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الرءوف

كلمةُ (الرَّؤُوف) في اللغة صيغةُ مبالغة من (الرأفةِ)، وهي أرَقُّ...

الإله

(الإله) اسمٌ من أسماء الله تعالى؛ يعني استحقاقَه جل وعلا...

القابض

كلمة (القابض) في اللغة اسم فاعل من القَبْض، وهو أخذ الشيء، وهو ضد...

الترجمة الهندية

ترجمة معاني القرآن الكريم للغة الهندية ترجمها مولانا عزيز الحق العمري، نشرها مجمع الملك فهد لطباعة المصحف الشريف. عام الطبعة 1433هـ.

1- ﴿بَرَاءَةٌ مِنَ اللَّهِ وَرَسُولِهِ إِلَى الَّذِينَ عَاهَدْتُمْ مِنَ الْمُشْرِكِينَ﴾


अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर से संधि मुक्त होने की घोषणा है, उन मिश्रणवादियों के लिए जिनसे तुमने संधि (समझौता) किया[1] था।

2- ﴿فَسِيحُوا فِي الْأَرْضِ أَرْبَعَةَ أَشْهُرٍ وَاعْلَمُوا أَنَّكُمْ غَيْرُ مُعْجِزِي اللَّهِ ۙ وَأَنَّ اللَّهَ مُخْزِي الْكَافِرِينَ﴾


तो (हे कीफ़िरो!) तुम धरती में चार महीने (स्वतंत्र होकर) फिरो तथा जान लो कि तुम अल्लाह को विवश नहीं कर सकोगे और निश्चय अल्लाह, काफ़िरों को अपमानित करने वाला है।

3- ﴿وَأَذَانٌ مِنَ اللَّهِ وَرَسُولِهِ إِلَى النَّاسِ يَوْمَ الْحَجِّ الْأَكْبَرِ أَنَّ اللَّهَ بَرِيءٌ مِنَ الْمُشْرِكِينَ ۙ وَرَسُولُهُ ۚ فَإِنْ تُبْتُمْ فَهُوَ خَيْرٌ لَكُمْ ۖ وَإِنْ تَوَلَّيْتُمْ فَاعْلَمُوا أَنَّكُمْ غَيْرُ مُعْجِزِي اللَّهِ ۗ وَبَشِّرِ الَّذِينَ كَفَرُوا بِعَذَابٍ أَلِيمٍ﴾


तथा अल्लाह और उसके रसूल की ओर से सार्वजनिक सूचना है, महा ह़ज[1] के दिन कि अल्लाह मिश्रणवादियों (मुश्रिकों) से अलग है तथा उसका रसूल भी। फिर यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो, तो वह तुम्हारे लिए उत्तम है और यदि तुमने मुँह फेरा, तो जान लो कि तुम अल्लाह को विवश करने वाले नहीं हो और आप उन्हें जो काफ़िर हो गये, दुःखदायी यातना का शुभ समाचार सुना दें।

4- ﴿إِلَّا الَّذِينَ عَاهَدْتُمْ مِنَ الْمُشْرِكِينَ ثُمَّ لَمْ يَنْقُصُوكُمْ شَيْئًا وَلَمْ يُظَاهِرُوا عَلَيْكُمْ أَحَدًا فَأَتِمُّوا إِلَيْهِمْ عَهْدَهُمْ إِلَىٰ مُدَّتِهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِينَ﴾


सिवाय उन मुश्रिकों के, जिनसे तुमने संधि की, फिर उन्होंने तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुध्द किसी की सहायता की, तो उनसे उनकी संधि उनकी अवधि तक पूरी करो। निश्चय अल्लाह आज्ञाकारियों से प्रेम करता है।

5- ﴿فَإِذَا انْسَلَخَ الْأَشْهُرُ الْحُرُمُ فَاقْتُلُوا الْمُشْرِكِينَ حَيْثُ وَجَدْتُمُوهُمْ وَخُذُوهُمْ وَاحْصُرُوهُمْ وَاقْعُدُوا لَهُمْ كُلَّ مَرْصَدٍ ۚ فَإِنْ تَابُوا وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ فَخَلُّوا سَبِيلَهُمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَحِيمٌ﴾


अतः जब सम्मानित महीने बीत जायें, तो मिश्रणवादियों (मुश्रिकों) का वध करो, उन्हें जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो[1] और उनकी घात में रहो। फिर यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ की स्थापना करें तथा ज़कात दें, तो उन्हें छोड़ दो। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।

6- ﴿وَإِنْ أَحَدٌ مِنَ الْمُشْرِكِينَ اسْتَجَارَكَ فَأَجِرْهُ حَتَّىٰ يَسْمَعَ كَلَامَ اللَّهِ ثُمَّ أَبْلِغْهُ مَأْمَنَهُ ۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَا يَعْلَمُونَ﴾


और यदि मुश्रिकों में से कोई तुमसे श्रण माँगे, तो उसे श्रण दो, यहाँ तक कि अल्लाह की बातें सुन ले। फिर उसे पहुँचा दो, उसके शान्ति के स्थान तक। ये इसलिए कि वे ज्ञान नहीं रखते।

7- ﴿كَيْفَ يَكُونُ لِلْمُشْرِكِينَ عَهْدٌ عِنْدَ اللَّهِ وَعِنْدَ رَسُولِهِ إِلَّا الَّذِينَ عَاهَدْتُمْ عِنْدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۖ فَمَا اسْتَقَامُوا لَكُمْ فَاسْتَقِيمُوا لَهُمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِينَ﴾


इन मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) की कोई संधि अल्लाह और उसके रसूल के पास कैसे हो सकती है? उनके सिवाय जिनसे तुमने सम्मानित मस्जिद (काबा) के पास संधि[1] की थी। तो जब तक वे तुम्हारे लिए सीधे रहें, तो तुम भी उनके लिए सीधे रहो। वास्तव में, अल्लाह आज्ञाकारियों से प्रेम करता है।

8- ﴿كَيْفَ وَإِنْ يَظْهَرُوا عَلَيْكُمْ لَا يَرْقُبُوا فِيكُمْ إِلًّا وَلَا ذِمَّةً ۚ يُرْضُونَكُمْ بِأَفْوَاهِهِمْ وَتَأْبَىٰ قُلُوبُهُمْ وَأَكْثَرُهُمْ فَاسِقُونَ﴾


और उनकी संधि कैसे रह सकती है, जबकि वे यदि तुमपर अधिकार पा जायें, तो किसी संधि और किसी वचन का पालन नहीं करेंगे। वे तुम्हें अपने मुखों से प्रसन्न करते हैं, जबकि उनके दिल इन्कार करते हैं और उनमें अधिकांश वचनभंगी हैं।

9- ﴿اشْتَرَوْا بِآيَاتِ اللَّهِ ثَمَنًا قَلِيلًا فَصَدُّوا عَنْ سَبِيلِهِ ۚ إِنَّهُمْ سَاءَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ﴾


उन्होंने अल्लाह की आयतों के बदले तनिक मूल्य ख़रीद लिया[1], और (लोगों को) अल्लाह की राह (इस्लाम) से रोक दिया। वास्तव में, वे बड़ा कुकर्म कर रहे हैं।

10- ﴿لَا يَرْقُبُونَ فِي مُؤْمِنٍ إِلًّا وَلَا ذِمَّةً ۚ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُعْتَدُونَ﴾


वह किसी ईमान वाले के बारे में किसी संधि और वचन का पालन नहीं करते और वही उल्लंघनकारी हैं।

11- ﴿فَإِنْ تَابُوا وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ فَإِخْوَانُكُمْ فِي الدِّينِ ۗ وَنُفَصِّلُ الْآيَاتِ لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ﴾


तो यदि वे (शिर्क से) तौबा कर लें, नमाज़ की स्थापना करें और ज़कात दें, तो तुम्हारे धर्म-बंधु हैं और हम उन लोगों के लिए आयतों का वर्णन कर हे हैं, जो ज्ञान रखते हों।

12- ﴿وَإِنْ نَكَثُوا أَيْمَانَهُمْ مِنْ بَعْدِ عَهْدِهِمْ وَطَعَنُوا فِي دِينِكُمْ فَقَاتِلُوا أَئِمَّةَ الْكُفْرِ ۙ إِنَّهُمْ لَا أَيْمَانَ لَهُمْ لَعَلَّهُمْ يَنْتَهُونَ﴾


तो यदि वे अपनी शपथें अपना वचन देने के पश्चात तोड़ दें और तुम्हारे धर्म की निंदा करें, तो कुफ़्र के प्रमुखों से युध्द करो। क्योंकि उनकी शपथों का कोई विश्वास नहीं, ताकि वे (अत्याचार से) रुक जायेँ।

13- ﴿أَلَا تُقَاتِلُونَ قَوْمًا نَكَثُوا أَيْمَانَهُمْ وَهَمُّوا بِإِخْرَاجِ الرَّسُولِ وَهُمْ بَدَءُوكُمْ أَوَّلَ مَرَّةٍ ۚ أَتَخْشَوْنَهُمْ ۚ فَاللَّهُ أَحَقُّ أَنْ تَخْشَوْهُ إِنْ كُنْتُمْ مُؤْمِنِينَ﴾


तुम उन लोगों से युध्द क्यों नहीं करते, जिन्होंने अपने वचन भंग कर दिये तथा रसूल को निकालने का निश्चय किया और उन्होंने ही युध्द का आरंभ किया है? क्या तुम उनसे डरते हो? तो अल्लाह अधिक योग्य है कि तुम उससे डरो, यदि तुम ईमान[1] वाले हो।

14- ﴿قَاتِلُوهُمْ يُعَذِّبْهُمُ اللَّهُ بِأَيْدِيكُمْ وَيُخْزِهِمْ وَيَنْصُرْكُمْ عَلَيْهِمْ وَيَشْفِ صُدُورَ قَوْمٍ مُؤْمِنِينَ﴾


उनसे युध्द करो, उन्हें अल्लाह तुम्हारे हाथों दण्ड देगा, उन्हें अपमानित करेगा, उनके विरुध्द तुम्हारी सहायता करेगा और ईमान वालों के दिलों का सब दुःख दूर करेगा।

15- ﴿وَيُذْهِبْ غَيْظَ قُلُوبِهِمْ ۗ وَيَتُوبُ اللَّهُ عَلَىٰ مَنْ يَشَاءُ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ﴾


और उनके दिलों की जलन दूर कर देगा और जिसपर चाहेगा, दया करेगा और अल्लाह अति ज्ञानी, नीतिज्ञ है।

16- ﴿أَمْ حَسِبْتُمْ أَنْ تُتْرَكُوا وَلَمَّا يَعْلَمِ اللَّهُ الَّذِينَ جَاهَدُوا مِنْكُمْ وَلَمْ يَتَّخِذُوا مِنْ دُونِ اللَّهِ وَلَا رَسُولِهِ وَلَا الْمُؤْمِنِينَ وَلِيجَةً ۚ وَاللَّهُ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ﴾


क्या तुमने समझा है कि यूँ ही छोड़ दिये जाओगे, जबकि (परीक्षा लेकर) अल्लाह ने उन्हें नहीं जाना है, जिसने तुममें से जिहाद किया तथा अल्लाह और उसके रसूल और ईमान वालों के सिवाय किसी को भेदी मित्र नहीं बनाया? और अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम कर रहे हो।

17- ﴿مَا كَانَ لِلْمُشْرِكِينَ أَنْ يَعْمُرُوا مَسَاجِدَ اللَّهِ شَاهِدِينَ عَلَىٰ أَنْفُسِهِمْ بِالْكُفْرِ ۚ أُولَٰئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ وَفِي النَّارِ هُمْ خَالِدُونَ﴾


मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए योग्य नहीं है कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद करें, जबकि वे स्वयं अपने विरुध कुफ़्र (अधर्म) के साक्षी हैं। इन्हींके कर्म व्यर्थ हो गये और नरक में यही सदावासी होंगे।

18- ﴿إِنَّمَا يَعْمُرُ مَسَاجِدَ اللَّهِ مَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَأَقَامَ الصَّلَاةَ وَآتَى الزَّكَاةَ وَلَمْ يَخْشَ إِلَّا اللَّهَ ۖ فَعَسَىٰ أُولَٰئِكَ أَنْ يَكُونُوا مِنَ الْمُهْتَدِينَ﴾


वास्तव में, अल्लाह की मस्जिदों को वही आबाद करता है, जो अल्लाह पर और अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लाया, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरा। तो आशा है कि वही सीधी राह चलेंगे।

19- ﴿۞ أَجَعَلْتُمْ سِقَايَةَ الْحَاجِّ وَعِمَارَةَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ كَمَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَجَاهَدَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ ۚ لَا يَسْتَوُونَ عِنْدَ اللَّهِ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ﴾


क्या तुम ह़ाजियों को पानी पिलाने और सम्मानित मस्जिद (काबा) की सेवा को, उसके (ईमान के) बराबर समझते हो, जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाया तथा अल्लाह की राह में जिहाद किया? अल्लाह के समीप दोनों बराबर नहीं हैं तथा अल्लाह अत्याचारियों को सुपथ नहीं दिखाता!

20- ﴿الَّذِينَ آمَنُوا وَهَاجَرُوا وَجَاهَدُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ أَعْظَمُ دَرَجَةً عِنْدَ اللَّهِ ۚ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْفَائِزُونَ﴾


जो लोग ईमान लाये तथा हिजरत कर गये और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों से जिहाद किया, अल्लाह के यहाँ उनका बहुत बड़ा पद है और वही सफल होने वाले हैं।

21- ﴿يُبَشِّرُهُمْ رَبُّهُمْ بِرَحْمَةٍ مِنْهُ وَرِضْوَانٍ وَجَنَّاتٍ لَهُمْ فِيهَا نَعِيمٌ مُقِيمٌ﴾


उन्हें उनका पालनहार शुभ सूचना देता है अपनी दया और प्रसन्नता की तथा ऐसे स्वर्गों की, जिनमें स्थायी सुख के साधन हैं।

22- ﴿خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا ۚ إِنَّ اللَّهَ عِنْدَهُ أَجْرٌ عَظِيمٌ﴾


जिनमें वे सदावासी होंगे। वास्तव में, अल्लाह के यहाँ (सत्कर्मियों के लिए) बड़ा प्रतिफल है।

23- ﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا آبَاءَكُمْ وَإِخْوَانَكُمْ أَوْلِيَاءَ إِنِ اسْتَحَبُّوا الْكُفْرَ عَلَى الْإِيمَانِ ۚ وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ مِنْكُمْ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ﴾


हे ईमान वालो! अपने बापों और भाईयों को अपना सहायक न बनाओ, यदि वे ईमान की अपेक्षा कुफ़्र से प्रेम करें और तुममें से जो उन्हें सहायक बनाएँगे, तो वही अत्याचारी होंगे।

24- ﴿قُلْ إِنْ كَانَ آبَاؤُكُمْ وَأَبْنَاؤُكُمْ وَإِخْوَانُكُمْ وَأَزْوَاجُكُمْ وَعَشِيرَتُكُمْ وَأَمْوَالٌ اقْتَرَفْتُمُوهَا وَتِجَارَةٌ تَخْشَوْنَ كَسَادَهَا وَمَسَاكِنُ تَرْضَوْنَهَا أَحَبَّ إِلَيْكُمْ مِنَ اللَّهِ وَرَسُولِهِ وَجِهَادٍ فِي سَبِيلِهِ فَتَرَبَّصُوا حَتَّىٰ يَأْتِيَ اللَّهُ بِأَمْرِهِ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفَاسِقِينَ﴾


हे नबी! कह दो कि यदि तुम्हारे बाप, तुम्हारे पुत्र, तुम्हारे भाई, तुम्हारी पत्नियाँ, तुम्हारे परिवार, तुम्हारा धन जो तुमने कमाया है और जिस व्यपार के मंद हो जाने का तुम्हें भय है तथा वो घर जिनसे मोह रखते हो, तुम्हें अल्लाह तथा उसके रसूल और अल्लाह की राह में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं, तो प्रतीक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह का निर्णय आ जाये और अल्लाह उल्लंघनकारियों को सुपथ नहीं दिखाता।

25- ﴿لَقَدْ نَصَرَكُمُ اللَّهُ فِي مَوَاطِنَ كَثِيرَةٍ ۙ وَيَوْمَ حُنَيْنٍ ۙ إِذْ أَعْجَبَتْكُمْ كَثْرَتُكُمْ فَلَمْ تُغْنِ عَنْكُمْ شَيْئًا وَضَاقَتْ عَلَيْكُمُ الْأَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ ثُمَّ وَلَّيْتُمْ مُدْبِرِينَ﴾


अल्लाह बहुत-से स्थानों पर तथा ह़ुनैन[1] के दिन, तुम्हारी सहायता कर चुका है, जब तुम्हें तुम्हारी अधिक्ता पर गर्व था, तो वह तुम्हारे कुछ काम न आई तथा तुमपर धरती अपने विस्तार के होते हुए संकीर्ण (तंग) हो गई, फिर तुम पीठ दिखाकर भागे।

26- ﴿ثُمَّ أَنْزَلَ اللَّهُ سَكِينَتَهُ عَلَىٰ رَسُولِهِ وَعَلَى الْمُؤْمِنِينَ وَأَنْزَلَ جُنُودًا لَمْ تَرَوْهَا وَعَذَّبَ الَّذِينَ كَفَرُوا ۚ وَذَٰلِكَ جَزَاءُ الْكَافِرِينَ﴾


फिर अल्लाह ने अपने रसूल और ईमान वालों पर शान्ति उतारी तथा ऐसी सेनायें उतारीं, जिन्हें तुमने नहीं देखा[1] और काफ़िरों को यातना दी और यही काफ़िरों का प्रतिकार (बदला) है।

27- ﴿ثُمَّ يَتُوبُ اللَّهُ مِنْ بَعْدِ ذَٰلِكَ عَلَىٰ مَنْ يَشَاءُ ۗ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَحِيمٌ﴾


फिर अल्लाह इसके पश्चात् जिसे चाहे, क्षमा कर दे[1] और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान है।

28- ﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ بَعْدَ عَامِهِمْ هَٰذَا ۚ وَإِنْ خِفْتُمْ عَيْلَةً فَسَوْفَ يُغْنِيكُمُ اللَّهُ مِنْ فَضْلِهِ إِنْ شَاءَ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ حَكِيمٌ﴾


हे ईमान वालो! मुश्रिक (मिश्रणवादी) मलीन हैं। अतः इस वर्ष[1] के पश्चात् वे सम्मानित मस्जिद (काबा) के समीप भी न आयें और यदि तुम्हें निर्धनता का भय[2] हो, तो अल्लाह तुम्हें अपनी दया से धनी कर देगा, यदि वह चाहे। वास्तव में, अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।

29- ﴿قَاتِلُوا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حَتَّىٰ يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَنْ يَدٍ وَهُمْ صَاغِرُونَ﴾


(हे ईमान वालो!) उनसे युध्द करो, जो न तो अल्लाह (सत्य) पर ईमान लाते हैं और न अन्तिम दिन (प्रलय) पर और न जिसे, अल्लाह और उसके रसूल ने ह़राम (वर्जित) किया है, उसे ह़राम (वर्जित) समझते हैं, न सत्धर्म को अपना धर्म बनाते हैं, उनमें से जो पुस्तक दिये गये हैं, यहाँ तक कि वे अपने हाथ से जिज़या[1] दें और वे अपमानित होकर रहें।

30- ﴿وَقَالَتِ الْيَهُودُ عُزَيْرٌ ابْنُ اللَّهِ وَقَالَتِ النَّصَارَى الْمَسِيحُ ابْنُ اللَّهِ ۖ ذَٰلِكَ قَوْلُهُمْ بِأَفْوَاهِهِمْ ۖ يُضَاهِئُونَ قَوْلَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ قَبْلُ ۚ قَاتَلَهُمُ اللَّهُ ۚ أَنَّىٰ يُؤْفَكُونَ﴾


तथा यहूद ने कहा कि उज़ैर अल्लाह का पुत्र है और नसारा (ईसाईयों) ने कहा कि मसीह़ अल्लाह का पुत्र है। ये उनके अपने मुँह की बातें हैं। वे उनके जैसी बातें कर रहे हैं, जो इनसे पहले काफ़िर हो गये। उनपर अल्लाह की मार! वे कहाँ बहके जा रहे हैं?

31- ﴿اتَّخَذُوا أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ أَرْبَابًا مِنْ دُونِ اللَّهِ وَالْمَسِيحَ ابْنَ مَرْيَمَ وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا إِلَٰهًا وَاحِدًا ۖ لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ۚ سُبْحَانَهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ﴾


उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा पूज्य[1] बना लिया तथा मर्यम के पुत्र मसीह़ को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वो इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही। वह उससे पवित्र है, जिसे उसका साझी बना रहे हैं।

32- ﴿يُرِيدُونَ أَنْ يُطْفِئُوا نُورَ اللَّهِ بِأَفْوَاهِهِمْ وَيَأْبَى اللَّهُ إِلَّا أَنْ يُتِمَّ نُورَهُ وَلَوْ كَرِهَ الْكَافِرُونَ﴾


वे चाहते हैं कि अल्लाह के प्रकाश को अपनी फूकों से बुझा[1] दें और अल्लाह अपने प्रकाश को पूरा किये बिना नहीं रहेगा, यद्यपि काफ़िरों को बुरा लगे।

33- ﴿هُوَ الَّذِي أَرْسَلَ رَسُولَهُ بِالْهُدَىٰ وَدِينِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهُ عَلَى الدِّينِ كُلِّهِ وَلَوْ كَرِهَ الْمُشْرِكُونَ﴾


उसीने अपने रसूल[1] को मार्गदर्शन तथा सत्धर्म (इस्लाम) के साथ भेजा है, ताकि उसे प्रत्येक धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे[2], यद्यपि मिश्रणवादियों को बुरा लगे।

34- ﴿۞ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ كَثِيرًا مِنَ الْأَحْبَارِ وَالرُّهْبَانِ لَيَأْكُلُونَ أَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ وَيَصُدُّونَ عَنْ سَبِيلِ اللَّهِ ۗ وَالَّذِينَ يَكْنِزُونَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلَا يُنْفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ اللَّهِ فَبَشِّرْهُمْ بِعَذَابٍ أَلِيمٍ﴾


हे ईमान वालो! बहुत-से (अह्ले किताब के) विद्वान तथा धर्माचारी (संत) लोगों का धन अवैध खाते हैं और (उन्हें) अल्लाह की राह से रोकते हैं तथा जो सोना-चाँदी एकत्र करके रखते हैं और उसे अल्लाह की राह में दान नहीं करते, उन्हें दुःखदायी यातना की शुभ सूचना सुना दें।

35- ﴿يَوْمَ يُحْمَىٰ عَلَيْهَا فِي نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكْوَىٰ بِهَا جِبَاهُهُمْ وَجُنُوبُهُمْ وَظُهُورُهُمْ ۖ هَٰذَا مَا كَنَزْتُمْ لِأَنْفُسِكُمْ فَذُوقُوا مَا كُنْتُمْ تَكْنِزُونَ﴾


जिस (प्रलय के) दिन उसे नरक की अग्नि में तपाया जायेगा, फिर उससे उनके माथों, पार्शवों (पहलू) और पीठों को दागा जायेगा ( और कहा जायेगाः) यही है, जिसे तुम एकत्र कर रहे थे, तो (अब) अपने संचित किये धनों का स्वाद चखो।

36- ﴿إِنَّ عِدَّةَ الشُّهُورِ عِنْدَ اللَّهِ اثْنَا عَشَرَ شَهْرًا فِي كِتَابِ اللَّهِ يَوْمَ خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ مِنْهَا أَرْبَعَةٌ حُرُمٌ ۚ ذَٰلِكَ الدِّينُ الْقَيِّمُ ۚ فَلَا تَظْلِمُوا فِيهِنَّ أَنْفُسَكُمْ ۚ وَقَاتِلُوا الْمُشْرِكِينَ كَافَّةً كَمَا يُقَاتِلُونَكُمْ كَافَّةً ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ مَعَ الْمُتَّقِينَ﴾


वास्तव में, महीनों की संख्या बारह महीने हैं, अल्लाह के लेख में, जिस दिन से उसने आकाशों तथा धरती की रचना की है। उनमें से चार ह़राम (सम्मानित)[1] महीने हैं। यही सीधा धर्म है। अतः अपने प्राणों पर अत्याचार[2] न करो तथा मिश्रणवादियों से सब मिलकर युध्द करो।, जैसे वे तुमसे मिलकर युध्द करते हैं और विश्वास रखो कि अल्लाह आज्ञाकीरियों के साथ है।

37- ﴿إِنَّمَا النَّسِيءُ زِيَادَةٌ فِي الْكُفْرِ ۖ يُضَلُّ بِهِ الَّذِينَ كَفَرُوا يُحِلُّونَهُ عَامًا وَيُحَرِّمُونَهُ عَامًا لِيُوَاطِئُوا عِدَّةَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ فَيُحِلُّوا مَا حَرَّمَ اللَّهُ ۚ زُيِّنَ لَهُمْ سُوءُ أَعْمَالِهِمْ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ﴾


नसी[1] (महीनों को आगे-पीछे करना) कुफ़्र (अधर्म) में अधिक्ता है। इससे काफ़िर कुफथ किये जाते हैं। एक ही महीने को एक वर्ष ह़लाल (वैध) कर देते हैं तथा उसी को दूसरे वर्ष ह़राम (अवैध) कर देते हैं। ताकि अल्लाह ने सम्मानित महीनों की जो गिनती निश्चित कर दी है, उसे अपनी गिनती के अनुसार करके, अवैध महीनों को वैध कर लें। उनके लिए उनके कुकर्म सुन्दर बना दिये गये हैं और अल्लाह काफ़िरों को सुपथ नहीं दर्शाता।

38- ﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا مَا لَكُمْ إِذَا قِيلَ لَكُمُ انْفِرُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ اثَّاقَلْتُمْ إِلَى الْأَرْضِ ۚ أَرَضِيتُمْ بِالْحَيَاةِ الدُّنْيَا مِنَ الْآخِرَةِ ۚ فَمَا مَتَاعُ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا فِي الْآخِرَةِ إِلَّا قَلِيلٌ﴾


हे ईमान वालो! तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाये कि अल्लाह की राह में निकलो, तो धरती के बोझ बन जाते हो, क्या तुम आख़िरत (परलोक) की अपेक्षा सांसारिक जीवन से प्रसन्न हो गये हो? जबकि परलोक की अपेक्षा सांसारिक जीवन के लाभ बहुत थोड़े हैं[1]।

39- ﴿إِلَّا تَنْفِرُوا يُعَذِّبْكُمْ عَذَابًا أَلِيمًا وَيَسْتَبْدِلْ قَوْمًا غَيْرَكُمْ وَلَا تَضُرُّوهُ شَيْئًا ۗ وَاللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ﴾


यदि तुम नहीं निकलोगे, तो तुम्हें अल्लाह दुःखदायी यातना देगा, तथा तुम्हारे सिवाय दूसरे लोगों को लायेगा। और तुम उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सकोगे। और अल्लाह जो चाहे कर सकता है।

40- ﴿إِلَّا تَنْصُرُوهُ فَقَدْ نَصَرَهُ اللَّهُ إِذْ أَخْرَجَهُ الَّذِينَ كَفَرُوا ثَانِيَ اثْنَيْنِ إِذْ هُمَا فِي الْغَارِ إِذْ يَقُولُ لِصَاحِبِهِ لَا تَحْزَنْ إِنَّ اللَّهَ مَعَنَا ۖ فَأَنْزَلَ اللَّهُ سَكِينَتَهُ عَلَيْهِ وَأَيَّدَهُ بِجُنُودٍ لَمْ تَرَوْهَا وَجَعَلَ كَلِمَةَ الَّذِينَ كَفَرُوا السُّفْلَىٰ ۗ وَكَلِمَةُ اللَّهِ هِيَ الْعُلْيَا ۗ وَاللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ﴾


यदि तुम उस (नबी) की सहायता नहीं करोगे, तो अल्लाह ने उसकी सहायता उस समय[1] की है, जब काफ़िरों ने उसे (मक्का से) निकाल दिया। वह दो में दूसरे थे। जब दोनों गुफा में थे, जब वह अपने साथी से कह रहे थेः उदासीन न हो, निश्चय अल्लाह हमारे साथ है[2]। तो अल्लाह ने अपनी ओर से शान्ति उतार दी और आपको ऐसी सेना से समर्थन दिया, जिसे तुमने नहीं देखा और काफ़िरों की बात नीची कर दी और अल्लाह की बात ही ऊँची रही और अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।

41- ﴿انْفِرُوا خِفَافًا وَثِقَالًا وَجَاهِدُوا بِأَمْوَالِكُمْ وَأَنْفُسِكُمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ ۚ ذَٰلِكُمْ خَيْرٌ لَكُمْ إِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُونَ﴾


हल्के[1] होकर और बोझल (जैसे हो) निकल पड़ो। और अपने धनों तथा प्राणों से अल्लाह की राह में जिहाद करो। यही तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम ज्ञान रखते हो।

42- ﴿لَوْ كَانَ عَرَضًا قَرِيبًا وَسَفَرًا قَاصِدًا لَاتَّبَعُوكَ وَلَٰكِنْ بَعُدَتْ عَلَيْهِمُ الشُّقَّةُ ۚ وَسَيَحْلِفُونَ بِاللَّهِ لَوِ اسْتَطَعْنَا لَخَرَجْنَا مَعَكُمْ يُهْلِكُونَ أَنْفُسَهُمْ وَاللَّهُ يَعْلَمُ إِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ﴾


(हे नबी!) यदि लाभ समीप और यात्रा सरल होती, तो ये (मुनाफ़िक़) अवश्य आपके साथ हो जाते। परन्तु उन्हें मार्ग दूर लगा और (अब) अल्लाह की शपथ लेंगे कि यदि हम निकल सकते, तो अवश्य तुम्हारे साथ निकल पड़ते, वे अपना विनाश स्वयं कर रहे हैं और अल्लाह जानता है कि वे वास्तव में झूठे हैं।

43- ﴿عَفَا اللَّهُ عَنْكَ لِمَ أَذِنْتَ لَهُمْ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكَ الَّذِينَ صَدَقُوا وَتَعْلَمَ الْكَاذِبِينَ﴾


(हे नबी!) अल्लाह आपको क्षमा करे! आपने उन्हें अनुमति क्यों दे दी? यहाँ तक कि आपके लिए जो सच्चे हैं, उजागर हो जाते और झूठों को जान लेते?

44- ﴿لَا يَسْتَأْذِنُكَ الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ أَنْ يُجَاهِدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ بِالْمُتَّقِينَ﴾


आपसे (पीछे रह जाने की) अनुमति वह नहीं माँग रहे हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान रखते हों कि अपने धनों तथा प्राणों से जिहाद करेंगे और अल्लाह आज्ञाकारियों को भलि-भाँति जानता है।

45- ﴿إِنَّمَا يَسْتَأْذِنُكَ الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَارْتَابَتْ قُلُوبُهُمْ فَهُمْ فِي رَيْبِهِمْ يَتَرَدَّدُونَ﴾


आपसे अनुमति वही माँग रहे हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिवस (परलोक) पर ईमान नहीं रखते और अपने संदेह में पड़े हुए हैं।

46- ﴿۞ وَلَوْ أَرَادُوا الْخُرُوجَ لَأَعَدُّوا لَهُ عُدَّةً وَلَٰكِنْ كَرِهَ اللَّهُ انْبِعَاثَهُمْ فَثَبَّطَهُمْ وَقِيلَ اقْعُدُوا مَعَ الْقَاعِدِينَ﴾


यदि वे निकलना चाहते, तो अवश्य उसके लिए कुछ तैयारी करते। परन्तु अल्लाह को उनका जाना अप्रिय था, अतः उन्हें आलसी बना दिया तथा कह दिया गया कि बैठने वालों के साथ बैठे रहो।

47- ﴿لَوْ خَرَجُوا فِيكُمْ مَا زَادُوكُمْ إِلَّا خَبَالًا وَلَأَوْضَعُوا خِلَالَكُمْ يَبْغُونَكُمُ الْفِتْنَةَ وَفِيكُمْ سَمَّاعُونَ لَهُمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ بِالظَّالِمِينَ﴾


और यदि वे तुममें निकलते, तो तुममें बिगाड़ ही अधिक करते और तुम्हारे बीच उपद्रव के लिए दौड़ धूप करते और तुममें वह भी हैं, जो उनकी बातों पर ध्यान देते हैं और अल्लाह अत्याचारियों को भली-भाँति जानता है।

48- ﴿لَقَدِ ابْتَغَوُا الْفِتْنَةَ مِنْ قَبْلُ وَقَلَّبُوا لَكَ الْأُمُورَ حَتَّىٰ جَاءَ الْحَقُّ وَظَهَرَ أَمْرُ اللَّهِ وَهُمْ كَارِهُونَ﴾


(हे नबी!) वे इससे पहले भी उपद्रव का प्रयास कर चुके हैं तथा आपके लिए बातों में हेर-फेर कर चुके हैं। यहाँ तक कि सत्य आ गया और अल्लाह का आदेश प्रभुत्वशाली हो गया और ये बात उन्हें अप्रिय है।

49- ﴿وَمِنْهُمْ مَنْ يَقُولُ ائْذَنْ لِي وَلَا تَفْتِنِّي ۚ أَلَا فِي الْفِتْنَةِ سَقَطُوا ۗ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةٌ بِالْكَافِرِينَ﴾


उनमें से कोई ऐसा भी है, जो कहता है कि आप मुझे अनुमति दे दें और परीक्षा में न डालें। सुन लो! परीक्षा में तो ये पहले ही से पड़े हुए हैं और वास्तव में, नरक काफ़िरों को घेरी हुई है।

50- ﴿إِنْ تُصِبْكَ حَسَنَةٌ تَسُؤْهُمْ ۖ وَإِنْ تُصِبْكَ مُصِيبَةٌ يَقُولُوا قَدْ أَخَذْنَا أَمْرَنَا مِنْ قَبْلُ وَيَتَوَلَّوْا وَهُمْ فَرِحُونَ﴾


(हे नबी!) यदि आपका कुछ भला होता है, तो उन (द्विधावादियों) को बुरा लगता है और यदि आपपर कोई आपदा आ पड़े, तो कहते हैं: हमने पहले ही अपनी सावधानी बरत ली थी और प्रसन्न होकर फिर जाते हैं।

51- ﴿قُلْ لَنْ يُصِيبَنَا إِلَّا مَا كَتَبَ اللَّهُ لَنَا هُوَ مَوْلَانَا ۚ وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ﴾


आप कह दें: हमें कदापि कोई आपदा नहीं पहुँचेगी, परन्तु वही जो अल्लाह ने हमारे भाग्य में लिख दी है। वही हमारा सहायक है और अल्लाह ही पर ईमान वालों को निर्भर रहना चाहिए।

52- ﴿قُلْ هَلْ تَرَبَّصُونَ بِنَا إِلَّا إِحْدَى الْحُسْنَيَيْنِ ۖ وَنَحْنُ نَتَرَبَّصُ بِكُمْ أَنْ يُصِيبَكُمُ اللَّهُ بِعَذَابٍ مِنْ عِنْدِهِ أَوْ بِأَيْدِينَا ۖ فَتَرَبَّصُوا إِنَّا مَعَكُمْ مُتَرَبِّصُونَ﴾


आप उनसे कह दें कि तुम हमारे बारे में जिसकी प्रतीक्षा कर रहे हो, वह यही है कि हमें दो[1] भलाईयों में से एक मिल जाये और हम तुम्हारे बारे में इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि अल्लाह तुम्हें अपने पास से यातना देता है या हमारे हाथों से। तो तुम प्रतीक्षा करो। हम भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा कर रहे हैं।

53- ﴿قُلْ أَنْفِقُوا طَوْعًا أَوْ كَرْهًا لَنْ يُتَقَبَّلَ مِنْكُمْ ۖ إِنَّكُمْ كُنْتُمْ قَوْمًا فَاسِقِينَ﴾


आप (मुनाफ़िक़ों से) कह दें कि तुम स्वेच्छा दान करो अथवा अनिच्छा, तुमसे कदापि स्वीकार नहीं किया जायेगा। क्योंकि तुम अवज्ञाकारी हो।

54- ﴿وَمَا مَنَعَهُمْ أَنْ تُقْبَلَ مِنْهُمْ نَفَقَاتُهُمْ إِلَّا أَنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَبِرَسُولِهِ وَلَا يَأْتُونَ الصَّلَاةَ إِلَّا وَهُمْ كُسَالَىٰ وَلَا يُنْفِقُونَ إِلَّا وَهُمْ كَارِهُونَ﴾


और उनके दानों के स्वीकार न किये जाने का कारण, इसके सिवाय कुछ नहीं है कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है और वे नमाज़ के लिए आलसी होकर आते हैं तथा दान भी करते हैं, तो अनिच्छा करते हैं।

55- ﴿فَلَا تُعْجِبْكَ أَمْوَالُهُمْ وَلَا أَوْلَادُهُمْ ۚ إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمْ بِهَا فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَتَزْهَقَ أَنْفُسُهُمْ وَهُمْ كَافِرُونَ﴾


अतः आपको उनके धन तथा उनकी संतान चकित न करे। अल्लाह तो ये चाहता है कि उन्हें इनके द्वारा सांसारिक जीवन में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों।

56- ﴿وَيَحْلِفُونَ بِاللَّهِ إِنَّهُمْ لَمِنْكُمْ وَمَا هُمْ مِنْكُمْ وَلَٰكِنَّهُمْ قَوْمٌ يَفْرَقُونَ﴾


वे (मुनाफ़िक़) अल्लाह की शपथ लेकर कहते हैं कि वे तुम में से हैं, जबकि वे तुममें से नहीं हैं, परन्तु भयभीत लोग हैं।

57- ﴿لَوْ يَجِدُونَ مَلْجَأً أَوْ مَغَارَاتٍ أَوْ مُدَّخَلًا لَوَلَّوْا إِلَيْهِ وَهُمْ يَجْمَحُونَ﴾


यदि वे कोई शरणगार, गुफा या प्रवेश स्थान पा जायेँ, तो उसकी ओर भागते हुए फिर जायेंगे।

58- ﴿وَمِنْهُمْ مَنْ يَلْمِزُكَ فِي الصَّدَقَاتِ فَإِنْ أُعْطُوا مِنْهَا رَضُوا وَإِنْ لَمْ يُعْطَوْا مِنْهَا إِذَا هُمْ يَسْخَطُونَ﴾


(हे नबी!) उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ ज़कात के वितरण में आपपर आक्षेप करते हैं। फिर यदि उन्हें उसमें से कुछ दे दिया जाये, तो प्रसन्न हो जाते हैं और यदि न दिया जाये, तो तुरन्त अप्रसन्न हो जाते हैं।

59- ﴿وَلَوْ أَنَّهُمْ رَضُوا مَا آتَاهُمُ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَقَالُوا حَسْبُنَا اللَّهُ سَيُؤْتِينَا اللَّهُ مِنْ فَضْلِهِ وَرَسُولُهُ إِنَّا إِلَى اللَّهِ رَاغِبُونَ﴾


और क्या ही अच्छा होता, यदि वे उससे प्रसन्न हो जाते, जो उन्हें अल्लाह और उसके रसूल ने दिया है तथा कहते कि हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है। हमें अपने अनुग्रह से (बहुत कुछ) प्रदान करेगा तथा उसके रसूल भी, हम तो उसी की ओर रूचि रखते हैं।

60- ﴿۞ إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاءِ وَالْمَسَاكِينِ وَالْعَامِلِينَ عَلَيْهَا وَالْمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمْ وَفِي الرِّقَابِ وَالْغَارِمِينَ وَفِي سَبِيلِ اللَّهِ وَابْنِ السَّبِيلِ ۖ فَرِيضَةً مِنَ اللَّهِ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ﴾


ज़कात (देय, दान) केवल फ़क़ीरों[1], मिस्कीनों, कार्य-कर्ताओं[2] तथा उनके लिए जिनके दिलों को जोड़ा जा रहा है[3] और दास मुक्ति, ऋणियों (की सहायता), अल्लाह की राह में तथा यात्रियों के लिए है। अल्लाह की ओरसे अनिवार्य (देय) है[4] और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।

61- ﴿وَمِنْهُمُ الَّذِينَ يُؤْذُونَ النَّبِيَّ وَيَقُولُونَ هُوَ أُذُنٌ ۚ قُلْ أُذُنُ خَيْرٍ لَكُمْ يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَيُؤْمِنُ لِلْمُؤْمِنِينَ وَرَحْمَةٌ لِلَّذِينَ آمَنُوا مِنْكُمْ ۚ وَالَّذِينَ يُؤْذُونَ رَسُولَ اللَّهِ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ﴾


तथा उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ नबी को दुःख देते हैं और कहते हैं कि वह बड़े सुनवा[1] हैं। आप कह दें कि वह तुम्हारी भलाई के लिए ऐसे हैं। वह अल्लाह पर ईमान रखते हैं और ईमान वालों की बात का विश्वास करते है और उनके लिए दया हैं, जो तुममें से ईमान लाये हैं और जो अल्लाह के रसूल को दुःख देते हैं, उनके लिए दुःखदायी यातना है।

62- ﴿يَحْلِفُونَ بِاللَّهِ لَكُمْ لِيُرْضُوكُمْ وَاللَّهُ وَرَسُولُهُ أَحَقُّ أَنْ يُرْضُوهُ إِنْ كَانُوا مُؤْمِنِينَ﴾


वे तुम्हारे समक्ष अल्लाह की शपथ लेते हैं, ताकि तुम्हें प्रसन्न कर लें। जबकि अल्लाह और उसके रसूल इसके अधिक योग्य हैं कि उन्हें प्रसन्न करें, यदि वे वास्तव में, ईमान वाले हैं।

63- ﴿أَلَمْ يَعْلَمُوا أَنَّهُ مَنْ يُحَادِدِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ فَأَنَّ لَهُ نَارَ جَهَنَّمَ خَالِدًا فِيهَا ۚ ذَٰلِكَ الْخِزْيُ الْعَظِيمُ﴾


क्या वे नहीं जानते कि जो अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करता है, उसके लिए नरक की अग्नि है, जिसमें वे सदावासी होंगे और ये बहुत बड़ा अपमान है?

64- ﴿يَحْذَرُ الْمُنَافِقُونَ أَنْ تُنَزَّلَ عَلَيْهِمْ سُورَةٌ تُنَبِّئُهُمْ بِمَا فِي قُلُوبِهِمْ ۚ قُلِ اسْتَهْزِئُوا إِنَّ اللَّهَ مُخْرِجٌ مَا تَحْذَرُونَ﴾


मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) इससे डरते हैं कि उन[1] पर कोई ऐसी सूरह न उतार दी जाये, जो उन्हें इनके दिलों की दशा बता दे। आप कह दें कि हँसी उड़ा लो। निश्चय अल्लाह उसे खोलकर रहेगा, जिससे तुम डर रहे हो।

65- ﴿وَلَئِنْ سَأَلْتَهُمْ لَيَقُولُنَّ إِنَّمَا كُنَّا نَخُوضُ وَنَلْعَبُ ۚ قُلْ أَبِاللَّهِ وَآيَاتِهِ وَرَسُولِهِ كُنْتُمْ تَسْتَهْزِئُونَ﴾


और यदि आप उनसे प्रश्न करें, तो वे अवश्य कह देंगे कि हमतो यूँ ही बातें तथा उपहास कर रहे थे। आप कह दें कि क्या अल्लाह, उसकी आयतों और उसके रसूल के ही साथ उपहास कर रहे थे?

66- ﴿لَا تَعْتَذِرُوا قَدْ كَفَرْتُمْ بَعْدَ إِيمَانِكُمْ ۚ إِنْ نَعْفُ عَنْ طَائِفَةٍ مِنْكُمْ نُعَذِّبْ طَائِفَةً بِأَنَّهُمْ كَانُوا مُجْرِمِينَ﴾


तुम बहाने न बनाओ, तुमने अपने ईमान के पश्चात् कुफ़्र किया है। यदि हम तुम्हारे एक गिरोह को क्षमा कर दें, तो भी एक गिरोह को अवश्य यातना देंगे। क्योंकि वही अपराधी हैं।

67- ﴿الْمُنَافِقُونَ وَالْمُنَافِقَاتُ بَعْضُهُمْ مِنْ بَعْضٍ ۚ يَأْمُرُونَ بِالْمُنْكَرِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمَعْرُوفِ وَيَقْبِضُونَ أَيْدِيَهُمْ ۚ نَسُوا اللَّهَ فَنَسِيَهُمْ ۗ إِنَّ الْمُنَافِقِينَ هُمُ الْفَاسِقُونَ﴾


मुनाफ़िक़ पुरुष तथा स्त्रियाँ, सब एक-दूसरे जैसे हैं। वे बुराई का आदेश देते तथा भलाई से रोकते हैं और अपने हाथ बंद किये रहते[1] हैं। वे अल्लाह को भूल गये, तो अल्लाह ने भी उन्हें भुला[2] दिया। वास्तव में, मुनाफ़िक़ ही भ्रषटाचारी हैं।

68- ﴿وَعَدَ اللَّهُ الْمُنَافِقِينَ وَالْمُنَافِقَاتِ وَالْكُفَّارَ نَارَ جَهَنَّمَ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ هِيَ حَسْبُهُمْ ۚ وَلَعَنَهُمُ اللَّهُ ۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ مُقِيمٌ﴾


अल्लाह ने मुनाफ़िक़ पुरुषों तथा स्त्रियों और काफ़िरों को नरक की अग्नि का वचन दिया है, जिसमें सदावासी होंगे। वही उन्हें प्रयाप्त है और अल्लाह ने उन्हें धिक्कार दिया है और उन्हीं के लिए स्थायी यातना है।

69- ﴿كَالَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ كَانُوا أَشَدَّ مِنْكُمْ قُوَّةً وَأَكْثَرَ أَمْوَالًا وَأَوْلَادًا فَاسْتَمْتَعُوا بِخَلَاقِهِمْ فَاسْتَمْتَعْتُمْ بِخَلَاقِكُمْ كَمَا اسْتَمْتَعَ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ بِخَلَاقِهِمْ وَخُضْتُمْ كَالَّذِي خَاضُوا ۚ أُولَٰئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۖ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ﴾


इनकी दशा वही हुई, जो इनसे पहले के लोगों की हुई। वे बल में इनसे कड़े और धन तथा संतान में इनसे अधिक थे। तो उन्होंने अपने (सांसारिक) भाग का आनंद लिया, अतः तुमभी अपने भाग का आनंद लो, जैसे तुमसे पूर्व के लोगों ने आनंद लिया और तुमभी उलझते हो, जैसे वे उलझते रहे, उन्हीं के कर्म लोक तथा परलोक में व्यर्थ गये और वही क्षति में हैं।

70- ﴿أَلَمْ يَأْتِهِمْ نَبَأُ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِهِمْ قَوْمِ نُوحٍ وَعَادٍ وَثَمُودَ وَقَوْمِ إِبْرَاهِيمَ وَأَصْحَابِ مَدْيَنَ وَالْمُؤْتَفِكَاتِ ۚ أَتَتْهُمْ رُسُلُهُمْ بِالْبَيِّنَاتِ ۖ فَمَا كَانَ اللَّهُ لِيَظْلِمَهُمْ وَلَٰكِنْ كَانُوا أَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُونَ﴾


क्या इन्हें उनके समाचार नहीं पहुँचे, जो इनसे पहले थे; नूह़, आद, समूद तथा इब्राहीम की जाति के और मद्यन[1] के वासियों और उन बस्तियों के, जो पलट दी[2] गईं? उनके पास उनके रसूल खुली निशानियाँ लाये और ऐसा नहीं हो सकता था कि अल्लाह उनपर अत्याचार करता, परन्तु वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार[3] कर रहे थे।

71- ﴿وَالْمُؤْمِنُونَ وَالْمُؤْمِنَاتُ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاءُ بَعْضٍ ۚ يَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَيُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَيُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَيُطِيعُونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ أُولَٰئِكَ سَيَرْحَمُهُمُ اللَّهُ ۗ إِنَّ اللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ﴾


तथा ईमान वाले पुरुष और स्त्रियाँ एक-दूसरे के सहायक हैं। वे भलाई का आदेश देते तथा बुराई से रोकते हैं, नामज़ की स्थापना करते तथा ज़कात देते हैं और अल्लाह तथा उसके रसूल की आज्ञा का पालन करते हैं। इन्हीं पर अल्लाह दया करेगा, वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली, त्तवज्ञ है।

72- ﴿وَعَدَ اللَّهُ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا وَمَسَاكِنَ طَيِّبَةً فِي جَنَّاتِ عَدْنٍ ۚ وَرِضْوَانٌ مِنَ اللَّهِ أَكْبَرُ ۚ ذَٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ﴾


अल्लाह ने ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों को ऐसे स्वर्गों का वचन दिया है, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी, वे उनमें सदावासी होंगे और स्थायी स्वर्गों में, पवित्र आवासों का। और अल्लाह की प्रसन्नता इनसबसे बड़ा प्रदान होगी, यही बहुत बड़ी सफलता है।

73- ﴿يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ جَاهِدِ الْكُفَّارَ وَالْمُنَافِقِينَ وَاغْلُظْ عَلَيْهِمْ ۚ وَمَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ﴾


हे नबी! काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से जिहाद करो और उनपर सख़्ती करो, उनका आवास नरक है और वह बहुत बुरा स्थान है।

74- ﴿يَحْلِفُونَ بِاللَّهِ مَا قَالُوا وَلَقَدْ قَالُوا كَلِمَةَ الْكُفْرِ وَكَفَرُوا بَعْدَ إِسْلَامِهِمْ وَهَمُّوا بِمَا لَمْ يَنَالُوا ۚ وَمَا نَقَمُوا إِلَّا أَنْ أَغْنَاهُمُ اللَّهُ وَرَسُولُهُ مِنْ فَضْلِهِ ۚ فَإِنْ يَتُوبُوا يَكُ خَيْرًا لَهُمْ ۖ وَإِنْ يَتَوَلَّوْا يُعَذِّبْهُمُ اللَّهُ عَذَابًا أَلِيمًا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۚ وَمَا لَهُمْ فِي الْأَرْضِ مِنْ وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ﴾


वे अल्लाह की शपथ लेते हैं कि उन्होंने ये[1] बात नहीं कही। जबकि वास्तव में, उन्होंने कुफ़्र की बात कही[2] है और इस्लाम ले आने के पश्चात् काफ़िर हो गये हैं और उन्होंने ऐसी बात का निश्चय किया था, जो वे कर नहीं सके और उन्हें यही बात बुरी लगी कि अल्लाह और उसके रसूल ने उन्हें अपने अनुग्रह से धनी[3] कर दिया। अब यदि वे क्षमा याचना कर लें, तो उनके लिए उत्तम है और यदि विमुःख हों, तो अल्लाह उन्हें दुःखदायी यातना लोक तथा प्रलोक में देगा और उनका धरती में कोई संरक्षक और सहायक न होगा।

75- ﴿۞ وَمِنْهُمْ مَنْ عَاهَدَ اللَّهَ لَئِنْ آتَانَا مِنْ فَضْلِهِ لَنَصَّدَّقَنَّ وَلَنَكُونَنَّ مِنَ الصَّالِحِينَ﴾


उनमें से कुछ ने अल्लाह को वचन दिया था कि यदि वे अपनी दया से हमें (धन-धान्य) प्रदान करेगा, तो हम अवश्य दान करेंगे और सुकर्मियों में हो जायेंगे।

76- ﴿فَلَمَّا آتَاهُمْ مِنْ فَضْلِهِ بَخِلُوا بِهِ وَتَوَلَّوْا وَهُمْ مُعْرِضُونَ﴾


फिर जब अल्लाह ने अपनी दया से उन्हें प्रदान कर दिया, तो उससे कंजूसी कर गये और वचन से विमुख होकर फिर गये।

77- ﴿فَأَعْقَبَهُمْ نِفَاقًا فِي قُلُوبِهِمْ إِلَىٰ يَوْمِ يَلْقَوْنَهُ بِمَا أَخْلَفُوا اللَّهَ مَا وَعَدُوهُ وَبِمَا كَانُوا يَكْذِبُونَ﴾


तो इसका परिणाम ये हुआ कि उनके दिलों में द्विधा का रोग, उस दिन तक के लिए हो गया, जब ये अल्लाह से मिलेंगे। क्योंकि उन्होंने उस वचन को भंग कर दिया, जो अल्लाह से किया था और इसलिए कि वे झूठ बोलते रहे।

78- ﴿أَلَمْ يَعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ سِرَّهُمْ وَنَجْوَاهُمْ وَأَنَّ اللَّهَ عَلَّامُ الْغُيُوبِ﴾


क्या उन्हें इसका ज्ञान नहीं हुआ कि अल्लाह उनके भेद की बातें तथा सुनगुन को भी जानता है और वह सभी भेदों का अति ज्ञानी है?

79- ﴿الَّذِينَ يَلْمِزُونَ الْمُطَّوِّعِينَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ فِي الصَّدَقَاتِ وَالَّذِينَ لَا يَجِدُونَ إِلَّا جُهْدَهُمْ فَيَسْخَرُونَ مِنْهُمْ ۙ سَخِرَ اللَّهُ مِنْهُمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ﴾


जिनकी दशा ये है कि वे ईमान वालों में से स्वेच्छा दान करने वालों पर, दानों के विषय में आक्षेप करते हैं तथा उन्हें जो अपने परिश्रम ही से कुछ पाते (और दान करते हैं), ये (मुनाफ़िक़) उनसे उपहास करते हैं, अल्लाह उनसे उपहास करता[1] है और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।

80- ﴿اسْتَغْفِرْ لَهُمْ أَوْ لَا تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ إِنْ تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ سَبْعِينَ مَرَّةً فَلَنْ يَغْفِرَ اللَّهُ لَهُمْ ۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفَاسِقِينَ﴾


(हे नबी!) आप उनके लिए क्षमा याचना करें अथवा न करें, यदि आप उनके लिए सत्तर बार भी क्षमा याचना करें, तो भी अल्लाह उन्हें क्षमा नहीं करेगा, इस कारण कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और अल्लाह अवज्ञाकीरियों को मार्गदर्शन नहीं देता।

81- ﴿فَرِحَ الْمُخَلَّفُونَ بِمَقْعَدِهِمْ خِلَافَ رَسُولِ اللَّهِ وَكَرِهُوا أَنْ يُجَاهِدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَقَالُوا لَا تَنْفِرُوا فِي الْحَرِّ ۗ قُلْ نَارُ جَهَنَّمَ أَشَدُّ حَرًّا ۚ لَوْ كَانُوا يَفْقَهُونَ﴾


वे प्रसन्न[1] हुए, जो पीछे कर दिये गये, अपने बैठे रहने के कारण अल्लाह के रसूल के पीछे और उन्हें बुरा लगा कि जिहाद करें अपने धनों तथा प्राणों से अल्लाह की राह में और उन्होंने कहा कि गर्मी में न निकलो। आप कह दें कि नरक की अग्नि गर्मी में इससे भीषण है, यदि वे समझते (तो ऐसी बात न करते)।

82- ﴿فَلْيَضْحَكُوا قَلِيلًا وَلْيَبْكُوا كَثِيرًا جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ﴾


तो उन्हें चाहिए कि हँसें कम और रोयें अधिक। जो कुछ वे कर रहे हैं, उसका बदला यही है।

83- ﴿فَإِنْ رَجَعَكَ اللَّهُ إِلَىٰ طَائِفَةٍ مِنْهُمْ فَاسْتَأْذَنُوكَ لِلْخُرُوجِ فَقُلْ لَنْ تَخْرُجُوا مَعِيَ أَبَدًا وَلَنْ تُقَاتِلُوا مَعِيَ عَدُوًّا ۖ إِنَّكُمْ رَضِيتُمْ بِالْقُعُودِ أَوَّلَ مَرَّةٍ فَاقْعُدُوا مَعَ الْخَالِفِينَ﴾


तो (हे नबी!) यदि आपको अल्लाह इन (द्विधावादियों) के किसी गिरोह के पास (तबूक से) वापस लाये और वे आपसे (किसी दूसरे युध्द में) निकलने की अनुमति माँगें, तो आप कह दें कि तुम मेरे साथ कभी न निकलोगे और न मेरे साथ किसी शत्रु से युध्द कर सकोगे। तुम प्रथम बार बैठे रहने पर प्रसन्न थे, तो अबभी पीछे रहने वालों के साथ बैठे रहो।

84- ﴿وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰ أَحَدٍ مِنْهُمْ مَاتَ أَبَدًا وَلَا تَقُمْ عَلَىٰ قَبْرِهِ ۖ إِنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَمَاتُوا وَهُمْ فَاسِقُونَ﴾


(हे नबी!) आप उनमें से कोई मर जाये, तो उसके जनाज़े की नमाज़ कभी न पढ़ें और न उसकी समाधि (क़ब्र) पर खड़े हों। क्योंकि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है और अवज्ञाकारी रहते हुए मरे[1] हैं।

85- ﴿وَلَا تُعْجِبْكَ أَمْوَالُهُمْ وَأَوْلَادُهُمْ ۚ إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ أَنْ يُعَذِّبَهُمْ بِهَا فِي الدُّنْيَا وَتَزْهَقَ أَنْفُسُهُمْ وَهُمْ كَافِرُونَ﴾


आपको उनके धन तथा उनकी संतान चकित न करे, अल्लाह तो चाहता है कि इनके द्वारा उन्हें संसार में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों।

86- ﴿وَإِذَا أُنْزِلَتْ سُورَةٌ أَنْ آمِنُوا بِاللَّهِ وَجَاهِدُوا مَعَ رَسُولِهِ اسْتَأْذَنَكَ أُولُو الطَّوْلِ مِنْهُمْ وَقَالُوا ذَرْنَا نَكُنْ مَعَ الْقَاعِدِينَ﴾


तथा जब कोई सूरह उतारी गयी कि अल्लाह पर ईमान लाओ तथा उसके रसूल के साथ जिहाद करो, तो आपसे उन (मुनाफ़िक़ों) में से समाई वालों ने अनुमति ली और कहा कि आप हमें छोड़ दें। हम बैठने वालों के साथ रहेंगे।

87- ﴿رَضُوا بِأَنْ يَكُونُوا مَعَ الْخَوَالِفِ وَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ فَهُمْ لَا يَفْقَهُونَ﴾


तथा प्रसन्न हो गये कि स्त्रियों के साथ रहें और उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई। अतः वे नहीं समझते।

88- ﴿لَٰكِنِ الرَّسُولُ وَالَّذِينَ آمَنُوا مَعَهُ جَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ ۚ وَأُولَٰئِكَ لَهُمُ الْخَيْرَاتُ ۖ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ﴾


परन्तु रसूल ने और जो आपके साथ ईमान लाये, अपने धनों और प्राणों से जिहाद किया और उन्हीं के लिए भलाईयाँ हैं और वही सफल होने वाले हैं।

89- ﴿أَعَدَّ اللَّهُ لَهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ ذَٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ﴾


अल्लाह ने उनके लिए ऐसे स्वर्ग तैयार कर दिये हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें सदावासी होंगे और यही बड़ी सफता है।

90- ﴿وَجَاءَ الْمُعَذِّرُونَ مِنَ الْأَعْرَابِ لِيُؤْذَنَ لَهُمْ وَقَعَدَ الَّذِينَ كَذَبُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ سَيُصِيبُ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ﴾


और देहातियों में से कुछ बहाना करने वाले आये, ताकि आप उन्हें अनुमति दें तथा वह बैठे रह गये, जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से झूठ बोला। तो इनमें से काफ़िरों को दुःखदायी यातना पहुँचेगी।

91- ﴿لَيْسَ عَلَى الضُّعَفَاءِ وَلَا عَلَى الْمَرْضَىٰ وَلَا عَلَى الَّذِينَ لَا يَجِدُونَ مَا يُنْفِقُونَ حَرَجٌ إِذَا نَصَحُوا لِلَّهِ وَرَسُولِهِ ۚ مَا عَلَى الْمُحْسِنِينَ مِنْ سَبِيلٍ ۚ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَحِيمٌ﴾


निर्बलों तथा रोगियों और उनपर, जो इतना नहीं पाते कि (तैयारी के लिए) व्यय कर सकें, कोई दोष नहीं, जब अल्लाह और उसके रसूल के भक्त हों, तो उनपर (दोषारोपण) की कोई राह नहीं।

92- ﴿وَلَا عَلَى الَّذِينَ إِذَا مَا أَتَوْكَ لِتَحْمِلَهُمْ قُلْتَ لَا أَجِدُ مَا أَحْمِلُكُمْ عَلَيْهِ تَوَلَّوْا وَأَعْيُنُهُمْ تَفِيضُ مِنَ الدَّمْعِ حَزَنًا أَلَّا يَجِدُوا مَا يُنْفِقُونَ﴾


और उनपर, जो आपके पास जब आयें कि आप उनके लिए सवारी की व्यवस्था कर दें और आप कहें कि मेरे पास इतना नहीं कि तुम्हारे लिए सवारी की व्यवस्था करूँ, तो वे इस दशा में वापस हुए कि शोक के कारण, उनकी आँखें आँसू बहा रही[1] थीं।

93- ﴿۞ إِنَّمَا السَّبِيلُ عَلَى الَّذِينَ يَسْتَأْذِنُونَكَ وَهُمْ أَغْنِيَاءُ ۚ رَضُوا بِأَنْ يَكُونُوا مَعَ الْخَوَالِفِ وَطَبَعَ اللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ فَهُمْ لَا يَعْلَمُونَ﴾


दोष केवल उनपर है, जो आपसे अनुमति माँगते हैं, जबकि वे धनी हैं और वे इससे प्रसन्न हो गये कि स्त्रियों के साथ रह जायेंगे और अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी, इसलिए, वे कुछ नहीं जानते।

94- ﴿يَعْتَذِرُونَ إِلَيْكُمْ إِذَا رَجَعْتُمْ إِلَيْهِمْ ۚ قُلْ لَا تَعْتَذِرُوا لَنْ نُؤْمِنَ لَكُمْ قَدْ نَبَّأَنَا اللَّهُ مِنْ أَخْبَارِكُمْ ۚ وَسَيَرَى اللَّهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُولُهُ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَالِمِ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ﴾


वे तुमसे बहाने बनायेंगे, जब तुम उनके पास (तबूक से) वापस आओगे। आप कह दें कि बहाने न बनाओ, हम तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे। अल्लाह ने हमें तुम्हारी दशा बता दी है तथा भविष्य में भी अल्लाह और उसके रसूल तुम्हारा कर्म देखेंगे। फिर तुम परोक्ष और प्रत्यक्ष के ज्ञानी (अल्लाह) की ओर फेरे जाओगे। फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कर रहे थे।

95- ﴿سَيَحْلِفُونَ بِاللَّهِ لَكُمْ إِذَا انْقَلَبْتُمْ إِلَيْهِمْ لِتُعْرِضُوا عَنْهُمْ ۖ فَأَعْرِضُوا عَنْهُمْ ۖ إِنَّهُمْ رِجْسٌ ۖ وَمَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ﴾


वे तुमसे अल्लाह की शपथ लेंगे, जब तुम उनकी ओर वापस आओगे, ताकि तुम उनसे विमुख हो जाओ। तो तुम उनसे विमुख हो जाओ। वास्तव में, वे मलीन हैं और उनका आवास नरक है, उसके बदले, जो वे करते रहे।

96- ﴿يَحْلِفُونَ لَكُمْ لِتَرْضَوْا عَنْهُمْ ۖ فَإِنْ تَرْضَوْا عَنْهُمْ فَإِنَّ اللَّهَ لَا يَرْضَىٰ عَنِ الْقَوْمِ الْفَاسِقِينَ﴾


वे तुम्हारे लिए शपथ लेंगे, ताकि तुम उनसे प्रसन्न हो जाओ, तो यदि तुम उनसे प्रसन्न हो गये, तबभी अल्लाह उल्लंघनकारी लोगों से प्रसन्न नहीं होगा।

97- ﴿الْأَعْرَابُ أَشَدُّ كُفْرًا وَنِفَاقًا وَأَجْدَرُ أَلَّا يَعْلَمُوا حُدُودَ مَا أَنْزَلَ اللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ﴾


देहाती[1] अविश्वास तथा द्विधा में अधिक कड़े और अधिक योग्य हैं कि उस (धर्म) की सीमाओं को न जानें, जिसे अल्लाह ने उतारा है और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।

98- ﴿وَمِنَ الْأَعْرَابِ مَنْ يَتَّخِذُ مَا يُنْفِقُ مَغْرَمًا وَيَتَرَبَّصُ بِكُمُ الدَّوَائِرَ ۚ عَلَيْهِمْ دَائِرَةُ السَّوْءِ ۗ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ﴾


देहातियों में कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने दिये हुए दान को अर्थदण्ड समझते हैं और तुमपर कालचक्र की प्रतीक्षा करते हैं। उन्हींपर कालकुचक्र आ पड़ा है और अल्लाह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।

99- ﴿وَمِنَ الْأَعْرَابِ مَنْ يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَيَتَّخِذُ مَا يُنْفِقُ قُرُبَاتٍ عِنْدَ اللَّهِ وَصَلَوَاتِ الرَّسُولِ ۚ أَلَا إِنَّهَا قُرْبَةٌ لَهُمْ ۚ سَيُدْخِلُهُمُ اللَّهُ فِي رَحْمَتِهِ ۗ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَحِيمٌ﴾


और देहातियों में कुछ ऐसे भी हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान (विश्वास) रखते हैं और अपने दिये हुए दान को अल्लाह की समीप्ता तथा रसूल के आशीर्वादों का साधन समझते हैं। सुन लो! ये वास्तव में, उनके लिए समीप्य का साधन है। शीघ्र ही अल्लाह उन्हें अपनी दया में प्रवेश देगा, वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।

100- ﴿وَالسَّابِقُونَ الْأَوَّلُونَ مِنَ الْمُهَاجِرِينَ وَالْأَنْصَارِ وَالَّذِينَ اتَّبَعُوهُمْ بِإِحْسَانٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمْ وَرَضُوا عَنْهُ وَأَعَدَّ لَهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي تَحْتَهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا ۚ ذَٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ﴾


तथा प्रथम अग्रसर मुहाजिरीन[1] और अन्सार और जिन लोगों ने सुकर्म के साथ उनका अनुसरण किया, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया और वे उससे प्रसन्न हो गये तथा उसने उनके लिए ऐसे स्वर्ग तैयार किये हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें सदावासी होंगे, यही बड़ी सफलता है।

101- ﴿وَمِمَّنْ حَوْلَكُمْ مِنَ الْأَعْرَابِ مُنَافِقُونَ ۖ وَمِنْ أَهْلِ الْمَدِينَةِ ۖ مَرَدُوا عَلَى النِّفَاقِ لَا تَعْلَمُهُمْ ۖ نَحْنُ نَعْلَمُهُمْ ۚ سَنُعَذِّبُهُمْ مَرَّتَيْنِ ثُمَّ يُرَدُّونَ إِلَىٰ عَذَابٍ عَظِيمٍ﴾


और जो तुम्हारे आस-पास ग्रामीन हैं, उनमें से कुछ मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) हैं और कुछ मदीने में हैं। जो (अपने) निफ़ाक़ में अभ्यस्त (निपुण) हैं। आप उन्हें नहीं जानते, उन्हें हम जानते हैं। हम उन्हें दो बार[1] यातना देंगे। फिर घोर यातना की ओर फेर दिये जायेंगे।

102- ﴿وَآخَرُونَ اعْتَرَفُوا بِذُنُوبِهِمْ خَلَطُوا عَمَلًا صَالِحًا وَآخَرَ سَيِّئًا عَسَى اللَّهُ أَنْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَحِيمٌ﴾


और कुछ दूसरे भी हैं, जिन्होंने अपने पापों को स्वीकार कर लिया है। उन्होंने कुछ सुकर्म और कुछ दूसरे कुकर्म को मिश्रित कर दिया है। आशा है कि अल्लाह उन्हें क्षमा कर देगा। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमी, दयावान् है।

103- ﴿خُذْ مِنْ أَمْوَالِهِمْ صَدَقَةً تُطَهِّرُهُمْ وَتُزَكِّيهِمْ بِهَا وَصَلِّ عَلَيْهِمْ ۖ إِنَّ صَلَاتَكَ سَكَنٌ لَهُمْ ۗ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ﴾


(हे नबी!) आप उनके धनों से दान लें और उसके द्वारा उन (के धनों) को पवित्र और उन (के मनों) को शुध्द करें और उन्हें आशीर्वाद दें। वास्तव में, आपका आशीर्वाद उनके लिए संतोष का कारण है और अल्लाह सब सुनने-जानने वाला है।

104- ﴿أَلَمْ يَعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ هُوَ يَقْبَلُ التَّوْبَةَ عَنْ عِبَادِهِ وَيَأْخُذُ الصَّدَقَاتِ وَأَنَّ اللَّهَ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ﴾


क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह ही अपने भक्तों की क्षमा स्वीकार करता तथा (उनके) दानों को अंगीकार करता है और वास्तव में, अल्लाह अति क्षमी दयावान् है?

105- ﴿وَقُلِ اعْمَلُوا فَسَيَرَى اللَّهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُولُهُ وَالْمُؤْمِنُونَ ۖ وَسَتُرَدُّونَ إِلَىٰ عَالِمِ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ﴾


और (हे नबी!) उनसे कहो कि कर्म करते जाओ। अल्लाह, उसके रसूल और ईमान वाले तुम्हारा कर्म देखेंगे। (फिर) उस (अल्लाह) की ओर फेरे जाओगे, जो परोक्ष तथा प्रत्यक्ष (छुपे तथा खुले) का ज्ञानी है। तो वह तुम्हें बता देगा, जो तुम करते रहे।

106- ﴿وَآخَرُونَ مُرْجَوْنَ لِأَمْرِ اللَّهِ إِمَّا يُعَذِّبُهُمْ وَإِمَّا يَتُوبُ عَلَيْهِمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ﴾


और (इनके सिवाय) कुछ दूसरे भी हैं, जो अल्लाह के आदेश के लिए विलंबित[1] हैं। वह उन्हें दण्ड दे अथवा उन्हें क्षमा कर दे, अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।

107- ﴿وَالَّذِينَ اتَّخَذُوا مَسْجِدًا ضِرَارًا وَكُفْرًا وَتَفْرِيقًا بَيْنَ الْمُؤْمِنِينَ وَإِرْصَادًا لِمَنْ حَارَبَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ مِنْ قَبْلُ ۚ وَلَيَحْلِفُنَّ إِنْ أَرَدْنَا إِلَّا الْحُسْنَىٰ ۖ وَاللَّهُ يَشْهَدُ إِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ﴾


तथा (द्विधावादियों में) वे भी हैं, जिन्होंने एक मस्जिद[1] बनाई; इसलिए कि (इस्लाम को) हानि पहुँचायें, कुफ़्र करें, ईमान वालों में विभेद उतपन्न करें तथा उसका घात-स्थल बनाने के लिए, जो इससे पूर्व अल्लाह और उसके रसूल से युध्द कर[2] चुका है और वे अवश्य शपथ लेंगे कि हमारा संकल्प भलाई के सिवा और कुछ न था तथा अल्लाह साक्ष्य देता है कि वे निश्चय मिथ्यावादी हैं।

108- ﴿لَا تَقُمْ فِيهِ أَبَدًا ۚ لَمَسْجِدٌ أُسِّسَ عَلَى التَّقْوَىٰ مِنْ أَوَّلِ يَوْمٍ أَحَقُّ أَنْ تَقُومَ فِيهِ ۚ فِيهِ رِجَالٌ يُحِبُّونَ أَنْ يَتَطَهَّرُوا ۚ وَاللَّهُ يُحِبُّ الْمُطَّهِّرِينَ﴾


(हे नबी!) आप उसमें कभी खड़े न हों। वास्तव में, वो मस्जिद[1] जिसका शिलान्यास प्रथम दिन से अल्लाह के भय पर किया गया है, वो अधिक योग्य है कि आप उसमें (नमाज़ के लिए) खड़े हों। उसमें ऐसे लोग हैं, जो स्वच्छता से प्रेम[2] करते हैं और अल्लाह स्वच्छ रहने वालों से प्रेम करता है।

109- ﴿أَفَمَنْ أَسَّسَ بُنْيَانَهُ عَلَىٰ تَقْوَىٰ مِنَ اللَّهِ وَرِضْوَانٍ خَيْرٌ أَمْ مَنْ أَسَّسَ بُنْيَانَهُ عَلَىٰ شَفَا جُرُفٍ هَارٍ فَانْهَارَ بِهِ فِي نَارِ جَهَنَّمَ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ﴾


तो क्या जिसने अपने निर्माण का शिलान्यास अल्लाह के भय और प्रसन्नता के आधार पर किया हो, वह उत्तम है अथवा जिसने उसका शिलान्यास एक खाई के गिरते हुए किनारे पर किया हो, जो उसके साथ नरक की अग्नि में गिर पड़ा? और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।

110- ﴿لَا يَزَالُ بُنْيَانُهُمُ الَّذِي بَنَوْا رِيبَةً فِي قُلُوبِهِمْ إِلَّا أَنْ تَقَطَّعَ قُلُوبُهُمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ﴾


ये निर्माण जो उन्होंने किया, बराबर उनके दिलों में एक संदेह बना रहेगा, परन्तु ये कि उनके दिलों को खण्ड-खण्ड कर दिया जाये और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।

111- ﴿۞ إِنَّ اللَّهَ اشْتَرَىٰ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ أَنْفُسَهُمْ وَأَمْوَالَهُمْ بِأَنَّ لَهُمُ الْجَنَّةَ ۚ يُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ فَيَقْتُلُونَ وَيُقْتَلُونَ ۖ وَعْدًا عَلَيْهِ حَقًّا فِي التَّوْرَاةِ وَالْإِنْجِيلِ وَالْقُرْآنِ ۚ وَمَنْ أَوْفَىٰ بِعَهْدِهِ مِنَ اللَّهِ ۚ فَاسْتَبْشِرُوا بِبَيْعِكُمُ الَّذِي بَايَعْتُمْ بِهِ ۚ وَذَٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ﴾


निःसंदेह अल्लाह ने ईमान वालों के प्राणों तथा उनके धनों को इसके बदले ख़रीद लिया है कि उनके लिए स्वर्ग है। वे अल्लाह की राह में युध्द करते हैं, वे मारते तथा मरते हैं। ये अल्लाह पर सत्य वचन है, तौरात, इंजील और क़ुर्आन में और अल्लाह से बढ़कर अपना वचन पूरा करने वाला कौन हो सकता है? अतः, अपने इस सौदे पर प्रसन्न हो जाओ, जो तुमने किया और यही बड़ी सफलता है।

112- ﴿التَّائِبُونَ الْعَابِدُونَ الْحَامِدُونَ السَّائِحُونَ الرَّاكِعُونَ السَّاجِدُونَ الْآمِرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَالنَّاهُونَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَالْحَافِظُونَ لِحُدُودِ اللَّهِ ۗ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِينَ﴾


जो क्षमा याचना करने, वंदना करने तथा अल्लाह की स्तुति करने वाले, रोज़ा रखने तथा रुकूअ और सज्दा करने वाले, भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने वाले तथा अल्लाह की सीमाओं की रक्षा करने वाले हैं और (हे नबी!) आप ऐसे ईमान वालों को शुभ सूचना सुना दें।

113- ﴿مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَنْ يَسْتَغْفِرُوا لِلْمُشْرِكِينَ وَلَوْ كَانُوا أُولِي قُرْبَىٰ مِنْ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمْ أَنَّهُمْ أَصْحَابُ الْجَحِيمِ﴾


किसी नबी तथा[1] उनके लिए जो ईमान लाये हों, योग्य नहीं है कि मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए क्षमा की प्रार्थना करें। यद्यपि वे उनके समीपवर्ती हों, जब ये उजागर हो गया कि वास्तव में, वह नारकी[2] हैं।

114- ﴿وَمَا كَانَ اسْتِغْفَارُ إِبْرَاهِيمَ لِأَبِيهِ إِلَّا عَنْ مَوْعِدَةٍ وَعَدَهَا إِيَّاهُ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُ أَنَّهُ عَدُوٌّ لِلَّهِ تَبَرَّأَ مِنْهُ ۚ إِنَّ إِبْرَاهِيمَ لَأَوَّاهٌ حَلِيمٌ﴾


और इब्राहीम का अपने बाप के लिए क्षमा की प्रार्थना करना, केवल इसलिए हुआ की उसने उसे, इसका वचन दिया[1] था और जब उसके लिए उजागर हो गया कि वह अल्लाह का शत्रु है, तो उससे विरक्त हो गया। वास्तव में, इब्राहीम बड़ा कोमल हृदय, सहनशील था।

115- ﴿وَمَا كَانَ اللَّهُ لِيُضِلَّ قَوْمًا بَعْدَ إِذْ هَدَاهُمْ حَتَّىٰ يُبَيِّنَ لَهُمْ مَا يَتَّقُونَ ۚ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ﴾


अल्लाह ऐसा नहीं है कि किसी जाति को, मार्गदर्शन देने के पश्चात् कुपथ कर दे, जब तक उनके लिए जिससे बचना चाहिए, उसे उजागर न कर दे। वास्तव में, अल्लाह प्रत्येक वस्तु को भली-भाँति जानने वाला है।

116- ﴿إِنَّ اللَّهَ لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ يُحْيِي وَيُمِيتُ ۚ وَمَا لَكُمْ مِنْ دُونِ اللَّهِ مِنْ وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ﴾


वास्तव में, अल्लाह ही है, जिसके अधिकार में आकाशों तथा धरती का राज्य है। वही जीवन देता तथा मारता है और तुम्हारे लिए उसके सिवा कोई संरक्षक और सहायक नहीं है।

117- ﴿لَقَدْ تَابَ اللَّهُ عَلَى النَّبِيِّ وَالْمُهَاجِرِينَ وَالْأَنْصَارِ الَّذِينَ اتَّبَعُوهُ فِي سَاعَةِ الْعُسْرَةِ مِنْ بَعْدِ مَا كَادَ يَزِيغُ قُلُوبُ فَرِيقٍ مِنْهُمْ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّهُ بِهِمْ رَءُوفٌ رَحِيمٌ﴾


अल्लाह ने नबी तथा मुहाजिरीन और अन्सार पर दया की, जिन्होंने तंगी के समय आपका साथ दिया, इसके पश्चात् कि उनमें से कुछ लोगों के दिल कुटिल होने लगे थे। फिर उनपर दया की। निश्चय वह उनके लिए अति करुणामय, दयावान् है।

118- ﴿وَعَلَى الثَّلَاثَةِ الَّذِينَ خُلِّفُوا حَتَّىٰ إِذَا ضَاقَتْ عَلَيْهِمُ الْأَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ وَضَاقَتْ عَلَيْهِمْ أَنْفُسُهُمْ وَظَنُّوا أَنْ لَا مَلْجَأَ مِنَ اللَّهِ إِلَّا إِلَيْهِ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ لِيَتُوبُوا ۚ إِنَّ اللَّهَ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ﴾


तथा उन तीनों[1] पर जिनका मामला विलंबित कर दिया गाय था, जब उनपर धरती अपने विस्तार के होते सिकुड़ गयी और उनपर उनके प्राण संकीर्ण[2] हो गये और उन्हें विश्वास था कि अल्लाह के सिवा उनके लिए कोई शरणागार नहीं, परन्तु उसी की ओर। फिर उनपर दया की, ताकि तौबा (क्षमा याचना) कर लें। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।

119- ﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَكُونُوا مَعَ الصَّادِقِينَ﴾


हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो तथा सचों के साथ हो जाओ।

120- ﴿مَا كَانَ لِأَهْلِ الْمَدِينَةِ وَمَنْ حَوْلَهُمْ مِنَ الْأَعْرَابِ أَنْ يَتَخَلَّفُوا عَنْ رَسُولِ اللَّهِ وَلَا يَرْغَبُوا بِأَنْفُسِهِمْ عَنْ نَفْسِهِ ۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ لَا يُصِيبُهُمْ ظَمَأٌ وَلَا نَصَبٌ وَلَا مَخْمَصَةٌ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَلَا يَطَئُونَ مَوْطِئًا يَغِيظُ الْكُفَّارَ وَلَا يَنَالُونَ مِنْ عَدُوٍّ نَيْلًا إِلَّا كُتِبَ لَهُمْ بِهِ عَمَلٌ صَالِحٌ ۚ إِنَّ اللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجْرَ الْمُحْسِنِينَ﴾


मदीना के वासियों तथा उनके आस-पास के देहातियों के लिए उचित नहीं था कि अल्लाह के रसूल से पीछे रह जायें और अपने प्राणों को आपके प्राण से प्रिय समझें। ये इसलिए कि उन्हें अल्लाह की राह में कोई प्यास और थकान तथा भूक नहीं पहुँचती है और न वे किसी ऐसे स्थान को रोंदते हैं, जो काफ़िरों को अप्रिय हो या किसी शत्रु से वह कोई सफलता प्राप्त नहीं करते हैं, परन्तु उनके लिए एक सत्कर्म लिख दिया जाता है। वास्तव में, अल्लाह सत्कर्मियों का फल व्यर्थ नहीं करता।

121- ﴿وَلَا يُنْفِقُونَ نَفَقَةً صَغِيرَةً وَلَا كَبِيرَةً وَلَا يَقْطَعُونَ وَادِيًا إِلَّا كُتِبَ لَهُمْ لِيَجْزِيَهُمُ اللَّهُ أَحْسَنَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ﴾


और वे (अल्लाह की राह में) थोड़ा या अधिक, जो भी व्यय करते हैं, और जो भी घाटी पार करते हैं, उसे उनके लिए लिख दिया जाता है, ताकि वह उन्हें उससे उत्तम प्रतिफल प्रदान करे, जो वे कर रहे थे।

122- ﴿۞ وَمَا كَانَ الْمُؤْمِنُونَ لِيَنْفِرُوا كَافَّةً ۚ فَلَوْلَا نَفَرَ مِنْ كُلِّ فِرْقَةٍ مِنْهُمْ طَائِفَةٌ لِيَتَفَقَّهُوا فِي الدِّينِ وَلِيُنْذِرُوا قَوْمَهُمْ إِذَا رَجَعُوا إِلَيْهِمْ لَعَلَّهُمْ يَحْذَرُونَ﴾


ईमान वालों के लिए उचित नहीं कि सब एक साथ निकल पड़ें; तो क्यों नहीं प्रत्येक समुदाय से एक गिरोह निकलता, ताकि धर्म में बोध ग्रहण करें और ताकि अपनी जाति को सावधान करें, जब उनकी ओर वापस आयें, संभवतः वे (कुकर्मों से) बचें[1]।

123- ﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا قَاتِلُوا الَّذِينَ يَلُونَكُمْ مِنَ الْكُفَّارِ وَلْيَجِدُوا فِيكُمْ غِلْظَةً ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ مَعَ الْمُتَّقِينَ﴾


हे ईमान वलो! अपने आस-पास के काफ़िरों से युध्द करो[1] और चाहिए कि वे तुममें कुटिलता पायें तथा विश्वास रखो कि अल्लाह आज्ञाकारियों के साथ है।

124- ﴿وَإِذَا مَا أُنْزِلَتْ سُورَةٌ فَمِنْهُمْ مَنْ يَقُولُ أَيُّكُمْ زَادَتْهُ هَٰذِهِ إِيمَانًا ۚ فَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا فَزَادَتْهُمْ إِيمَانًا وَهُمْ يَسْتَبْشِرُونَ﴾


और जब (क़ुर्आन की) कोई आयत उतारी जाती है, तो इन (द्विधावादियों में) से कुछ कहते हैं कि तुममें से किसका ईमान (विश्वास) इसने अधिक किया[1]? तो वास्तव में, जो ईमान रखते हैं, उनका विश्वास अवश्य अधिक कर दिया और वे इसपर प्रसन्न हो रहे हैं।

125- ﴿وَأَمَّا الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمْ مَرَضٌ فَزَادَتْهُمْ رِجْسًا إِلَىٰ رِجْسِهِمْ وَمَاتُوا وَهُمْ كَافِرُونَ﴾


परन्तु, जिनके दिलों में (द्विधा) का रोग है, तो उसने उनकी गंदगी और अधिक बढ़ा दी और वे काफ़िर रहते हुए ही मर गये।

126- ﴿أَوَلَا يَرَوْنَ أَنَّهُمْ يُفْتَنُونَ فِي كُلِّ عَامٍ مَرَّةً أَوْ مَرَّتَيْنِ ثُمَّ لَا يَتُوبُونَ وَلَا هُمْ يَذَّكَّرُونَ﴾


क्या वे नहीं देखते कि उनकी परीक्षा प्रत्येक वर्ष एक बार अथवा दो बार ली जाती[1] है? फिर भी वे तौबा (क्षमा याचना) नहीं करते और न शिक्षा ग्रहण करते हैं!

127- ﴿وَإِذَا مَا أُنْزِلَتْ سُورَةٌ نَظَرَ بَعْضُهُمْ إِلَىٰ بَعْضٍ هَلْ يَرَاكُمْ مِنْ أَحَدٍ ثُمَّ انْصَرَفُوا ۚ صَرَفَ اللَّهُ قُلُوبَهُمْ بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَا يَفْقَهُونَ﴾


और जब कोई सूरह उतारी जाये, तो वे एक-दूसरे की ओर देखते हैं कि तुम्हें कोई देख तो नहीं रहा है? फिर मुँह फेरकर चल देते हैं। अल्लाह ने उनके दिलों को (ईमान से)[1] फेर दिया है। इस कारण कि वे समझ-बूझ नहीं रखते।

128- ﴿لَقَدْ جَاءَكُمْ رَسُولٌ مِنْ أَنْفُسِكُمْ عَزِيزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّمْ حَرِيصٌ عَلَيْكُمْ بِالْمُؤْمِنِينَ رَءُوفٌ رَحِيمٌ﴾


(हे ईमान वालो!) तुम्हारे पास तुम्हीं में से अल्लाह का एक रसूल आ गया है। उसे वो बात भारी लगती है, जिससे तुम्हें दुःख हो, वह तुम्हारी सफलता की लालसा रखते हैं और ईमान वालों के लिए करुणामय दयावान् हैं।

129- ﴿فَإِنْ تَوَلَّوْا فَقُلْ حَسْبِيَ اللَّهُ لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ۖ عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ ۖ وَهُوَ رَبُّ الْعَرْشِ الْعَظِيمِ﴾


(हे नबी!) फिर भी यदि वे आपसे मुँह फेरते हों, तो उनसे कह दो कि मेरे लिए अल्लाह (का सहारा) बस है। उसके अतिरिक्त कोई ह़क़ीक़ी पूज्य नहीं और वही महासिंहासन का मालिक (स्वामी) है।

الترجمات والتفاسير لهذه السورة: