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الواحد

كلمة (الواحد) في اللغة لها معنيان، أحدهما: أول العدد، والثاني:...

الوهاب

كلمة (الوهاب) في اللغة صيغة مبالغة على وزن (فعّال) مشتق من الفعل...

الحميد

(الحمد) في اللغة هو الثناء، والفرقُ بينه وبين (الشكر): أن (الحمد)...

الترجمة الهندية

ترجمة معاني القرآن الكريم للغة الهندية ترجمها مولانا عزيز الحق العمري، نشرها مجمع الملك فهد لطباعة المصحف الشريف. عام الطبعة 1433هـ.

1- ﴿بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ اقْتَرَبَ لِلنَّاسِ حِسَابُهُمْ وَهُمْ فِي غَفْلَةٍ مُعْرِضُونَ﴾


समीप आ गया है लोगों के ह़साब[1] का समय, जबकि वे अचेतना में मुँह फेरे हुए हैं।

2- ﴿مَا يَأْتِيهِمْ مِنْ ذِكْرٍ مِنْ رَبِّهِمْ مُحْدَثٍ إِلَّا اسْتَمَعُوهُ وَهُمْ يَلْعَبُونَ﴾


नहीं आती उनके पास, उनके पालनहार की ओर से कोई नई शिक्षा[1], परन्तु उसे सुनते हैं और खेलते रह जाते हैं।

3- ﴿لَاهِيَةً قُلُوبُهُمْ ۗ وَأَسَرُّوا النَّجْوَى الَّذِينَ ظَلَمُوا هَلْ هَٰذَا إِلَّا بَشَرٌ مِثْلُكُمْ ۖ أَفَتَأْتُونَ السِّحْرَ وَأَنْتُمْ تُبْصِرُونَ﴾


निश्चेत हैं उनके दिल और उन्होंने चुपके-चुपके आपस में बातें कीं, जो अत्याचारी हो गयेः ये (नबी) तो बस एक पुरुष है तुम्हारे समान, तो क्या तुम जादू के पास जाते हो, जबकि तुम देखते हो[1]?

4- ﴿قَالَ رَبِّي يَعْلَمُ الْقَوْلَ فِي السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ ۖ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ﴾


आप कह दें कि मेरा पालनहार जानता है प्रत्येक बात को, जो आकाश तथा धरती में है और वह सब सुनने-जानने वाला है।

5- ﴿بَلْ قَالُوا أَضْغَاثُ أَحْلَامٍ بَلِ افْتَرَاهُ بَلْ هُوَ شَاعِرٌ فَلْيَأْتِنَا بِآيَةٍ كَمَا أُرْسِلَ الْأَوَّلُونَ﴾


बल्कि उन्होंने कह दिया कि ये[1] बिखरे स्वप्न हैं। बल्कि उस (नबी) ने इसे स्वयं बना लिया है, बल्कि वह कवि है! अन्यथा उसे चाहिए कि हमारे पास कोई निशानी ले आये, जैसे पूर्व के रसूल (निशानियों के साथ) भेजे गये।

6- ﴿مَا آمَنَتْ قَبْلَهُمْ مِنْ قَرْيَةٍ أَهْلَكْنَاهَا ۖ أَفَهُمْ يُؤْمِنُونَ﴾


नहीं ईमान[1] लायी इनसे पहले कोई बस्ती, जिसका हमने विनाश किया, तो क्या ये ईमान लायेंगे?

7- ﴿وَمَا أَرْسَلْنَا قَبْلَكَ إِلَّا رِجَالًا نُوحِي إِلَيْهِمْ ۖ فَاسْأَلُوا أَهْلَ الذِّكْرِ إِنْ كُنْتُمْ لَا تَعْلَمُونَ﴾


और (हे नबी!) हमने आपसे पहले मनुष्य पुरुषों को ही रसूल बनाकर भेजा, जिनकी ओर वह़्यी भेजते रहे। फिर तुम ज्ञानियों[1] से पूछ लो, यदि तुम (स्वयं) नहीं[2] जानते हो।

8- ﴿وَمَا جَعَلْنَاهُمْ جَسَدًا لَا يَأْكُلُونَ الطَّعَامَ وَمَا كَانُوا خَالِدِينَ﴾


तथा नहीं बनाये हमने उनके ऐसे शरीर,[1] जो भोजन न करते हों तथा न वे सदावासी थे।

9- ﴿ثُمَّ صَدَقْنَاهُمُ الْوَعْدَ فَأَنْجَيْنَاهُمْ وَمَنْ نَشَاءُ وَأَهْلَكْنَا الْمُسْرِفِينَ﴾


फिर हमने पूरे कर दिये, उनसे किये हुए वचन और हमने बचा लिया उन्हें और जिसे हमने चाहा और विनाश कर दिया उल्लंघनकारियों का।

10- ﴿لَقَدْ أَنْزَلْنَا إِلَيْكُمْ كِتَابًا فِيهِ ذِكْرُكُمْ ۖ أَفَلَا تَعْقِلُونَ﴾


निःसंदेह, हमने उतार दी है तुम्हारी ओर एक पुस्तक (क़ुर्आन) जिसमें तुम्हारे लिए शिक्षा है। तो क्या तुम समझते नहीं हो?

11- ﴿وَكَمْ قَصَمْنَا مِنْ قَرْيَةٍ كَانَتْ ظَالِمَةً وَأَنْشَأْنَا بَعْدَهَا قَوْمًا آخَرِينَ﴾


और हमने तोड़कर रख दिया बहुत सी बस्तियों को, जो अत्याचारी थीं और हमने पैदा कर दिया उनके पश्चात् दूसरी जाति को।

12- ﴿فَلَمَّا أَحَسُّوا بَأْسَنَا إِذَا هُمْ مِنْهَا يَرْكُضُونَ﴾


फिर जब उन्हें संवेदन हो गया हमारे प्रकोप का, तो अकस्मात् वहाँ से भागने लगे।

13- ﴿لَا تَرْكُضُوا وَارْجِعُوا إِلَىٰ مَا أُتْرِفْتُمْ فِيهِ وَمَسَاكِنِكُمْ لَعَلَّكُمْ تُسْأَلُونَ﴾


(कहा गया) भागो नहीं! तथा तुम वापस जाओ, जिस सुख-सुविधा में थे तथा अपने घरों की ओर, ताकि तुमसे पूछा[1] जाये।

14- ﴿قَالُوا يَا وَيْلَنَا إِنَّا كُنَّا ظَالِمِينَ﴾


उन्होंने कहाःहाय हमारा विनाश! वास्वम में, हम अत्याचारी थे।

15- ﴿فَمَا زَالَتْ تِلْكَ دَعْوَاهُمْ حَتَّىٰ جَعَلْنَاهُمْ حَصِيدًا خَامِدِينَ﴾


और फिर बराबर यही उनकी पुकार रही, यहाँतक कि हमने बना दिया उन्हें कटी खेती के समान बुझे हुए।

16- ﴿وَمَا خَلَقْنَا السَّمَاءَ وَالْأَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَا لَاعِبِينَ﴾


औप हमने नहीं पैदा किया है आकाश और धरती को तथा जो कुछ दोनों के बीच है, खेल के लिए।

17- ﴿لَوْ أَرَدْنَا أَنْ نَتَّخِذَ لَهْوًا لَاتَّخَذْنَاهُ مِنْ لَدُنَّا إِنْ كُنَّا فَاعِلِينَ﴾


यदि हम कोई खेल बनाना चाहते, तो उसे अपने पास ही से बना[1] लेते, यदि हमें ये करना होता।

18- ﴿بَلْ نَقْذِفُ بِالْحَقِّ عَلَى الْبَاطِلِ فَيَدْمَغُهُ فَإِذَا هُوَ زَاهِقٌ ۚ وَلَكُمُ الْوَيْلُ مِمَّا تَصِفُونَ﴾


बल्कि हम मारते हैं सत्य से असत्य पर, तो वह उसका सिर कुचल देता है और वह अकस्मात समाप्त हो जाता है और तुम्हारे लिए विनाश है, उन बातों के कारण, जो तुम बनाते हो।

19- ﴿وَلَهُ مَنْ فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۚ وَمَنْ عِنْدَهُ لَا يَسْتَكْبِرُونَ عَنْ عِبَادَتِهِ وَلَا يَسْتَحْسِرُونَ﴾


और उसी का है, जो आकाशों तथा धरती में है और जो फ़रिश्ते उसके पास हैं, वे उसकी इबादत (वंदना) से अभिमान नहीं करते और न थकते हैं।

20- ﴿يُسَبِّحُونَ اللَّيْلَ وَالنَّهَارَ لَا يَفْتُرُونَ﴾


वे रात और दिन उसकी पवित्रता का गान करते हैं तथा आलस्य नहीं करते।

21- ﴿أَمِ اتَّخَذُوا آلِهَةً مِنَ الْأَرْضِ هُمْ يُنْشِرُونَ﴾


क्या इनके बनाये हुए पार्थिव पूज्य ऐसे हैं, जो (निर्जीव) को जीवित कर देते हैं?

22- ﴿لَوْ كَانَ فِيهِمَا آلِهَةٌ إِلَّا اللَّهُ لَفَسَدَتَا ۚ فَسُبْحَانَ اللَّهِ رَبِّ الْعَرْشِ عَمَّا يَصِفُونَ﴾


यदि होते उन दोनों[1] में अन्य पूज्य, अल्लाह के सिवा, तो निश्चय दोनों की व्यवस्था बिगड़[2] जाती। अतः पवित्र है अल्लाह, अर्श (सिंहासन) का स्वामी, उन बातों से, जो वे बता रहे हैं।

23- ﴿لَا يُسْأَلُ عَمَّا يَفْعَلُ وَهُمْ يُسْأَلُونَ﴾


वह उत्तर दायी नहीं है अपने कार्य का और सभी (उसके समक्ष) उत्तर दायी हैं।

24- ﴿أَمِ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِهِ آلِهَةً ۖ قُلْ هَاتُوا بُرْهَانَكُمْ ۖ هَٰذَا ذِكْرُ مَنْ مَعِيَ وَذِكْرُ مَنْ قَبْلِي ۗ بَلْ أَكْثَرُهُمْ لَا يَعْلَمُونَ الْحَقَّ ۖ فَهُمْ مُعْرِضُونَ﴾


क्या उन्होंने बना लिए हैं, उसके सिवा अनेक पूज्य? (हे नबी!) आप कहें कि अपना प्रमाण लाओ। ये (क़ुर्आन) उनके लिए शिक्षा है, जो मेरे साथ हैं और ये मुझसे पूर्व के लोगों की शिक्षा[1] है, बल्कि उनमें से अधिक्तर सत्य का ज्ञान नहीं रखते। इसी कारण, वे विमुख हैं।

25- ﴿وَمَا أَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ مِنْ رَسُولٍ إِلَّا نُوحِي إِلَيْهِ أَنَّهُ لَا إِلَٰهَ إِلَّا أَنَا فَاعْبُدُونِ﴾


और नहीं भेजा हमने आपसे पहले कोई भी रसूल, परन्तु उसकी ओर यही वह़्यी (प्रकाशना) करते रहे कि मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं है। अतः मेरी ही इबादत (वंदना) करो।

26- ﴿وَقَالُوا اتَّخَذَ الرَّحْمَٰنُ وَلَدًا ۗ سُبْحَانَهُ ۚ بَلْ عِبَادٌ مُكْرَمُونَ﴾


और उन (मुश्रिकों) ने कहा कि बना लिया है अत्यंत कृपाशील ने संतति। वह पवित्र है। बल्कि वे (फ़रिश्ते)[1] आदरणीय भक्त हैं।

27- ﴿لَا يَسْبِقُونَهُ بِالْقَوْلِ وَهُمْ بِأَمْرِهِ يَعْمَلُونَ﴾


वे उसके समक्ष बढ़कर नहीं बोलते और उसके आदेशानुसार काम करते हैं।

28- ﴿يَعْلَمُ مَا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ وَلَا يَشْفَعُونَ إِلَّا لِمَنِ ارْتَضَىٰ وَهُمْ مِنْ خَشْيَتِهِ مُشْفِقُونَ﴾


वह जानता है, जो उनके सामने है और जो उनसे ओझल है। वह किसी की सिफ़ारिश नहीं करेंगे, उसके सिवा जिससे वह (अल्लाह) प्रसन्न[1] हो तथा वह उसके भय से सहमे रहते हैं।

29- ﴿۞ وَمَنْ يَقُلْ مِنْهُمْ إِنِّي إِلَٰهٌ مِنْ دُونِهِ فَذَٰلِكَ نَجْزِيهِ جَهَنَّمَ ۚ كَذَٰلِكَ نَجْزِي الظَّالِمِينَ﴾


और जो कह दे उनमें से कि मैं पूज्य हूँ अल्लाह के सिवा, तो वही है, जिसे हम दण्ड देंगे नरक का, इसी प्रकार, हम दण्ड दिया करते हैं अत्याचारियों को।

30- ﴿أَوَلَمْ يَرَ الَّذِينَ كَفَرُوا أَنَّ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ كَانَتَا رَتْقًا فَفَتَقْنَاهُمَا ۖ وَجَعَلْنَا مِنَ الْمَاءِ كُلَّ شَيْءٍ حَيٍّ ۖ أَفَلَا يُؤْمِنُونَ﴾


और क्या उन्होंने विचार नहीं किया, जो काफ़िर हो गये कि आकाश तथा धरती दोनों मिले हुए[1] थे, तो हमने दोनों को अलग-अलग किया तथा हमने बनाया पानी से प्रत्येक जीवित चीज़ को? फिर क्या वे (इस बात पर) विश्वास नहीं करते?

31- ﴿وَجَعَلْنَا فِي الْأَرْضِ رَوَاسِيَ أَنْ تَمِيدَ بِهِمْ وَجَعَلْنَا فِيهَا فِجَاجًا سُبُلًا لَعَلَّهُمْ يَهْتَدُونَ﴾


और हमने बना दिये धरती में पर्वत, ताकि झुक न[1] जाये उनके साथ और बना दिये उन (पर्वतों) में चौड़े रास्ते, ताकि लोग राह पायें।

32- ﴿وَجَعَلْنَا السَّمَاءَ سَقْفًا مَحْفُوظًا ۖ وَهُمْ عَنْ آيَاتِهَا مُعْرِضُونَ﴾


और हमने बना दिया आकाश को सुरक्षित छत, फिर भी वे उसके प्रतीकों (निशानियों) से मुँह फेरे हुए हैं।

33- ﴿وَهُوَ الَّذِي خَلَقَ اللَّيْلَ وَالنَّهَارَ وَالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ ۖ كُلٌّ فِي فَلَكٍ يَسْبَحُونَ﴾


तथा वही है, जिसने उत्पत्ति की है रात्रि तथा दिवस की और सूर्य तथा चाँद की, प्रत्येक एक मण्डल में तैर रहे[1] हैं।

34- ﴿وَمَا جَعَلْنَا لِبَشَرٍ مِنْ قَبْلِكَ الْخُلْدَ ۖ أَفَإِنْ مِتَّ فَهُمُ الْخَالِدُونَ﴾


और (हे नबी!) हमने नहीं बनायी है, किसी मनुष्य के लिए आपसे पहले नित्यता। तो यदि, आप मर[1] जायें, तो क्या वे नित्य जीवी हैं?

35- ﴿كُلُّ نَفْسٍ ذَائِقَةُ الْمَوْتِ ۗ وَنَبْلُوكُمْ بِالشَّرِّ وَالْخَيْرِ فِتْنَةً ۖ وَإِلَيْنَا تُرْجَعُونَ﴾


प्रत्येक जीव को मरण का स्वाद चखना है और हम तुम्हारी परीक्षा कर रहे हैं, अच्छी तथा बुरी परिस्थितियों से तथा तुम्हें हमारी ही ओर फिर आना है।

36- ﴿وَإِذَا رَآكَ الَّذِينَ كَفَرُوا إِنْ يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا الَّذِي يَذْكُرُ آلِهَتَكُمْ وَهُمْ بِذِكْرِ الرَّحْمَٰنِ هُمْ كَافِرُونَ﴾


तथा जब देखते हैं आपको, जो काफ़िर हो गये, तो बना लेते हैं आपको उपहास, (वे कहते हैं:) क्या यही है, जो तुम्हारे पूज्यों की चर्चा किया करता है? जबकि वे स्वयं रह़मान (अत्यंत कृपाशील) के स्मरण के[1] निवर्ती हैं।

37- ﴿خُلِقَ الْإِنْسَانُ مِنْ عَجَلٍ ۚ سَأُرِيكُمْ آيَاتِي فَلَا تَسْتَعْجِلُونِ﴾


मनुष्य जन्मजात व्यग्र (अधीर) है, मैं शीघ्र तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखा दूँगा। अतः, तुम जल्दी न करो।

38- ﴿وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا الْوَعْدُ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ﴾


तथा वे कहते हैं कि कब पूरी होगी ये[1] धमकी, यदि तुम लोग सच्चे हो?

39- ﴿لَوْ يَعْلَمُ الَّذِينَ كَفَرُوا حِينَ لَا يَكُفُّونَ عَنْ وُجُوهِهِمُ النَّارَ وَلَا عَنْ ظُهُورِهِمْ وَلَا هُمْ يُنْصَرُونَ﴾


यदि जान लें, जो काफ़िर हो गये हैं, उस समय को, जब वे नहीं बचा सकेंगे अपने मुखों को अग्नि से और न अपनी पीठों को और न उनकी कोई सहायता की जायेगी (तो ऐसी बातें नहीं करेंगे।)

40- ﴿بَلْ تَأْتِيهِمْ بَغْتَةً فَتَبْهَتُهُمْ فَلَا يَسْتَطِيعُونَ رَدَّهَا وَلَا هُمْ يُنْظَرُونَ﴾


बल्कि वह समय उनपर आ जायेगा अचानक और उन्हें आश्चर्य चकित कर देगा, जिसे वे फेर नहीं सकेंगे और न उन्हें समय दिया जायेगा।

41- ﴿وَلَقَدِ اسْتُهْزِئَ بِرُسُلٍ مِنْ قَبْلِكَ فَحَاقَ بِالَّذِينَ سَخِرُوا مِنْهُمْ مَا كَانُوا بِهِ يَسْتَهْزِئُونَ﴾


और उपहास किया गया बहुत-से रसूलों का, आपसे पहले, तो घेर लिया उन्हें जिन्होंने उपहास किया उनमें से, उस चीज़ ने, जिस[1] का उपहास कर रहे थे।

42- ﴿قُلْ مَنْ يَكْلَؤُكُمْ بِاللَّيْلِ وَالنَّهَارِ مِنَ الرَّحْمَٰنِ ۗ بَلْ هُمْ عَنْ ذِكْرِ رَبِّهِمْ مُعْرِضُونَ﴾


आप पूछिये कि कौन तुम्हारी रक्षा करेगा रात तथा दिन में अत्यंत कृपाशील[1] से? बल्कि वे अपने पालनहार की शिक्षा (क़र्आन) से विमुख हैं।

43- ﴿أَمْ لَهُمْ آلِهَةٌ تَمْنَعُهُمْ مِنْ دُونِنَا ۚ لَا يَسْتَطِيعُونَ نَصْرَ أَنْفُسِهِمْ وَلَا هُمْ مِنَّا يُصْحَبُونَ﴾


क्या उनके पूज्य हैं, जो उन्हें बचायेंगे हम से? वे स्वयं अपनी सहायता नहीं कर सकेंगे और न हमारी ओर से उनका साथ दिया जायेगा।

44- ﴿بَلْ مَتَّعْنَا هَٰؤُلَاءِ وَآبَاءَهُمْ حَتَّىٰ طَالَ عَلَيْهِمُ الْعُمُرُ ۗ أَفَلَا يَرَوْنَ أَنَّا نَأْتِي الْأَرْضَ نَنْقُصُهَا مِنْ أَطْرَافِهَا ۚ أَفَهُمُ الْغَالِبُونَ﴾


बल्कि हमने जीवन का लाभ पहुँचाया है, उनको तथा उनके पूर्वजों को, यहाँतक कि (सुखों में) उनकी बड़ी आयु गुज़र[1] गयी, तो क्या वह नहीं देखते कि हम धरती को कम करते आ रहे हैं उसके किनारों से, फिर क्या वे विजय हो रहे हैं?

45- ﴿قُلْ إِنَّمَا أُنْذِرُكُمْ بِالْوَحْيِ ۚ وَلَا يَسْمَعُ الصُّمُّ الدُّعَاءَ إِذَا مَا يُنْذَرُونَ﴾


(हे नबी!) आप कह दें कि मैं तो वह़्यी ही के आधार पर तुम्हें सावधान कर रहा हूँ। (परन्तु) बहरे पुकार नहीं सुनते, जब उन्हें सावधान किया जाता है।

46- ﴿وَلَئِنْ مَسَّتْهُمْ نَفْحَةٌ مِنْ عَذَابِ رَبِّكَ لَيَقُولُنَّ يَا وَيْلَنَا إِنَّا كُنَّا ظَالِمِينَ﴾


और यदि छू जाये उन्हें आपके पालनहार की तनिक भी यातना, तो अवश्य पुकारेंगे कि हाय हमारा विनाश! निश्चय ही हम अत्याचारी[1] थे।

47- ﴿وَنَضَعُ الْمَوَازِينَ الْقِسْطَ لِيَوْمِ الْقِيَامَةِ فَلَا تُظْلَمُ نَفْسٌ شَيْئًا ۖ وَإِنْ كَانَ مِثْقَالَ حَبَّةٍ مِنْ خَرْدَلٍ أَتَيْنَا بِهَا ۗ وَكَفَىٰ بِنَا حَاسِبِينَ﴾


और हम रख देंगे न्याय का तराज़ू[1] प्रलय के दिन, फिर नहीं अत्याचार किया जायेगा किसी पर कुछ भी तथा यदि होगा राय के दाने के बराबर (किसी का कर्म) तो हम उसे सामने ले आयेंगे और हम बस (काफ़ी) हैं ह़िसाब लेने वाले।

48- ﴿وَلَقَدْ آتَيْنَا مُوسَىٰ وَهَارُونَ الْفُرْقَانَ وَضِيَاءً وَذِكْرًا لِلْمُتَّقِينَ﴾


और हम दे चुके हैं, मूसा तथा हारून को विवेक, प्रकाश और शिक्षाप्रद पुस्तक आज्ञाकारियों के लिए।

49- ﴿الَّذِينَ يَخْشَوْنَ رَبَّهُمْ بِالْغَيْبِ وَهُمْ مِنَ السَّاعَةِ مُشْفِقُونَ﴾


जो डरते हों अपने पालनहार से बिन देखे और वे प्रलय से भयभीत हों।

50- ﴿وَهَٰذَا ذِكْرٌ مُبَارَكٌ أَنْزَلْنَاهُ ۚ أَفَأَنْتُمْ لَهُ مُنْكِرُونَ﴾


और ये (क़ुर्आन) एक शुभ शिक्षा है, जिसे हमने उतारा है, तो क्या तुम इसके इन्कारी हो?

51- ﴿۞ وَلَقَدْ آتَيْنَا إِبْرَاهِيمَ رُشْدَهُ مِنْ قَبْلُ وَكُنَّا بِهِ عَالِمِينَ﴾


और हमने प्रदान की थी इब्राहीम को, उसकी चेतना इससे पहले और हम उससे भली-भाँति अवगत थे।

52- ﴿إِذْ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوْمِهِ مَا هَٰذِهِ التَّمَاثِيلُ الَّتِي أَنْتُمْ لَهَا عَاكِفُونَ﴾


जब उसने अपने बाप तथा अपनी जाति से कहाः ये प्रतिमाएँ (मूर्तियाँ) कैसी हैं, जिनकी पूजा में तुम लगे हुए हो?

53- ﴿قَالُوا وَجَدْنَا آبَاءَنَا لَهَا عَابِدِينَ﴾


उन्होंने कहाः हमने पाया है अपने पूर्वजों को इनकी पूजा करते हुए।

54- ﴿قَالَ لَقَدْ كُنْتُمْ أَنْتُمْ وَآبَاؤُكُمْ فِي ضَلَالٍ مُبِينٍ﴾


उस (इब्राहीम) ने कहाः निश्चय तुम और तुम्हारे पूर्वज खुले कुपथ में हो।

55- ﴿قَالُوا أَجِئْتَنَا بِالْحَقِّ أَمْ أَنْتَ مِنَ اللَّاعِبِينَ﴾


उन्होंने कहाः क्या तुम लाये हो हमारे पास सत्य या तुम उपहास कर रहे हो?

56- ﴿قَالَ بَلْ رَبُّكُمْ رَبُّ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ الَّذِي فَطَرَهُنَّ وَأَنَا عَلَىٰ ذَٰلِكُمْ مِنَ الشَّاهِدِينَ﴾


उसने कहाः बल्कि तुम्हारा पालनहार आकाशों तथा धरती का पालनहार है, जिसने उन्हें पैदा किया है और मैं तो इसीका साक्षी हूँ।

57- ﴿وَتَاللَّهِ لَأَكِيدَنَّ أَصْنَامَكُمْ بَعْدَ أَنْ تُوَلُّوا مُدْبِرِينَ﴾


तथा अल्लाह की शपथ! मैं अवश्य चाल चलूँगा तुम्हारी मूर्तियों के साथ, इसके पश्चात् कि तुम चले जाओ।

58- ﴿فَجَعَلَهُمْ جُذَاذًا إِلَّا كَبِيرًا لَهُمْ لَعَلَّهُمْ إِلَيْهِ يَرْجِعُونَ﴾


फिर उसने कर दिया उन्हें खण्ड-खण्ड, उनके बड़े के सिवा, ताकि वे उसकी ओर फिरें।

59- ﴿قَالُوا مَنْ فَعَلَ هَٰذَا بِآلِهَتِنَا إِنَّهُ لَمِنَ الظَّالِمِينَ﴾


उन्होंने कहाः किसने ये दशा कर दी है, हमारे पूज्यों ( देवताओं) की? वास्तव में, वह कोई अत्याचारी होगा!

60- ﴿قَالُوا سَمِعْنَا فَتًى يَذْكُرُهُمْ يُقَالُ لَهُ إِبْرَاهِيمُ﴾


लोगों ने कहाः हमने सुना है एक नवयुवक को उनकी चर्चा करते, जिसे इब्राहीम कहा जाता है।

61- ﴿قَالُوا فَأْتُوا بِهِ عَلَىٰ أَعْيُنِ النَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَشْهَدُونَ﴾


लोगों ने कहाः उसे लाओ लोगों के सामने, ताकि लोग देखें।

62- ﴿قَالُوا أَأَنْتَ فَعَلْتَ هَٰذَا بِآلِهَتِنَا يَا إِبْرَاهِيمُ﴾


उन्होंने पूछाः क्या तूने ही ये किया है, हमारे पूज्यों के साथ, हे इब्राहीम?

63- ﴿قَالَ بَلْ فَعَلَهُ كَبِيرُهُمْ هَٰذَا فَاسْأَلُوهُمْ إِنْ كَانُوا يَنْطِقُونَ﴾


उसने कहाः बल्कि इसे इनके इस बड़े ने किया[1] है, तो इन्हीं से पूछ लो, यदि ये बोलते हों?

64- ﴿فَرَجَعُوا إِلَىٰ أَنْفُسِهِمْ فَقَالُوا إِنَّكُمْ أَنْتُمُ الظَّالِمُونَ﴾


फिर अपने मन में वे सोच में पड़ गये और (अपने मन में) कहाः वास्तव में, तुम्हीं अत्याचारी हो।

65- ﴿ثُمَّ نُكِسُوا عَلَىٰ رُءُوسِهِمْ لَقَدْ عَلِمْتَ مَا هَٰؤُلَاءِ يَنْطِقُونَ﴾


फिर वह ओंधे कर दिये गये अपने सिरों के बल[1] ( और बोलेः) तू जानता है कि ये बोलते नहीं हैं।

66- ﴿قَالَ أَفَتَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ مَا لَا يَنْفَعُكُمْ شَيْئًا وَلَا يَضُرُّكُمْ﴾


इब्राहीम ने कहाः तो क्या तुम इबादत (वंदना) अल्लाह के सिवा उसकी करते हो, जो न तुम्हें कुछ लाभ पहुँचा सकते हैं और न तुम्हें हानि पहूँचा सकते हैं?

67- ﴿أُفٍّ لَكُمْ وَلِمَا تَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ ۖ أَفَلَا تَعْقِلُونَ﴾


तुफ़ (थू) है तुमपर और उसपर जिसकी तुम इबादत (वंदना) करते हो अल्लाह को छोड़कर। तो क्या तुम समझ नहीं रखते हो?

68- ﴿قَالُوا حَرِّقُوهُ وَانْصُرُوا آلِهَتَكُمْ إِنْ كُنْتُمْ فَاعِلِينَ﴾


उन्होंने कहाः इसे जला दो तथा सहायता करो अपने पूज्यों की, यदि तुम्हें कुछ करना है।

69- ﴿قُلْنَا يَا نَارُ كُونِي بَرْدًا وَسَلَامًا عَلَىٰ إِبْرَاهِيمَ﴾


हमने कहाः हे अग्नि! तू शीतल तथा शान्ति बन जा, इब्राहीम पर।

70- ﴿وَأَرَادُوا بِهِ كَيْدًا فَجَعَلْنَاهُمُ الْأَخْسَرِينَ﴾


और उन्होंने उसके साथ बुराई चाही, तो हमने उन्हीं को क्षतिग्रस्त कर दिया।

71- ﴿وَنَجَّيْنَاهُ وَلُوطًا إِلَى الْأَرْضِ الَّتِي بَارَكْنَا فِيهَا لِلْعَالَمِينَ﴾


और हम, उस (इब्राहीम) को बचाकर ले गये तथा लूत[1] को, उस भूमि[2] की ओर, जिसमें हमने सम्पन्नता रखी है, विश्व वासियों के लिए।

72- ﴿وَوَهَبْنَا لَهُ إِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ نَافِلَةً ۖ وَكُلًّا جَعَلْنَا صَالِحِينَ﴾


और हमने उसे प्रदान किया (पुत्र) इस्ह़ाक़ और (पौत्र) याक़ूब उसपर अधिक और प्रत्येक को हमने सत्कर्मी बनाया।

73- ﴿وَجَعَلْنَاهُمْ أَئِمَّةً يَهْدُونَ بِأَمْرِنَا وَأَوْحَيْنَا إِلَيْهِمْ فِعْلَ الْخَيْرَاتِ وَإِقَامَ الصَّلَاةِ وَإِيتَاءَ الزَّكَاةِ ۖ وَكَانُوا لَنَا عَابِدِينَ﴾


और हमने उन्हें अग्रणी (प्रमुख) बना दिया, जो हमारे आदेशानुसार (लोगों को) सुपथ दर्शाते हैं तथा हमने वह़्यी (प्रकाशना) की, उनकी ओर सत्कर्मों के करने, नमाज़ की स्थापना करने और ज़कात देने की तथा वे हमारे ही उपासक थे।

74- ﴿وَلُوطًا آتَيْنَاهُ حُكْمًا وَعِلْمًا وَنَجَّيْنَاهُ مِنَ الْقَرْيَةِ الَّتِي كَانَتْ تَعْمَلُ الْخَبَائِثَ ۗ إِنَّهُمْ كَانُوا قَوْمَ سَوْءٍ فَاسِقِينَ﴾


तथा लूत को हमने निर्णय शक्ति और ज्ञान दिया और बचा लिया उस बस्ती से, जो दुष्कर्म कर रही थी, वास्तव में, वे बुरे अवज्ञाकारी लोग थे।

75- ﴿وَأَدْخَلْنَاهُ فِي رَحْمَتِنَا ۖ إِنَّهُ مِنَ الصَّالِحِينَ﴾


और हमने प्रवेश दिया उसे अपनी दया में, वास्तव में, वह सदाचारियों में से था।

76- ﴿وَنُوحًا إِذْ نَادَىٰ مِنْ قَبْلُ فَاسْتَجَبْنَا لَهُ فَنَجَّيْنَاهُ وَأَهْلَهُ مِنَ الْكَرْبِ الْعَظِيمِ﴾


तथा नूह़ को (याद करो) जब उसने पुकारा इन (नबियों) से पहले। तो हमने उसकी पुकार सुन ली, फिर उसे और उसके घराने को मुक्ति दी महा पीड़ा से।

77- ﴿وَنَصَرْنَاهُ مِنَ الْقَوْمِ الَّذِينَ كَذَّبُوا بِآيَاتِنَا ۚ إِنَّهُمْ كَانُوا قَوْمَ سَوْءٍ فَأَغْرَقْنَاهُمْ أَجْمَعِينَ﴾


और उसकी सहायता की, उस जाति के मुक़ाबले में, जिन्होंने हमारी आयतों (निशानियों) को झुठला दिया, वास्तव में, वे बुरे लोग थे। अतः हमने डुबो दिया उन सभी को।

78- ﴿وَدَاوُودَ وَسُلَيْمَانَ إِذْ يَحْكُمَانِ فِي الْحَرْثِ إِذْ نَفَشَتْ فِيهِ غَنَمُ الْقَوْمِ وَكُنَّا لِحُكْمِهِمْ شَاهِدِينَ﴾


तथा दावूद और सुलैमान को (याद करो) जब वे दोनों निर्णय कर रहे थे, खेत के विषय में, जब रात्रि में चर गईं उसे दूसरों की बकरियाँ और हम उनका निर्णय देख रहे थे।

79- ﴿فَفَهَّمْنَاهَا سُلَيْمَانَ ۚ وَكُلًّا آتَيْنَا حُكْمًا وَعِلْمًا ۚ وَسَخَّرْنَا مَعَ دَاوُودَ الْجِبَالَ يُسَبِّحْنَ وَالطَّيْرَ ۚ وَكُنَّا فَاعِلِينَ﴾


तो हमने उसका उचित निर्णय समझा दिया सुलैमान[1] को और प्रत्येक को हमने प्रदान किया था निर्णय शक्ति तथा ज्ञान और हमने अधीन कर दिया था दावूद के साथ पर्वतों को, जो (अल्लाह की पवित्रता का) वर्णन करते थे तथा पक्षियों को और हम ही इसकार्य के करने वाले थे।

80- ﴿وَعَلَّمْنَاهُ صَنْعَةَ لَبُوسٍ لَكُمْ لِتُحْصِنَكُمْ مِنْ بَأْسِكُمْ ۖ فَهَلْ أَنْتُمْ شَاكِرُونَ﴾


तथा हमने उसे (दावूद को) सिखाया तुम्हारे लिए कवच बनाना, ताकि तुम्हें बचाये तुम्हारे आक्रमण से, तो क्या तुम कृतज्ञ हो?

81- ﴿وَلِسُلَيْمَانَ الرِّيحَ عَاصِفَةً تَجْرِي بِأَمْرِهِ إِلَى الْأَرْضِ الَّتِي بَارَكْنَا فِيهَا ۚ وَكُنَّا بِكُلِّ شَيْءٍ عَالِمِينَ﴾


और सुलैमान के अधीन कर दिया उग्र वायु को, जो चल रही थी उसके आदेश से,[1] उस धरती की ओर जिसमें हमने सम्पन्नता (विभूतियाँ) रखी है और हम ही सर्वज्ञ हैं।

82- ﴿وَمِنَ الشَّيَاطِينِ مَنْ يَغُوصُونَ لَهُ وَيَعْمَلُونَ عَمَلًا دُونَ ذَٰلِكَ ۖ وَكُنَّا لَهُمْ حَافِظِينَ﴾


तथा शैतानों में से उन्हें (उसके अधीन कर दिया) जो उसके लिए डुबकी लगाते[1] तथा इसके सिवा दूसरे कार्य करते थे और हम ही उनके निरीक्षक[1] हैं।

83- ﴿۞ وَأَيُّوبَ إِذْ نَادَىٰ رَبَّهُ أَنِّي مَسَّنِيَ الضُّرُّ وَأَنْتَ أَرْحَمُ الرَّاحِمِينَ﴾


तथा अय्यूब (की उस स्थिति) को (याद करो), जब उसने पुकारा अपने पालनहार को कि मुझे रोग लग गया है और तू सबसे अधिक दयावान् है।

84- ﴿فَاسْتَجَبْنَا لَهُ فَكَشَفْنَا مَا بِهِ مِنْ ضُرٍّ ۖ وَآتَيْنَاهُ أَهْلَهُ وَمِثْلَهُمْ مَعَهُمْ رَحْمَةً مِنْ عِنْدِنَا وَذِكْرَىٰ لِلْعَابِدِينَ﴾


तो हमने उसकी गुहार सुन ली[1] और दूर कर दिया, जो दुःख उसे था और प्रदान कर दिया उसे उसका परिवार तथा उतने ही और उनके साथ, अपनी विशेष दया से तथा शिक्षा के लिए उपासकों की।

85- ﴿وَإِسْمَاعِيلَ وَإِدْرِيسَ وَذَا الْكِفْلِ ۖ كُلٌّ مِنَ الصَّابِرِينَ﴾


तथा इस्माईल, इद्रीस तथा ज़ुल किफ़्ल को (याद करो), सभी सहनशीलों में से थे।

86- ﴿وَأَدْخَلْنَاهُمْ فِي رَحْمَتِنَا ۖ إِنَّهُمْ مِنَ الصَّالِحِينَ﴾


और हमने प्रवेश दिया उनको अपनी दया में, वास्तव में, वे सदाचारी थे।

87- ﴿وَذَا النُّونِ إِذْ ذَهَبَ مُغَاضِبًا فَظَنَّ أَنْ لَنْ نَقْدِرَ عَلَيْهِ فَنَادَىٰ فِي الظُّلُمَاتِ أَنْ لَا إِلَٰهَ إِلَّا أَنْتَ سُبْحَانَكَ إِنِّي كُنْتُ مِنَ الظَّالِمِينَ﴾


तथा ज़ुन्नून[1] को, जब वे चला[2] गया क्रोधित होकर और सोचा कि हम उसे पकड़ेंगे नहीं, अन्ततः, उसने पुकारा अन्धेरे में कि नहीं है कोई पूज्य तेरे सिवा, तू पवित्र है, वास्तव में, मैं ही दोषी[3] हूँ।

88- ﴿فَاسْتَجَبْنَا لَهُ وَنَجَّيْنَاهُ مِنَ الْغَمِّ ۚ وَكَذَٰلِكَ نُنْجِي الْمُؤْمِنِينَ﴾


तब हमने उसकी पुकार सुन ली तथा मुक्त कर दिया शोक से और इसी प्रकार, हम बचा लिया करते हैं, ईमान वालों को।

89- ﴿وَزَكَرِيَّا إِذْ نَادَىٰ رَبَّهُ رَبِّ لَا تَذَرْنِي فَرْدًا وَأَنْتَ خَيْرُ الْوَارِثِينَ﴾


तथा ज़करिय्या को (याद करो), जब पुकारा उसने अपने पालनहार[1] को, हे मेरे पालनहार! मुझे मत छोड़ दे अकेला और तू सबसे अच्छा उत्तराधिकारी है।

90- ﴿فَاسْتَجَبْنَا لَهُ وَوَهَبْنَا لَهُ يَحْيَىٰ وَأَصْلَحْنَا لَهُ زَوْجَهُ ۚ إِنَّهُمْ كَانُوا يُسَارِعُونَ فِي الْخَيْرَاتِ وَيَدْعُونَنَا رَغَبًا وَرَهَبًا ۖ وَكَانُوا لَنَا خَاشِعِينَ﴾


तो हमने सुन ली उसकी पुकार तथा प्रदान कर दिया उसे यह़्या और सुधार दिया उसके लिए उसकी पत्नी को। वास्तव में, वे सभी दौड़-धूप करते थे सत्कर्मों में और हमसे प्रार्थना करते थे रूचि तथा भय के साथ और हमारे आगे झुके हुए थे।

91- ﴿وَالَّتِي أَحْصَنَتْ فَرْجَهَا فَنَفَخْنَا فِيهَا مِنْ رُوحِنَا وَجَعَلْنَاهَا وَابْنَهَا آيَةً لِلْعَالَمِينَ﴾


तथा जिसने रक्षा की अपनी सतीत्व[1] की, तो फूँक दी हमने उसके भीतर अपनी आत्मा से और उसे तथा उसके पुत्र को बना दिया एक निशानी संसार वासियों के लिए।

92- ﴿إِنَّ هَٰذِهِ أُمَّتُكُمْ أُمَّةً وَاحِدَةً وَأَنَا رَبُّكُمْ فَاعْبُدُونِ﴾


वास्तव में, तुम्हारा धर्म एक ही धर्म[1] है और मैं ही तुम सबका पालनहार (पूज्य) हूँ। अतः, मेरी ही इबादत (वंदना) करो।

93- ﴿وَتَقَطَّعُوا أَمْرَهُمْ بَيْنَهُمْ ۖ كُلٌّ إِلَيْنَا رَاجِعُونَ﴾


और खण्ड-खण्ड कर दिया लोगों ने अपने धर्म को (विभेद करके) आपस में, सबको हमारी ओर ही फिर आना है।

94- ﴿فَمَنْ يَعْمَلْ مِنَ الصَّالِحَاتِ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَا كُفْرَانَ لِسَعْيِهِ وَإِنَّا لَهُ كَاتِبُونَ﴾


फिर जो सदाचार करेगा और वह एकेश्वरवादी हो, तो उसके प्रयास की उपेक्षा नहीं की जायेगी और हम उसे लिख रहे हैं।

95- ﴿وَحَرَامٌ عَلَىٰ قَرْيَةٍ أَهْلَكْنَاهَا أَنَّهُمْ لَا يَرْجِعُونَ﴾


और असंभव है किसी भी बस्ती पर, जिसका हमने विनाश कर[1] दिया कि वह फिर (संसार में) आ जाये।

96- ﴿حَتَّىٰ إِذَا فُتِحَتْ يَأْجُوجُ وَمَأْجُوجُ وَهُمْ مِنْ كُلِّ حَدَبٍ يَنْسِلُونَ﴾


यहाँ तक कि जब खोल दिये जायेंगे याजूज तथा माजूज[1] और वे प्रत्येक ऊँचाई से उतर रहे होंगे।

97- ﴿وَاقْتَرَبَ الْوَعْدُ الْحَقُّ فَإِذَا هِيَ شَاخِصَةٌ أَبْصَارُ الَّذِينَ كَفَرُوا يَا وَيْلَنَا قَدْ كُنَّا فِي غَفْلَةٍ مِنْ هَٰذَا بَلْ كُنَّا ظَالِمِينَ﴾


और समीप आ जायेगा सत्य[1] वचन, तो अकस्मात खुली रह जायेँगी काफ़िरों की आँखें, ( वे कहेंगेः) "हाय हमारा विनाश!" हम असावधान रह गये इससे, बल्कि हम अत्याचारी थे।

98- ﴿إِنَّكُمْ وَمَا تَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ حَصَبُ جَهَنَّمَ أَنْتُمْ لَهَا وَارِدُونَ﴾


निश्चय तुमसब तथा तुम जिन (मूर्तियों) को पूज रहे हो अल्लाह के अतिरिक्त, नरक के ईंधन हैं, तुमसब वहाँ पहुँचने वाले हो।

99- ﴿لَوْ كَانَ هَٰؤُلَاءِ آلِهَةً مَا وَرَدُوهَا ۖ وَكُلٌّ فِيهَا خَالِدُونَ﴾


यदि वे वास्तव में पूज्य होते, तो नरक में प्रवेश नहीं करते और प्रत्येक उसमें सदावासी होंगे।

100- ﴿لَهُمْ فِيهَا زَفِيرٌ وَهُمْ فِيهَا لَا يَسْمَعُونَ﴾


उनकी उसमें चीखें होंगी तथा वे उसमें (कुछ) सुन नहीं सकेंगे।

101- ﴿إِنَّ الَّذِينَ سَبَقَتْ لَهُمْ مِنَّا الْحُسْنَىٰ أُولَٰئِكَ عَنْهَا مُبْعَدُونَ﴾


(परन्तु) जिनके लिए पहले ही से हमारी ओर से भलाई का निर्णय हो चुका है, वही उससे दूर रखे जायेंगे।

102- ﴿لَا يَسْمَعُونَ حَسِيسَهَا ۖ وَهُمْ فِي مَا اشْتَهَتْ أَنْفُسُهُمْ خَالِدُونَ﴾


वे उस (नरक) की सरसर भी नहीं सुनेंगे और अपनी मनचाही चीज़ों में सदा (मगन) रहेंगे।

103- ﴿لَا يَحْزُنُهُمُ الْفَزَعُ الْأَكْبَرُ وَتَتَلَقَّاهُمُ الْمَلَائِكَةُ هَٰذَا يَوْمُكُمُ الَّذِي كُنْتُمْ تُوعَدُونَ﴾


उन्हें उदासीन नहीं करेगी (प्रलय के दिन की) बड़ी व्यग्रता तथा फ़रिश्ते उन्हें हाथों-हाथ ले लेंगे, (तथा कहेंगेः) यही तुम्हारा वह दिन है, जिसका तुम्हें वचन दिया जा रहा था।

104- ﴿يَوْمَ نَطْوِي السَّمَاءَ كَطَيِّ السِّجِلِّ لِلْكُتُبِ ۚ كَمَا بَدَأْنَا أَوَّلَ خَلْقٍ نُعِيدُهُ ۚ وَعْدًا عَلَيْنَا ۚ إِنَّا كُنَّا فَاعِلِينَ﴾


जिस दिन हम लपेट[1] देंगे आकाश को, पंजिका के पन्नों को लपेट देने के समान, जैसे हमने आरंभ किया था प्रथम उत्पत्ति का, उसी प्रकार, उसे[2] दुहरायेंगे, इस (वचन) को पूरा करना हमपर है और हम पूरा करके रहेंगे।

105- ﴿وَلَقَدْ كَتَبْنَا فِي الزَّبُورِ مِنْ بَعْدِ الذِّكْرِ أَنَّ الْأَرْضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ الصَّالِحُونَ﴾


तथा हमने लिख दिया है ज़बूर[1] में शिक्षा के पश्चात् कि धरती के उत्तराधिकारी मेरे सदाचारी भक्त होंगे।

106- ﴿إِنَّ فِي هَٰذَا لَبَلَاغًا لِقَوْمٍ عَابِدِينَ﴾


वस्तुतः, इस (बात) में एक बड़ा उपदेश है उपासकों के लिए।

107- ﴿وَمَا أَرْسَلْنَاكَ إِلَّا رَحْمَةً لِلْعَالَمِينَ﴾


और (हे नबी!) हमने आपको नहीं भेजा है, किन्तु समस्त संसार के लिए दया बना[1] कर।

108- ﴿قُلْ إِنَّمَا يُوحَىٰ إِلَيَّ أَنَّمَا إِلَٰهُكُمْ إِلَٰهٌ وَاحِدٌ ۖ فَهَلْ أَنْتُمْ مُسْلِمُونَ﴾


आप कह दें कि मेरी ओर तो बस यही वह़्यी की जा रही है कि तुम सबका पूज्य बस एक ही पूज्य है, फिर क्या तुम उसके आज्ञाकारी[1] हो?

109- ﴿فَإِنْ تَوَلَّوْا فَقُلْ آذَنْتُكُمْ عَلَىٰ سَوَاءٍ ۖ وَإِنْ أَدْرِي أَقَرِيبٌ أَمْ بَعِيدٌ مَا تُوعَدُونَ﴾


फिर यदि वे विमुख हों, तो आप कह दें कि मैंने तुम्हें समान रूप से सावधान कर दिया[1] और मैं नहीं जानता कि समीप है अथवा दूर जिसका वचन तुम्हें दिया जा रहा है।

110- ﴿إِنَّهُ يَعْلَمُ الْجَهْرَ مِنَ الْقَوْلِ وَيَعْلَمُ مَا تَكْتُمُونَ﴾


वास्तव में, वही जानता है खुली बात को तथा जानता है जो कुछ तुम छुपाते हो।

111- ﴿وَإِنْ أَدْرِي لَعَلَّهُ فِتْنَةٌ لَكُمْ وَمَتَاعٌ إِلَىٰ حِينٍ﴾


तथा मुझे ये ज्ञान (भी) नहीं, संभव है ये[1] तुम्हारे लिए कोई परीक्षा हो तथा लाभ हो एक निर्धारित समय तक?

112- ﴿قَالَ رَبِّ احْكُمْ بِالْحَقِّ ۗ وَرَبُّنَا الرَّحْمَٰنُ الْمُسْتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ﴾


उस (नबी) ने प्रार्थना कीः हे मेरे पालनहार! सत्य के साथ निर्णय कर दे और हमारा पालनहार अत्यंत कृपाशील है, जिससे सहायता माँगी जाये उन बातों पर, जो तुम लोग बना रहे हो।

الترجمات والتفاسير لهذه السورة: