्बान (1/377) में रिवायत किया है।[192] इसे इमाम अहमद ने अपनी मुस्नद 4/114 में रिवायत किया है, और इमाम हैसमी ने "अल-मजमा'' 1/59 में कहा है कि इसे अहमद और तबरानी ने अल-कबीर में इसी तरह रिवायत किया है तथा इसके वर्णनकर्ता विश्वासयोग्य हैं। देखिए : "रिसाला फ़ज़्ल अल-इस्माम", लेखक : इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब, पृष्ठ : 8[193] इसे मुस्लिम ने "किताब अल-ईमान", हदीस संख्या : 8 में रिवायत किया है।[194] इसे बुख़ारी ने "किताब अल-ईमान" में रिवायत किया है और शब्द उन्ही के हैं। जबकि मुस्लिम ने अपनी सहीह "किताब अल-ईमान", हदीस संख्या : 39, अध्याय : "अल-मुस्लिम मन सलिम अल-मुस्लिमून मिन लिसानिह व यदिह" में रिवायत की है।[195] सूरा यूनुस, आयत संख्या : 71, 72[196] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या : 131[197] सूरा यूनुस, आयत संख्या : 84[198] "अत-तदम्मुरिय्यह" पृष्ठ : 109,110। जबकि आयत सूरा अल-माइदह आयत संख्या : 111 से ली गई है।[199] "अस-सुन्नह व मकानतुहा फी अत-तशरी अल-इस्लामी", लेखक : मुस्तफा अल-सिबाई, पृष्ठ : 376[200] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 48[201] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 89[202] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 157[203] सूरा असरा, आयत संख्या : 9[204] सूरा यूनुस, आयत संख्या : 38[205] सूरा यूनुस, आयत संख्या : 16[206] सूरा अव-अंकबूत, आयत संख्या : 48[207] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 157[208] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 153[209] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या : 85[210] सूरा अल-कह्फ़, आयत संख्या : 83[211] सूरा अन-नम्ल, आयत संख्या : 76[212] देखिए : "अल-मुसतशरिकून व अल-मुबश्शिरून फ़ी अल-आलम अल-अरबी व अल-इस्लामी" लेखक : इब्राहीम खलील अहमद।[213] "अल-सिराअ मिन अज्ल अल-ईमान", लेखक : डॉ. जैफ़री लैंग, अनुवाद : मुनजिर अल-अबसी, प्रकाशण : दार अल-फिक्र, पृष्ठ : 34।[214] सूरा अल-मुल्क, आयत संख्या : 14[215] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 38[216] सूरा अल-फुरक़ान, आयत संख्या : 53[217] सूरा अन-नूर, आयत संख्या : 40[218] सूरा अल-मोमिनून, आयत संख्या : 12-14[219] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 59[220] देखिए : "अल-तौरात व अल-इन्जील व अल-कुरआन फी ज़ौइ अल-मआरिफ़ अल-हदीसह", पृष्ठ : 133-283, लेखक : मोरेस बोकाय। मोरेस बोकाय एक फ्रांसीसी ईसाई डाक्टर थे जो बाद में मुसलमान हो गए।[221] इस हदीस को इमाम अहमद ने अपनी “मुसनद'' 4/131 और अबू दाऊद ने अपनी सुनन “किताब अस-सुन्नह'' "अध्याय : लुज़ूम अस-सुन्नह" 4/200, हदीस संख्या : 4604 में रिवायत किया है।[222] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 44[223] सूरा अन-नज्म, आयत संख्या : 4,5[224] सूरा अल-अहकाफ, आयत संख्या : 9[225] इस हदीस को इमाम बुखारी ने “किताब अल-अज़ान'', अध्याय : 18 (1/155) में रिवायत किया है।[226] सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या : 21।[227] इस अनूठी वैज्ञानिक पद्धति एवं सुन्नत-ए-नबवी को नक़ल करने के संबंध में इस छानबीन के कारण मुसलामनों ने "अल-जर्ह व अल-तादील" एवं "मुसतलह अल-हदीस" के नामों से दो स्वतंत्र विषयों की स्थानपना की, जो मुस्लिम समुदाय की विशेषता माने जाते हैं और इससे पहले इन विषयों का वजूद नहीं था।[228] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 65[229] सूरा अल-हश्र, आयत संख्या : 7[230] "दीन अल-हक़्क" पृष्ठ : 38।[231] "कुर्रतु उयून अल-मुवदह्हिदीन" पृष्ठ : 60।[232] "दीन अल-हक़्क़" पृष्ठ : 51-52।[233] अधिक जानकारी के लिए देखें : "कैफ़िय्यह सलात अल नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्म" लेखक : शैख़ अब्दुल अज़ीज बिन बाज़।[234] "मिफ्ताहु दार अस-सआदह" 2/384।[235] अधिक जानकारी के लिए देखें : "रिसालतान फ़ी अल-ज़कात व अल-सियाम" लेखक : शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़।[236] देखिए : "मिफ्ताहु दार अस-सआदह" 2/384।[237] अधिक जानकारी के लिए देखें : "दलील अल-हाज्ज व अल-मोतमिर" लेखक : उलेमा का एक समूह तथा "अल-तहक़ीक़ व अल-ईज़ाह लि-कसीर मिन मसाइल अल-हज्ज व अल-उमरह" लेखक : शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़।[238] "मिफ्ताहु दार अस-सआदह" 2/384 तथा "दीन अल-हक़्क़" पृष्ठ : 67।[239] इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह “किताब अज़-ज़कात'' (हदीस संख्या : 1006) में रिवायत की है।[240] इस हदीस को बुख़ारी ने “किताब अज़-ज़कात'' अध्याय : 29 तथा इमाम मुस्लिम ने “किताब अज़-ज़कात'' (हदीस संख्या : 1008) में रिवायत किया है और शब्द इमाम मुस्लिम के हैं।[241] सूरा मरियम, आयत संख्या : 65।[242] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 69।[243] देखिए : "अक़ीदह अह्ल अस-सुन्नह व अल-जमाअह" पृष्ठ : 7,11।[244] देखिए : "अक़ीदह अह्ल अस-सुन्नह व अल-जमाअह", पृष्ठ : 44 तथा "अबादी अल-इस्लाम" पृष्ठ : 80-81।[245] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 26, 28।[246] सूरा अल-अम्बिया, आयत संख्या : 19, 20।[247] सूरा क़ाफ, आयत संख्या : 17, 18। तथा देखिए : "अक़ीदह अह्ह अस-सुन्नह व अल-जमाअह" पृष्ठ : 19।[248] सूरा अल-हदीद, आयत संख्या : 25।[249] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 257।[250] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 158। देखिए : "अल-अक़ीदह अस-सहीहह व मा युज़ाद्दुहा" पृष्ठ : 17 तथा "अक़ीदह अह्ल अस-सुन्नह व अल-जमाअह" पृष्ठ : 22 एवं "मबादी अल-इस्लाम" पृष्ठ : 89।[251] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 36।[252] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 165।[253] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 164।[254] सूरा हूद, आयत संख्या : 31।[255] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 50।[256] सूरा अल-आराफ, आयत संख्या : 188।[257] सूरा आले इमरान, आयत संख्या : 19।[258] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 48।[259] देखिए : "अल-अक़ीदह अल-सहीहा व मा युज़ाद्दुहा" पृष्ठ : 17 तथा "अक़ीदह अह्ल अल-सुन्नह व अल-जमाअह" पृष्ठ : 25।[260] सूरा अल-बक़रा, आयत संखअया : 285।[261] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 150।[262] सूरा क़ाफ़, आयत संख्या : 18।[263] सूरा अल-कह्फ़, आयत संख्या : 49।[264] सूरा फ़ुस्सिलत, आयत संख्या : 20,22।[265] सूरा फुस्सिलत, आयत संख्या : 39[266] सूरा अल-अहक़ाफ़, आयत संख्या : 33[267] सूरा अल-मोमिनून, आयत संख्या : 115[268] सूरा साद, आयत संखअया : 27[269] सूरा अज़-ज़लज़ला, आयत संख्या : 7,8। देखिए : "दीन अल-हक़्क़", पृष्ठ : 19।[270] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 187।[271] सूरा लुक़मान, आयत संख्या : 34।[272] सूरा अल-अनकबूत, आयत संख्या : 62।[273] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 59। अगर कुरआन में मात्र यही एक आयत होती, तो यह इस बात का स्पष्ट एवं सशक्त प्रमाण होती कि क़ुरआन अल्लाह की किताब है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इंसान ने किसी भी युग में, यहाँ तक कि इस आधुनिक में भी, जिसमें ज्ञान का विस्फोट हो चुका है और इंसान अभिमान का शिकार हो चुका है, इस व्यापक जानकारी को इकट्ठा करना तो दूर, उसके बारे में सोचा भी नहीं है। उसकी पूरा कोशिश इस बात पर केंद्रित रहती है कि किसी पेड़ अथवा कीट का किसी विशेष परिवेश में अध्ययन किया जाए, ताकि उसके कुछ रहस्यों को सामने लाया जा सके, जबकि तब भी अधिकतर बातें पर्दे ही में रह जाती हैं। रही बात सारी चीज़ों के बारे में सारी जानकारियाँ जुटाने की, तो न तो इसके बारे में कभी इंसान ने सोचा है और न कभी ऐसा कर सकता है।[274] सूरा यासीन, आयत संख्या : 12।[275] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 70।[276] सूरा यासीन, आयत संख्या : 82।[277] सूरा अल-क़मर, आयत संख्या : 49।[278] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या : 62।[279] सूरा अल-हदीद, आयत संख्या : 22, 23। देखिए : "अल-अक़ीदह अस-सहीहह व मा युज़ाद्दुहा", पृष्ठ : 19, "अक़ीदह अह्ल अस-सुन्नह व अल-जमाअह" पृष्ठ : 39 तथा "दीन अल-हक़्क़" पृष्ठ : 18।[280] इस हदीस को इमाम अहमद ने अपनी मुसनद 1/293 और इमाम तिर्मिज़ी ने अपनी सुनन के अंदर “अबवाब अल-क़ियामह'' (4/76) में रिवायत किया है।[281] देखिये : "जामे अल-उलूम व अल-हिकम", पृष्ठ : 128।[282] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या : 83[283] सूरा आले इमरान, आयत संख्या : 134।[284] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या : 8।[285] सूरा आले इमरान, आयत संख्या : 164।[286] "मिफ्ताहु दार अस-सआदह" 1/374-275। आयत के लिए देखिए सूरा माइदा आयत संख्या : 3।[287] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 38।[288] देखिए : "अल-ऐलाम बिमा फी दीन अन-नसारा मिन अल-फ़साद व अल-अवहाम", लेखक : इमाम क़ुरतुबी, पृष्ठ : 442-445[289] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 78।[290] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 32।[291] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 93।[292] सूरा अल-अंफाल, आयत संख्या : 50।[293] इसे इमाम अहमद ने अपनी मुसनद 3/198 तथा तिरमिज़ी ने अपनी सुनन "अबवाब सिफ़ह अल-क़ियामह" (4/49) एवं इब्ने माजा ने अपनी सुनन "किताब अज़-ज़ुह्द" (4/491) में रिवायत किया है।[294] "अल-मुफ़रदात फ़ी गरीब अल-क़ुरआन", पृष्ठ : 76। थोड़े बदलाव के साथ।[295] "अल-फ़वाइद" लेखक : इब्न अल-क़य्यिम, पृष्ठ : 116।[296] सूरा अन-नज्म, आयत संख्या : 39।[297] "अत-तरीक़ इला अल-इस्लाम" लेखक : मुहम्मद असद, पृष्ठ : 140।[298] सूरा अन-नज्म, आयत संख्या : 38।[299] सूरा अल-अंफाल, आयत संख्या : 38।[300] सूरा अल-फुरक़ान, आयत संख्या : 70।[301] देखिए : “मिफ्ताहु दार-अस-सआदह" 1/358,370।[302] इस हदीस को अबू याला ने अपनी मुसनद 6/155, तबरानी ने "अल-मोजम औसत" 7/132 तथा "अल-मोजम अस-सग़ीर" 2/201, एनं ज़िया ने "अल-मुख़तारह" 5/151,152 में रिवायत किया है और कहा है : इसकी सनद सहीह है। जबकि हैसमी ने "अल-मजमा" 10/83 में कहा है : इसे अबू याला तथा बज़्ज़ार ने इससे मिलते-जुलते शब्दों के साथ रिवायत किया है एवं तबरानी ने "अस-सग़ीर" तथा "अल-औसत" में रिवायत किया है और इसके सारे वर्णनकर्ता विश्वसनीय है।[303] इसे इब्ने अबू आसिम ने "अल-आहाद व अल-मसानी" 5/188 तथा तबरानी ने "अल-कबीर" 7/53,314 में रिवायत किया है और हैसमी ने "अल-मजमा" 1/32 में कहा है : इसे तबरानी और बज़्ज़ार ने इससे मिलते-जुलते शब्दों के साथ रिवायत किया है और बज़्ज़ार की सनद के वर्णनकर्ता सहीह के वर्णनकर्ता हैं, सिवाय मुहम्मद बिन हारून अबू नशीत के, जो स्वयं भी विश्वसनीय हैं।[304] सूरा अल-अंआम, आयत संख्या : 82।[305] सूरा ताहा, आयत संख्या : 124।[306] सूरा अर-रूम, आयत संख्या : 30।[307] सूरा फुस्सिलत, आयत संख्या : 11।[308] सूरा मरयम, आयत संख्या : 88,93।[309] सूरा अद-दुखान, आयत संख्या : 29।[310] सूरा लुक़मान, आयत संख्या : 13।[311] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 45-47।[312] सूरा अर-राद, आयत संख्या : 31।[313] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 98।[314] सूरा अल-अनकबूत, आयत संख्या : 40।[315] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 9।[316] सूरा अज़-जुमर, आयत संख्या : 15।[317] सूरा अस-साफ़्फ़ात, आयत संख्या : 22,23।[318] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 97।[319] सूरा अस-सफ़्फ़, आयत संख्या : 12।[320] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या : 179।[321] सूरा अल-फुरक़ान, आयत संख्या : 44।[322] सूरा अल-अंफाल, आयत संख्या : 50।[323] सूरा अल-मोमिन, आयत संख्या :46।[324] सूरा अल-कह्फ़, आयत संख्या : 49।[325] सरा अन-नबा, आयत संख्या : 40।[326] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या : 47।[327] सूरा अल-मआरिज : 11-14।[328] सूरा अर-रहमान, आयत संख्या : 43-44।[329] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 19-21।[330] सूरा मरयम, आयत संख्या : 67।[331] सूरा अल-इंसान, आयत संख्या : 1,2।[332] सूरा अर-रूम, आयत संख्या : 54।[333] सूरा अल-फ़ातिर, आयत संख्या : 15।[334] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या : 73।[335] इब्न "अल-फ़वाइद" लेखक : इब्न अल-क़य्यिम, पृष्ठ : 56।[336] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 28।[337] सूरा अल-कह्फ़, आयत संख्या : 54।[338] सूरा यासीन, आयत संख्या : 77-79।[339] सूरा अल-इंफ़ितार, आयत संख्या : 6,8।[340] देखिए : "मिफ्ताहु दार अस-सआदह" : 1/251।[341] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या : 53,54।[342] सूरा आले इमरान, आयत संख्या : 31।[343] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 69।[344] सूरा अल-फ़ातिर, आयत संख्या : 46।[345] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 39।[346] "तफ़सीर अल-क़ुरआन अल-अज़ीम" 1/497। मामूली बदलाव के साथ।[347] इसका हवाला दिया जा चुका है।[348] सूरा अन-निसा, आयत संख्या : 170।[349] सूरा यूनुस, आयत संख्या : 108।[350] इसे इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह "किताब अल-बिर्र व अस-सिलह", अध्याय : "तहरीम अज़-ज़ुल्म" ( हदीस संख्या : 2577 ) में रिवायत किया है।